सुर्रियल पटना (पटना २३)
झाल कूटना
छपना ‘लेबंटी चाह’ का
पर स्वाभाविक है मुझे पटना डायरी पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ हमेशा अच्छी लगी तो लिखना टलता तो रहा पर ये भी था कि कभी तो लिखना होगा ही। और ये भी स्पष्ट हो गया था कि पहली किताब होगी तो पटना डायरी की शैली में ही। और अभी भी लोगों को लगता है कि किताब का अपना ही जलवा है। इंटरनेट-ब्लॉग अपनी जगह है। तो लोग कहते रहे कि किताब छपवाओ।
हिन्दी
‘लेबंटी चाह’के एक प्रोग्राम में एक प्रश्न उठा: मैंने ‘लेबंटी चाह’ हिन्दी में क्यों लिखा? अंग्रेज़ी क्यों नहीं? काम करते हो न्यू यॉर्क में, पढ़ाते हो मशीन लर्निंग और किताब हिन्दी में!
पौन घंटे के प्रोग्राम में मैं विस्तार से बता नहीं पाया। मन नहीं भरा अपने उत्तर से। कई बातें हैं और सारी बातें इसी बात पर ‘कंवर्ज’ होती हैं कि लिखना हिन्दी में ही हो पाएगा। जैसे एक और सवाल था कि क्या मैं अपनी किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाना चाहूँगा? जिसका उत्तर मैंने दिया - नहीं। क्योंकि किताब की भाषा भी कथानक जितनी ही महत्त्वपूर्ण है और मुझे लगता है कि उसका ठीक-ठीक अनुवाद हो नहीं सकता।
...असली कारण तो वही है जो अनूप जी ने दैनिक जागरण में तब लिखा था जब मैंने पटना डायरी लिखना शुरू ही किया था। उन्होंने एक लाइन लिखी थी कि… “अभिषेक जस का तस लिख देते हैं। अभिषेक को पढ़ते हुए हजारीप्रसाद की बात याद आई - ‘यदि मैं बाणभट्ट की आत्मकथा भोजपुरी में लिखता तो यह उपन्यास अधिक प्रभावी होता!” लेबंटी चाह लिखते हुए मुझे हमेशा वैसा ही लगा। मेरा लिखा प्रभावी हो ना हो लेकिन यदि हुआ तो वो हिन्दी में लिखा ही हो सकता है। (इसका अर्थ ये मत निकाल लीजिएगा - एक किताब क्या लिख लिए अपने को हजारीप्रसाद ही समझने लगे। आजकल लोग कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं तो बताना पड़ता है। इसका अर्थ ये है कि जब आचार्य हजारीप्रसाद जैसे विद्वान अपनी मातृभाषा के लिए ऐसा कहें तो हम भला किस खेत की मूली हैं।)
लेकिन हिन्दी में रुचि कब और कैसे हुई, लिखने का कब सोचा इसका उत्तर इतना स्पष्ट है नहीं।
मुझे लगता है किसी भी विषय में रुचि बचपन और शिक्षकों पर बहुत निर्भर करती है। वो शिक्षक जिन्होंने गणित-विज्ञान को हिन्दी-संस्कृत पर कभी हावी नहीं होने दिया उनका इसमें बड़ा योगदान है। विशेषकर संस्कृत और गणित के शिक्षक। मुझे बहुत मानते। इतना कि मुझे लगता कुछ ग़लत कर दूँगा तो वो निराश हो जाएँगे। एक बार ऐसा हुआ कि संस्कृत के एक क्विज़ में स्त्री प्रत्यय के एक सवाल में ङीप्,- ङीष् में गलती हो गयी। मैं अगले दिन किताब लेकर गया कि यहाँ से पढ़ा था। गलती मेरी नहीं है। उस किताब के ष का पेट काटने वाला मिट कर प जैसा हो गया था। संस्कृत के शिक्षक की एक बात याद है जो पता नहीं उन्होंने कितनी गम्भीरता से कहा था (या ऐसे ही कह दिया था जैसे ब्लॉग पर आयी अधिकतर टिप्पणियाँ होती थी लेकिन मैंने गम्भीरता से लिया)। दसवीं के परिणामों के बाद उन्होंने कहा था - ‘बहुत अच्छे नम्बर ले आए तुम अभिषेक। लेकिन मुझे तो लगा था कि तुम्हारे संस्कृत में भी गणित जितने नम्बर आ सकते थे।’ (उस जमाने में हर विषय में सौ में निन्यानबे-सौ नहीं आते थे!)
वैसे ही गणित के शिक्षक। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा था कि मुझे कभी किताब लिखने का बहुत ज़्यादा मन नहीं था और लिखने के बाद भी संशय बहुत रहा कि पता नहीं लोगों को किताब कैसी लगे। पर कुछ पल आए जब लगा लिखना सफल रहा। उनमें से एक था जब स्कूल के गणित के शिक्षक का बड़ा प्यारा मैसेज आया। उसी लहजे में जैसे वो बोला करते - डायलॉग की तरह। शिक्षक गणित के लेकिन स्कूल में नाटक -भाषण वग़ैरह लिखने-लिखवाने में बड़ी रुचि लेते।
फिर हिन्दी उस उम्र से पढ़ा है जब का कुछ याद भी नहीं। खूब किताबें पढ़ी। अंग्रेज़ी में कथा-कहानी-संस्मरण लिखने का सोच भी कैसे सकते हैं! अंग्रेज़ी हमेशा लगी कि बस पढ़ने का एक विषय है। हिन्दी मैंने पढ़ना शुरू किया था घर की किताबें चाट जाने से। स्कूल की लाइब्रेरी से भी खूब पढ़ा। इन किताबों में सम्पूर्ण प्रेमचंद, शरतचंद्र, आचार्य चतुरसेन की सोमनाथ, कन्हैयालाल मुंशी की भगवान परशुराम, मनोहर श्याम जोशी की कुरु कुरु स्वाहा जैसी किताबें थी। स्कूल की लाइब्रेरी से गुलिवर की यात्राएं, 80 दिन में दुनिया की सैर, क़ैदी की करामात जैसे अनुवाद की हुई किताबें खूब पढ़ा। सैकड़ों नहीं भी तो पचास से अधिक तो आराम से। फिर बचपन में घर का माहौल ऐसा था कि रामचरितमानस जैसी किताब की चौपाइयाँ, कबीर-रहीम-घाघ, भूषण वग़ैरह बिना पढ़े ही पता होते। गीता प्रेस की किताबें, पुराण, और कल्याण बचपन से ही इस सिलेबस का हिस्सा रहे। रादूगो प्रकाशन वग़ैरह की रूसी किताबें राँची में खूब मिलती। राँची में एक बाज़ार में एक बूढ़े व्यक्ति पुरानी किताबें बेचते। ज़मीन पर बिछाकर। अनपढ़ थे। किताब की बाइंडिंग और वजन देख क़ीमत लगाते - क्या गणित, क्या विज्ञान और क्या साहित्य! उनसे कौड़ी के भाव ख़रीदी गयी उत्कृष्ट किताबें भी पढ़ी गयी।
और काम करने का ऐसा है कि आज भी जोड़-घटाव तो मैं तो ऐसे ही करता हूँ - पाँच-सात-बारह, बारह नवा इठोल से। पाँच दूनी दस, पाँच एकम पाँच। - आइ थिंक ईंट विल बी एराउंड ट्वेंटी वन, ट्वेंटी वन पोईँट सिक्स। सोचने की भाषा थोड़े न बदलती है कभी! जो कहते हैं कि बचपन की बोली भूल गए… वो ही जाने। ख़ैर…
ग्यारहवीं-बारहवीं के साल इरोडोव, रेस्निक, लोनी, पुली, और लकड़ी के वेज पर बॉल लुढ़केगी तो किधर कितना फ़ोर्स लगेगा जैसी बातों में निकल गए। हिन्दी सिलेबस में थी पर साल के शुरू में ही किताबें पढ़ कर रख दिया था। ये सोचकर कि जितनी हिन्दी पढ़ा है उतनी पर्याप्त होनी चाहिए। सम्मान भर के अंक के साथ पास होने के लिए। सिलेबस में जो भी गद्य-पद्य था आधा पहले से पढ़ा हुआ लगा। ग्यारहवीं-बारहवीं में हिन्दी की क्लास भी बहुत बड़ी होती। आर्ट्स-कॉमर्स-साइंस सभी के लिए हिन्दी कॉमनथी। सेंट ज़ेवियर्स राँची में ग्यारहवीं-बारहवीं में भी हिन्दी ‘प्रोफ़ेसर’ पढ़ाते। जो बीए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। कुछ राँची विश्वविद्यालय के एमए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। शिक्षक वहाँ अब भी वही हैं। सारे पीएचडी। कक्षाएँ अच्छी होती। पर जहां स्कूल के शिक्षक हर क्लास में चर्चा करते, यहाँ शिक्षक-विद्यार्थी में एकतरफ़ा संवाद था। मेरा नाता बस हाज़िरी लगाने और व्याख्यान सुनने तक ही था। पर अच्छा लगता। परीक्षा हुई तो पढ़ा तो था नहीं इसलिए अपने हिसाब से लिखा। पता नहीं कैसे प्रोफ़ेसर लोगों को पसंद आया। शायद पहली परीक्षा के बाद अंक भी सबसे अधिक दिए थे डॉक्टर भाटिया ने। दो सालों में एक परीक्षा के बाद शायद पहला और आख़िरी मौक़ा था जब मुझसे किसी हिन्दी के अध्यापक ने बात की थी। मुझे बुला कर कहा कि तुम्हारी उत्तर पुस्तिका सबसे अलग थी।
आईआईटी में हिन्दी से नाता रहा ट्रेन में पढ़ी जाने वाली किताबों से। वो भी तीसरे साल के बाद शुरू हुआ। कानपुर सेंट्रल प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर घुसते ही दाहिनी तरफ़ के व्हीलर्स से ख़रीदी गयी किताबें। चित्रलेखा, गुनाहों का देवता, वैशाली की नगरवधू इत्यादि - यूज़ूअल ससपेक्ट्स। अंतिम साल में आईआईटी के बुक क्लब से भी कुछ हिन्दी किताबें लाया पर वहाँ ढंग की हिन्दी किताबें होती नहीं थी (लाइब्रेरी में अच्छी किताबें थी पर वो हमेशा ही कोई कर्मचारी ले गया रहा होता )। ‘वैशाली की नगरवधू’ अकेली हिंदी की किताब थी जिसे हॉस्टल में मेरे अतिरिक्त मेरी विंग में कुछ और लोगों ने भी पढ़ा। पर छुट्टियों में हिन्दी में साहित्य के अतिरिक्त भी हिन्दी की किताबें पढ़ा - घर पर पड़ी बीए, एमए की कई किताबें हिंदी में थी। इतिहास, राजनीतिशास्त्र - यूरोप का इतिहास, मध्यकालीन भारत का इतिहास, बीए अंग्रेज़ी की किताबें भी पढ़ी।
ब्लॉगिंग आईआईटी से निकलते-निकलते शुरू हुई। जिससे कई लोगों से सम्पर्क और दोस्ती हुई। कुछ ने अख़बारों में भी लिखवाया। ब्लॉगिंग तो ख़ैर सबसे बड़ा कारण बना हिन्दी में लिखने का। ओझा-उवाच लेबंटी चाह की माँ है - इधर से ही लेबंटी चाह का जन्म हुआ। तो उसकी बात क्या करना।
पर हिन्दी किताबें पढ़ने से भी एक के बाद एक कई रोचक बातें हुई। अंग्रेज़ी की किताबें मैंने हिन्दी से अधिक पढ़ा पर उन्हें पढ़ते हुए ऐसी बातें कभी नहीं हुई। (बस एक बार बलिया जाते हुए किसी ने ट्रेन में कहा था कि हल्ला मत करो लड़का अंग्रेज़ी पढ़ रहा है परीक्षा देने जा रहा होगा। और मैंने कहा था कि नहीं परीक्षा देने नहीं जा रहा ऐसे ही पढ़ रहा हूँ।)
पहली तो पुणे में। पुणे में एबीसी चौक है - अप्पा बलवंत चौक। वहाँ किताबों की दुकानें ही दुकानें हैं। २००८-०९ में अमेजन ऐसा था नहीं। किसी ने बताया था कि हिन्दी की किताबें वहीं मिलेंगी। वैसे हिन्दी की किताबें पुणे में मुश्किल से ही मिलती है। एक दो दुकानदारों ने तो साफ़ मना कर दिया। फिर …एक दुकान वाले ने मेरी किताबों की लिस्ट देख कुर्सी पर बैठाया। बड़े सम्मान से। पूछा चाय-ठंडा मँगा दूँ? मुझे ज़िंदगी में इसके अलावा कभी किसी दुकान वाले ने चाय-ठंडा ऑफ़र नहीं किया। ज्वेलर्स इत्यादि जैसे दुकान वाले, जो ये सब ऑफ़र करते हैं, वहाँ मैं कभी गया नहीं। बचपन में किराने की दुकान वाले ने कभी किसमिस-इलायची दिया हो और मैंने नहीं लिया हो के अलावा ऐसा पहली बार हुआ था।
पूछा - ‘पुणे यूनिवर्सिटी में एमए-पीएचडी कर रहे हो क्या? ऐसी किताबें ख़रीदने कभी कभार बस वही लोग आते हैं। कभी-कभी कोई ऐसा आता है ऐसी किताबें पढ़ने वाला।’
बड़ी इज्जत दी उन्होंने। जो किताबें उनके पास नहीं थी आस-पास से मँगा कर दी। अपना नम्बर दिया कि कोई भी किताब मँगा देंगे। पहली बार लगा हिन्दी पढ़ने और अच्छा पढ़ने पर विशेष भाव मिलता है! उन्होंने लिस्ट देख ययाति-मृत्युंजय पढ़ने की भी सलाह दी। दोनों मराठी की अनुवाद।
दुकान वाले का कहा मैंने सोचा एमए कर ही लें क्या! मज़ाक़-मज़ाक़ में नहीं गम्भीरता से। उन दिनों साथ के लोग एमबीए वग़ैरह पर ज़ोर मार रहे थे। एमबीए नहीं करने का मेरा निश्चय बहुत पहले से था। पीएचडी करने का मोहभंग पूरी तरह से तो कभी नहीं हुआ पर नौकरी में मन लगने से इतना तो हो चुका था कि (महेंद्र कपूर की आवाज़ में पढ़े) - उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। पीएचडी के परे पढ़ने का विचार ऐसा बनने लगा था जैसे बेवड़ो की एक श्रेणी होती है - फ़्री का मिला तो पी लेंगे। अर्थात् ये कि जो भी पढ़ने के पैसे कम्पनी दे देगी वो पढ़ते रहेंगे। और जो सीखने का मन हुआ उसे पढ़ा लेंगे। इन सबके साथ हिन्दी की किताबें पढ़ना फिर से शुरू हो गया था - दिनकर, अज्ञेय, अमृत लाल नागर, भगवती चरण वर्मा, धर्मवीर भारती, राजकमल चौधरी, विनोदकुमार शुक्ल वग़ैरह वग़ैरह।
पुणे में ही एक दिन मैं इग्नू एमए हिन्दी में एक दिन एडमिशन लेने चला गया। उन्होंने बोला था हिन्दी में एडमिशन के लिए किसी भी विषय में डिग्री की फोटो कॉपी लगेगी। हिन्दी में एडमिशन के लिए कुछ विशेष आवश्यकता थी नहीं। पर डिग्री देखकर सकते में आ गए - ये आपकी डिग्री है? आपको हिन्दी में क्यों एडमिशन लेना है? भारत में कहीं भी लोग अपने काम से अधिक काम रखते हैं। ख़ैर उनको उत्सुकता बहुत ज़्यादा थी पर कुछ सवाल-जवाब के बाद उन्होंने एडमिशन दे दिया। मैंने एक साथ दोनों साल की किताबें माँग ली। किताबें उनके स्टोर में बस पहले साल की ही थी। स्टोर ही था। बड़ी बेरहमी से प्लास्टिक की रस्सी में बाँध कर सीलन वाले कमरे में पीली पड़ती किताबें रखी थी। किताबों का मानवाधिकार की तरह किताबाधिकार तो होता नहीं। उन्होंने कहा कि एक सप्ताह में फ़ोन कर आ जाऊँ दूसरे साल की किताबें भी मिल जाएँगी। एक दो बार फ़ोन करने तक दूसरे साल की किताबें नहीं आ पायी और तीसरे चौथे फ़ोन के पहले मैं अमेरिका आ गया। एमए पहले साल वाली किताबें सात समंदर पार मेरे पीछे-पीछे आ गयी। अब भी साथ हैं।
किताबों (ज़्यादातर हिन्दी) के अमेरिका आने का ऐसा था कि कम्पनी कुछ भी समान ले आने का पैसा दे रही थी। तब हमारे पास सामान के नाम पर बस किताबें ही थी। कुछ और ख़रीद कर, कुछ दिल्ली से मँगा कर भी शिपकर दी गयी। बाद में जब ढाई महीनों के लिए पटना जाना हुआ तो उन्हीं दिनों एक किताब हाथ लग जाने से संस्कृत पढ़ना भी शुरू किया। चौखंबा की किताबें।
हिन्दी किताबों के मुझ तक पहुँचने के किस्से भी कम रोचक नहीं रहे। एक दो साल बाद एक और मित्र अपनी कम्पनी के पैसे पर भारत से आ रहे थे। उन्होंने पूछा कि कुछ चाहिए? (जैसे अमेरिका से कोई दोस्त भारत आए तो एक आईफ़ोन मंगाना होता है उसका उल्टा भी होता है!) तो हमने उन्हें भी एक लिस्ट थमा दी। उन्होंने वो लिस्ट अपने भ्राताश्री को बनारस भेज दिया। ये कहते हुए कि हमारे बहुत प्रिय मित्र ने मंगायी है, किताबें अमेरिका जानी हैं। उन्होंने मामले को इतनी गम्भीरता से लिया कि कुछ किताबें जो प्रिंट में नहीं थी वो भी ढूँढ कर आ गयी। भले लोग! मैं खुद इतनी मेहनत कभी नहीं करता। फिर बनारसी आदमी गम्भीरता से ले ले तो हिन्दी की किताबें भला कौन सी बड़ी बात है! धीरे-धीरे ये बात भी थोड़ी बहुत फैल गयी कि हिन्दी पढ़ता है। तो लोग पूछ लेते - पुस्तक मेला है कोई किताब लानी है तुम्हारे लिए? सोचूँ तो ऐसे लोगों की लिस्ट भी छोटी नहीं है जिन्होंने मुझे हिन्दी की किताबें दी। कई दोस्त-दोस्तनियों ने किताबें दी। निर्मल वर्मा, स्वदेश दीपक, सुरेन्द्र वर्मा की किताबों से ना केवल परिचय कराया पर किताबें भी न्यूयॉर्क तक पहुँचायी। अंग्रेज़ी की किताब पढ़ने से ये सब होता? पढ़ते तो रहे ऐसा कुछ नहीं हुआ।
और फिर इन किताबों के पढ़ते हुए भी कुछ कम रोचक किस्से नहीं हुए। अनगिनत।
उन दिनों मैं कुरुक्षेत्र पढ़ रहा था। हार्ड बाउंड। सुंदर किताब। मुंबई से अमेरिका आ रहा था। कम्पनी के पैसे पर बिज़नेस क्लास से। एक सज्जन पूरी फ़्लाइट हमें उत्सुकता से देखते रहे। बाद में मिलने आए। आप कहीं किसी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे हैं? लगता है आपको कहीं देखा है। मराठी किताब है? तीनों का उत्तर नहीं था। पर मुझे ऐसा कोई नहीं मिला जिसे हिन्दी पढ़ना ‘कूल’ या ‘स्पेशल’ नहीं लगा हो। कॉलेज के जिस भी मित्र को पता चला सबने ऐसा ही कहा भले खुद ना पढ़ें।
एक बार एक आंटी मिल गयी न्यूयॉर्क सबवेमें। उन दिनों मेरे सर पर ‘झोंटा’ था - घुंघराले लम्बे बाल। और मैं पढ़ रहा था चौखंबा सीरिज़ की भर्तृहरि। वो मेरे स्टेशन पर ही उतर गयीं। बहुत देर तक बात की। जब उन्हें भरोसा हो गया कि मैं ‘हिप्पी’ नहीं हूँ, ना ही ‘योगा स्टूडीओ’ वाला - खूब-खूब आशीर्वाद देकर गयी। केवल किताब पढ़ने से।
कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय के क्वांट फ़ाइनांसकी कक्षाएँ न्यूयॉर्क में भी होती हैं। मुझे एक बार वहाँ जाने का मौक़ा मिला। इस विषय पर बात करने कि नौकरी वग़ैरह के लिए छात्रगण क्या करें। वहाँ हुई लम्बी बात चीत का मुझे कुछ याद नहीं। याद है तो एक दूसरी पीढ़ी के भारतीय मूल का लड़का। मुझसे पूछने आया कि मेरे हाथ में किताब कौन सी है! थे कालिदास। उसने कहा - “पर संस्कृत तो ‘डेड लेंगवेज’ है। मुझे तो लगता है कि पचास लोग भी नहीं पढ़ते होंगे संस्कृत।” मैंने बताया कि मैं अनुवाद के साथ पढ़ रहा हूँ पर पचास से अधिक तो अमेरिका में ही पढ़ने वाले होंगे। यहाँ के विश्वविद्यालयों में भी विभाग हैं।
फिर भी उसने पूछा - “एक फोटो खींच लूँ? माँ को दिखाऊँगा कि कोई संस्कृत भी पढ़ता है।” कौन सी अंग्रेज़ी की किताब इतनी कूल होती कि पाठक के साथ कोई सेल्फ़ी ले?
और फिर हिंदी लिखने में अजूबा जैसा क्या है? हिन्दी नहीं लिखेंगे तो क्या लिखेंगे? और हाँ ये हिन्दी की सेवा करने और झंडा लेकर चलने जैसी कोई बात नहीं है। नेचुरल है। कभी अपने काम या पढ़ाई वाले विषयों पर लिखना हुआ तो अंग्रेज़ी ही दिमाग़ में आएगी। पर ‘लेबंटी चाह’ जैसा कुछ लिखना हुआ तो हिन्दी छोड़ कभी दूसरी भाषा दिमाग़ में आ ही नहीं सकती। स्वाभाविक है। स्वयंसिद्ध टाइप।
एक और बात… मैं लाइव म्यूज़िक की जगहों पर खूब गया हूँ जहां अधिकतर अंग्रेज़ी गाने बजते हैं। जैज़-वैज़ जैसी जगहें। एक बार अपने कॉलेज के दोस्तों के साथ “जैज़ बाई द बे” गया था। अंग्रेज़ी गाने बजते रहे। सब लोग सुनते रहे। कोई कभी किसी गाने पर गुनगुना भी देता। चेहरे पर ग़म ख़ुशी जैसा कुछ ख़ास नहीं आता। पर अंत में जब वहाँ किशोर कुमार के गाने बजे। जिसे उन्होंने अपने तरीक़े से बजाया - रीमिक्स जैसा। तब पहली बार ऐसा हुआ कि सब गुनगुनाने लगे। टेबल बजाने लगे। वैसा किसी भी अंग्रेज़ी गाने के साथ नहीं हुआ। ऐसा नहीं था कि मेरे साथ के लोग अंग्रेज़ी गाने नहीं सुनते थे या उन्हें समझ नहीं आते। पर किसी अंग्रेज़ी गाने पर टेबल बजाने लगें हो ऐसा भी नहीं हुआ। किशोर कुमार सुनते ही सब अपने रंग में आ गए। हिन्दी लिखने का वैसा ही है। रीमिक्सभी हो तो अपने लिए किसी भी दिन अंग्रेज़ी से ज़्यादा प्रभावी होगी।
इस पर अनगिनत बातें लिखी जा सकती है - सब कंवर्जहोंगी हिन्दी पर ही! अब जैसे यही एक बात है कि इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी - अंग्रेज़ी में लिखने पर घंटे भर में इतने फ़्लोमें तो नहीं ही हो पाता! :)
... गिरिजेश राव 🙏
क्या समझें, क्या समझाएँ और क्या लिखें!
वो ऐसे थे कि उनके नाम के आगे आचार्य स्वतः लग जाता है। उनको पढ़ने के साथ-साथ उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानना भी हुआ। आत्मीय। अद्भुत। अद्वितीय। विलक्षण। उनसे नियमित बात होती रही। मिलना भी हुआ। अभी मई २१ को उनको भेजा मेरा आख़िरी संदेश अनुत्तरित ही रह गया। ११ मई को उनसे आख़िरी बार बात हुई थी, १६ मई को उनका आख़िरी संदेश आया था। अस्पताल जाने के बाद। उसके बाद उत्तर नहीं आया …सोच ही रहा था कि किससे हाल पूछूँ… और ये पता चला!
इससे पहले मैंने अभी तक के अपने जीवन में ऐसे किसी आत्मीय को हमेशा के लिए ऐसे चले जाते नहीं देखा। जब से सुना… शब्द नहीं है क्या लिखूँ।
मनु-ऊर्मि लिखते गिरिजेश राव को पढ़ आश्चर्य होता था कि कोई ऐसा भी लिख सकता है! फिर बाऊ। उनकी कविताएँ। बातें हुई तो - खगोल। काल गणना। गणित। दर्शन। वेद। पुराण। लंठ। कई बातें जो मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती। मनु-ऊर्मि पढ़ते हुए इतना जीवंत लिखते कि एक बार मैंने कहा था - “पता नहीं क्यों लग रहा है कि मनु अगले अंक में उलझ जाएगा।” बहुत हंसे। बोले बिल्कुल ऐसा ही होगा, पता कैसे चल गया? उनके साथ की गयी अनेकों बातें चैट लॉग में हैं २००८-०९ से। मैंने एक बार कहा था कि मैं किसी से बात ही नहीं करता पर जिनसे करता हूँ तो चुप भी नहीं होता। दो अलग लोग देखें तो समझ नहीं पाएँगे कि यही आदमी है। इस पर भी खूब हंसे बोले डिट्टो ऐसा ही हूँ मैं भी।
ऐसी कितनी बातें होती। जो बातें किसी और से नहीं हो सकती। हंसी-मजाक की भी अनेकों बातें। उनके कॉलेज की बातें। लंठो की बातें।
लेखन के परे अद्भुत व्यक्तित्व। अद्वितीय। ऐसा भी कोई कॉम्बिनेशन होता है?
पढ़ाई और पेशे से अभियंता, आईआईटियन, और वेदपाठी। वेद, पुराण, उपनिषद, खंडहरों और मूर्तियों पर लिखते तो लिखते ही चले जाते। लोक गीतों, जीउतिया और नाग पंचमी जैसे पर्वों के अस्तित्व और उद्भव पर कैसी-कैसी अद्भुत बातें बतायी उन्होंने। कैसी अद्भुत दृष्टि। साथ में ये भी - एक बार उनके ऑफ़िस में दो जर्मन उपकरणों की ख़रीद का टेंडर आया था जिनकी तुलना करते हुए ल्यूमिनस को समझने के एक सवाल पर कैंडेला पर स्कवायर और लक्स में उलझे तो मैंने भी उनके साथ माथा-पच्ची की। अंततः बात यहाँ तक गयी कि …उससे जुड़ा सवाल मैंने जगत प्रसिद्ध एच सी वर्मा से पूछा! जिन्होंने एक किताब बतायी जिसमें इसका वर्णन था। आप जानते हैं किसी सरकारी अफ़सर को जो अपनी नौकरी में इतनी गम्भीरता से काम करता हो?!
अद्भुत विचार थे उनके पास। और जुझारू भी वैसे ही। मात्र कोरे विचार नहीं। उन पर काम भी करते। एक बार एक विज्ञान के पाठ्यक्रम को लेकर कई दिनों तक चर्चा हुई। उन्हें कुछ भेजने में डर भी लगता क्योंकि कह देते - "चलिए हम भी ऐसा करते हैं!"अच्छा लगने भर से वाह-वाह कर रुकना नहीं होता था उन्हें। किसी किताब में महाभारत के समय के नक्षत्रों की स्थिति का वर्णन मिला तो स्वयं भी गणना करने बैठ जाते। एक बार उन्होंने कहा था “चार लोगों को लेकर कुछ छोटा सा भी निःस्वार्थ करने का प्रयास कर लीजिए। बस एक बार। उसके बाद आप बैठे-बैठे कभी किसी ऐसे को गाली नहीं देंगे जो कुछ भी करने का प्रयास कर रहा हो।”
उनकी सुझायी कितनी किताबें पढ़ा होगा। ऐसे-ऐसे नाम जो मैंने सुने नहीं थे। एक बार बोले - मोतीलाल बनारसीदास चलेंगे कभी साथ वहाँ मिलेगी रुचि की किताबें। उनसे पूछा तिरुकुरल पढ़ने का मन है कौन सा अनुवाद पढ़ूँ? तो बोले - “असली पढ़िए। तमिल सीख लीजिए इतना कठिन नहीं है।” कहाँ हो पाएगा! पर हाँ वो व्यक्ति ऐसे थे जो करवा देते।
एक बार एक ग्राफ़ भेजा तो उन्होंने कहा ऐसे ही जगन्नाथ को बनाइए ना। जगन्नाथ के चित्र में तो बस रेखा चित्र ही है! ज्यामिति है - मैंने कभी देखा नहीं था उस दृष्टि से। ऐसे ही बातों-बातों में एक चर्चा चली तो बोले यही लिखिए मघा के लिए... और वो ९० लेख हो गए। समयाभाव में कहाँ से समय निकला वो मेरे लिए चमत्कार है। पटना में था तो हर कुछ दिन पर फोन कर पूछते कि पटना डायरी की अगली कड़ी कब आ रही है। -“अरे बाहर जाइए ये बैठ कर नहीं लिखाएगा।” और वो एक किताब बन गयी।
उनके आख़िरी संदेशों में से एक -
“एक के पश्चात एक समस्याएँ। सोचा था कि विस्तृत लिखूँगा आपकी पुस्तक पर किंतु माताजी के देहावसान के पश्चात सप्ताहों तक मन:स्थिति नहीं बन पाई। व्यर्थ के फेसबुकिया हीही फीफी भी व्यर्थ ही सिद्ध हुए… इतने निकट से अच्छी भली को जाते देखना बड़ा त्रासद रहा। आपकी पुस्तक लेकर घूमना प्रारम्भ किया पटना पहुँचने से आगे नहीं बढ़ पाया। माता की शुश्रूषा के लिए लखनऊ स्थानान्तरण माँगा था, मिला तो कोई अर्थ ही नहीं रहा। ज्वाईन करने पहुँचा ७ मई को और उसी दिन से भयानक त्वचा संक्रमण से जूझ रहा हूँ! कुछ बातें मन को कचोटती रहती हैं, उनमें से एक यह भी कि लेबंटी चाह पर कुछ लिख नहीं सका अब तक। चाहे जितना समय लगे, लिखना तो है ही।”
उनकी माताजी को गए अभी कुछ सप्ताह ही हुए थे। मैंने कहा था कि अभी संकोच में पुस्तक पढ़ने को प्रथमिकता नहीं देना है बहुत काम है आपके पास। तो उन्होंने जवाब दिया -
मेरी आँखें नम नहीं होती आसानी से। पर ये देख रो पड़ा। हर बार। जीवन को ऐसे नहीं रुक जाना था।
लिंक और रोचक बातें भेजते रहते और मैं हर बार आश्चर्य में पड़ता जाता कि कितने जिज्ञासु व्यक्ति हैं। कितना कुछ आता है उन्हें। कई बार सवाल के साथ भेजते, विशेष कर गणित हो तो। मुझे जो थोड़ा-बहुत आता है शायद उन्हें लगता कि मुझे उससे कई गुना ज़्यादा आता है। मैं नहीं दे पाता था उनके कई प्रश्नों के उत्तर। कभी महीने में एकाध बार फ़ोन या वो कर लेते या मैं तो हम बहुत बातें करते। कितनी योजनाएँ थी - कोणार्क जाने की, कहीं बैठ कर चर्चा करने की। मघा प्रकाशन से पहली किताब आने की। मघा पर आने वाली लेखमालाओं की - “इसके बाद लिखिए दर्शन को आधुनिक रूप में! मिल कर लिखते हैं। उपनिषद के महा वाक्यों पर।”
मघा के एक लेख के बाद उनका संदेश आया - “अब सम्पादित करना शुरू कीजिए इसे, ये मघा प्रकाशन की पहली किताब बनेगी।” मैंने वो लेख बार-बार पढ़ा कि ऐसा क्या है जो उन्हें इतना अच्छा लग गया। मैंने लिखा नहीं उन्होंने लिखवा लिया।
वो दोस्त थे, बड़े भाई थे, आचार्य थे, ऋषि थे। २००८-०९ से शायद ही मैंने कुछ ऐसा लिखा हो जिसमें उनका किसी ना किसी रूप में योगदान नहीं था। उन्होंने कह-कह कर लिखवाया। मघा के हर लेख को सम्पादित किया। “वर्तनी का अपराध अक्षम्य है आर्य” कहने वाले पता नहीं कैसे मेरे लिखे को झेल जाते और सुधार कर देते। बिना कुछ कहे। विश्वास था कि लेबंटी चाह की कोई तो समीक्षा करेगा जो भाषा की त्रुटियों को उधेड़ कर रख देगा।
पता नहीं कैसे कुछ लोगों का उनसे वैचारिक मतभेद हो गया। विशेष रूप से २०१४ के बाद। जब लोग कहते हैं तो मुझे आश्चर्य होता है। हमने कभी ऐसे किसी मुद्दे पर चर्चा ही नहीं की! मुझे हमेशा इतने सुलझे और सहज लगे कि करते तो भी मतभेद नहीं होता पर वैसे ही सदा इतना कुछ होता था बात करने को!
कितना कुछ अधूरा रह गया - मनु-ऊर्मि, बाऊ, मघा के अनगिनत लेख, मघा प्रकाशन, कोणार्क, आपका उपन्यास जिसे आपने कहा था कि आप कभी लिखेंगे जो मैनहैट्टन में चलता, जिसकी नायिका का नाम ग्रेटा होता और नायक बलिया में जन्मा।
इतनी भी क्या जल्दी थी? आप तो अपनी अनंतता लिए अनंत में विलीन हो गए… पर ऐसे अचानक!
अभी दो महीने भी नहीं हुए आपने अपने माताजी के देहावसान के बाद ...
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥
मौसम नहीं, मन चाहिए!
बात उन दिनों की है जब ...हमारे अपार्टमेंट में इतने लोग आते-जाते रहते कि मेरे एक दोस्त कहते – “बाबा, इसे अब धर्मशाला घोषित कर दो”।
रिटायरमेण्ट@45
---
सरल करें!
बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि किस बात पर ये बात कही गयी थी वो अब याद नहीं, पीठिका शब्द किस संदर्भ में आया था वो भी याद नहीं। पर ये बात अब भी याद है।
ऐसी कई बातें होती हैं जिनकी वास्तविक समझ बिना अनुभव नहीं हो पाती। ऐसी ही एक बात है परीक्षा में किसी को चोरी करते हुए देखना। जब तक आप विद्यार्थी होते हैं ऐसा लगता है कि कोई थोड़ी सी चोरी कर ही ले तो कौन सी दुनिया इधर की उधर हो जाएगी। पता नहीं क्यों इस बात पर प्रोफेसर हलकान होते हैं? या ये भी कि कोई थोड़ा सा इधर-उधर देख ही ले तो कौन सा किसी को पता चल रहा होगा। पर ये एक ऐसी चीज है जिसका पता लगाने के लिए कुछ करना ही नहीं होता। चोर की दाढ़ी में तिनका की तरह जो विद्यार्थी ताक-झाँक कर रहे होते हैं वो अक्सर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी बहुत गम्भीर विषय पर सोच रहे हों। अपने बगल वाले की उत्तर पुस्तिका में झाँकते हुए कोई दिख जाए तो तुरंत सोचने की मुद्रा में आकर छत की तरफ देखने लगता है। कुछ तो हवा में हाथ से ऐसी-ऐसी मुद्राएँ बनाने लगते हैं जैसे हायर ड़ाइमेशन की किसी वस्तु को देखने की कोशिश कर रहे हों। जिन्हें लगता है कि वो आसानी से चोरी कर लेते हैं उन्हें कहाँ पता होता है कि वो इसलिए कर लेते हैं क्योंकि जिसे पकड़ना है वो करने देता है, इसलिए नहीं कि वो स्मार्ट चोर हैं।
एक शिक्षक के लिए इसे नजरंदाज करना बहुत कठिन होता है। असली दिक्कत ये होती है कि एक ईमानदार विद्यार्थी से अधिक अंक यदि चोरी वाले का आ जाए ऐसा होते तो नहीं देखा जा सकता। जब ग्रेडिंग रिलेटिव हो तब तो ये और कठिन हो जाता है। और अगर कुछ विद्यार्थी सामूहिक रूप से कोई प्रश्न हल कर दे तब तो ईमानदार सामान्य विद्यार्थियों की बैंड ही बज जानी है।
एक बार हमारे एक क्लास में भी ऐसा ही हुआ। एक असाइनमेंट का हल कई विद्यार्थियों का एक जैसा ही निकला! अब सबको अंक मिल जाए इस बात से तो मुझे कोई दिक्कत नहीं थी पर उस समाजवाद में जिन्होंने मेहनत कर ईमानदारी से हल करने की कोशिश की थी उन्हें ही कम नम्बर मिल जाते। ग्रेडिंग करते हुए पंच परमेश्वर कहानी की तरह लगा… ग्रेड का फैसला तो बिना भेदभाव वाला और न्यायप्रिय ही होना चाहिए।
हमने एक दो विद्यार्थियों से बात की तो वो साफ मुकर गए! एक ने तो ये भी कहा कि आपने ही तो कहा था कि पढ़ाई में एक दूसरे की मदद करो। तो एक दूसरे की थोड़ी मदद कर दी है। जमाना ही ऐसा है। मुझे ऐसे लगा जैसे किसी व्यक्ति को डॉक्टर सलाह दे कि स्वास्थ्य के लिए थोड़ा वजन कम करो और वो उसी पर चढ़ बैठे*: “मेरे बारे में ऐसे कैसे बोल दिया आपने? हम तो body positivity प्रैक्टिस कर रहे थे! बड़ी मेहनत से अपने शरीर को प्यार करना सीख रहे हैं।…” वगैरह. (*बीरेंदर ने लेबंटी चाह में बताया है कि चढ़ बैठने का अर्थ ये नहीं होता है कि कहीं चढ़ के कोई बैठ जाएगा। माने मुहावरा है।)
ऐसे में जब चीजों को क्वांटिफाई कर दिया जाए तो अक्सर (लगभग) दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। यदि समस्या को गणितीय रूप दे कर कह दिया जाए – “सरल करें” तो गणित का आदमी कर ही देगा। (जिन्होंने बचपन में गणित हिंदी माध्यम से पढ़ा हो वो ‘सरल करें’ का अर्थ समझ गए होंगे। हमारे एक गणित के शिक्षक कहा करते – सरल करने को कहा गया था तुम लोग सड़-ल कर दिए हो।) हम पढ़ाते भी मशीन लर्निंग हैं तो हमने सोचा मशीन लर्निंग से ही पता लगाया जाय कि किसके असाइनमेंट में कितना प्रतिशत किसके असाइनमेंट से चोरी है।
जब ये पता लग गया तो मैंने क्लास में नम्बर देने का फ़ॉर्म्युला बता दिया। कोड दे दिया और कहा कि किसी को फ़ॉर्म्युले से आपत्ति हो तो सुधार करे। परिणाम लगभग सटीक था। उम्मीद से बेहतर। पूरी क्लास ने कहा कि ये तो शत प्रतिशत सच निकल आया! अब किसी को आपत्ति भी नहीं रही। इस तस्वीर में ४० विद्यार्थी हैं। १०० मतलब पूरा ही नकल, शून्य अर्थात् कुछ भी एक जैसा नहीं। जो लाल क्षेत्र में आए थे वो सन्नाटे का छंद हो गए। जो पीले में थे उनमें से कइयों ने बताया कि उन्होंने हल तो खुद से ही किया पर कुछ हिस्से में उन्होंने दूसरों से भी लिए। हरे वाले प्रसन्न!
वैसे अक्सर दो तरह के विद्यार्थियों पर ही पढ़ाने वालों का समय जाता है – एक जो पीछे पड़कर सीखते हैं। दूसरे वो जिनके पीछे पड़ना पड़ता है कि वो किसी तरह पास हो जाएँ। इस चार्ट के बाद भी यही हुआ।
ऐसा होना चाहिए ...जिससे हवा में उड़ने वालों को आइना दिखे! आजकल सोशल मीडिया पर जब रोज कुछ चीजें दिखती हैं तो अक्सर लगता है दुनिया कुछ तो सरल हो जाएगी जब चीजों को ऐसे हल किया जा सकेगा। जब लोगों को उनका पाखंड (हिपाक्रसी) स्पष्ट दिखने लगे। किसी के ट्वीट्स पर मॉडल लगा दो और वो बता दे कि ये आदमी ९० प्रतिशत पाखंडी है! 😊
जैसे एक तो मीडिया/बुद्धिजीवियों की दुनिया रसातल को जा रही है वाली बात। अभी पिछले दिनों ट्वीटर पर एक कविता दिखी। खूब पसंद की गयी। अर्थ कुछ ऐसा था जैसे …बचपन में इतना तो साफ पानी होता था। आने वाली पीढ़ियों को यकीन नहीं होगा कि संसार में कभी पीने को साफ पानी ऐसे मिलता था इत्यादि। वैसे कवियों के पास बिम्ब के नाम पर कुछ भी कहने का पेटेंट है तो हो सकता है कोई कह दे कविता में पानी का अर्थ पानी नहीं यूरेनियम हो। पर पानी को पानी ही माने तो आँकड़े ढूँढने पर पता चला बीते साल दुनिया में सबसे अधिक लोगों को स्वच्छ पीने लायक पानी मिला। पिछले कई वर्षों से हर वर्ष ही इस मामले में ऐसे रहे हैं – हर बीते साल से बेहतर। पानी से होने वाली बीमारियों का लगभग उन्मूलन हो चला धरती से। पर… अब कवि ही क्या जिसकी बात सीधी और सरल हो!
वैसे हर अच्छी बात की तरह डेटा अनालिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी करने लगे हैं। तीन लोगों से पूछ कर लोग डेटा अनलिसिस कर उसमें पैटर्न भी निकाल देते हैं! जैसे 'गीता में लिखा है'कह कर लोग कुछ भी अंट-शंट कह देते हैं वैसे ही आजकल डेटा अनलिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी कर देते हैं! इसमें एक समझदारी वाला काम इजराइल ने किया है कि विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर में किसी का विषय कुछ भी हो अब एक विषय सांख्यिकी का जरूर पढ़ाते हैं।
वैसे जो दिन भर प्रॉपगैंडा फैलाते हैं ये कहते हुए कि हम तो निष्पक्ष हैं उन पर तो कोई भी मॉडल लगा दिया जाय तो उनकी सच्चाई के उजाले का अलकतरा निकल जाएगा। कितनी बातें बिना देखने की कोशिश किए भी दिख जाती है – कई बार कहने वाले कहने को तो सच ही कह रहे होते हैं (महीन चोर) पर …जैसे किस घटना के लिए कैसे एक व्यक्ति विशेष स्पष्ट रूप से ज़िम्मेवार होता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना इसलिए हो जाती है क्योंकि पूरा समाज ही घटिया है। कौन सी बात में आपको कड़वी सच्चाई दिखती है और कौन सी बात ‘फनी’ लगती है! किस बात पर आश्चर्य चकित फील करना होता है किस पर ‘फकित’ (तुक बंदी नहीं किए हैं वो क्या है कि बिना इन सब शब्दों के ना तो कूल लगता है ना ही बुद्धिजीवी जैसा)। और कैसे किसी न्यूज़ पोर्टल के आलेख पर लिख दिया जाता है कि ये लेखक के निजी विचार हैं पर ये भी दिखता है कि पोर्टल को केवल एक ही प्रकार के निजी विचार वाले मिलते हैं। इनके पोर्टल की मानें तो भिन्न-भिन्न खोपड़ी में एक प्रकार की ही मति होती है। कम बुद्धि के लोग मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना का ग़लत संधि विच्छेद कर देने से भिन्न का अर्थ अभिन्न मान ही सकते हैं।
और वो लोग जो दुःख, दर्द और हताशा पर लिखते हैं – कट्टर नमाज़ी के पांच वक्त की नमाज़ से भी ज़्यादा नियमित। उनकी लाइनें क्या गजब होती हैं! जैसे – जिस वक्त में हम जी रहे हैं।… ये जो आजकल का दौर है।… एक नाउम्मीद, और हताश पीढ़ी है…। ये जो वर्तमान की सच्चाई है!... एक समाज के रूप में हमें शर्मिंदा होना चाहिए। …वगैरह, वगैरह। लगता है बुद्धिजीवी वर्ग ऐसी ही लाइनों पर जीवित है। दुनिया बदलने से ये नहीं बदलने जा रहा। मज़े की बात ये है कि ऐसे बुद्धिजीवी अक्सर जीवन में कभी स्वयं दुःख देखे ही नहीं होते। ये अक्सर बड़े घरानों के निकम्मे होते हैं जिनका कैरियर व्हिस्की पर बकर काटते हुए अंततः इसी फ़ील्ड में बनता है। खुद दुःख देखे होते तो उन्हें पता होता कि दुनिया किस प्रकार से बदल रही है। ये लोग जीवन भर दुःख को धंधे के रूप में सुनते-पढ़ते हैं और उसे उसी के लिए देखना-बेचना भी सीखते हैं। दुःख लिखने का धंधा – जिससे उनकी रोजी चलती है। अकादमिक गलियारों में गरीबी पर चर्चा करने वालों को बदलती दुनिया कैसे दिखे? जिनके धंधे का रॉ मटीरीयल प्रदूषण हो उसे ग्रीन एनर्जी से क्या मिलेगा?
(राजनीतिक बात नहीं है) यदि प्रश्न कर दिया जाए कि दुर्घटना, स्वास्थ्य इत्यादि व्यक्ति विशेष कारणों को छोड़ दें तो किस पैमाने पर तुम्हारे किसी भी जानने वाले का जीवन स्तर पिछले बीस सालों में खराब हुआ है? तो उनके पास उत्तर नहीं होगा।
हमारे यहाँ फैक्टफुलनेस और एन्लाइटन्मन्ट नाउ जैसी पुस्तकें लिखी-पढ़ी नहीं जाती। उन पुस्तकों को पढ़िए यदि आपको दुनिया के परिवर्तन का यथार्थ समझना है तो।
पिछले दिनों डार्टमाउथ के एक प्रोफेसर ने इस बात की अनालिसिस की कि कोविड से जुड़े समाचार मीडिया वाले कैसे दिखाते हैं। मशीन लर्निंग लगाकर अनालिसिस की। निष्कर्ष - सभी वास्तविकता से कई गुना अधिक बुरा दिखाते हैं। जब कोविड बढ़ा तब उस पर फोकस। जब घटा तो उन जगहों पर फोकस जहाँ बढ़ रहा हो, जहाँ लोग मर रहे हों। जब वैक्सीन नहीं थे तो विफलता थी, जब दिए जाने लगे तो उसकी महत्ता ही कम! इसी प्रकार एक डेटा साइंटिस्ट ने १९४५ से २००५ तक साठ वर्षों के न्यू यॉर्क टाइम्स के न्यूज का अनालिसिस किया। और उसी मॉडल से १९७९ से २०१० के बीच दुनिया के १३० देशों के न्यूज का। मशीन लर्निंग है तो कौन सा बैठ कर एक-कर न्यूज पढ़ना है – तो कर दिए। यहाँ भी नतीजे वही! न्यूज और सम्पादकीय की माने तो – दुनिया निरंतर रसातल को जा रही है। मीडिया ने इसे हर साल पहले से ज़्यादा बढ़ा चढ़ाकर पेश किया है। साल दर साल न्यूज के हिसाब से दुनिया पहले से अधिक बुरी होती गयी है। और मज़े की बात ये कि उनमें से किसी भी पैमाने पर (जिनके लिए मीडिया वाले और बुद्धिजीवी निरंतर लिखते हैं की वो चीजें बुरी होती जा रही है), इन वर्षों में दुनिया की हालत बुरी तो छोड़िए, उन हर एक पैमाने पर दुनिया के हर देश के व्यक्तियों के जीवन स्तर और स्वतंत्रता में अप्रत्याशित सुधार हुआ है। पर ऐसा होने के बावजूद मीडिया उसका विपरीत लिखता गया है। इस निष्कर्ष को देखने की एक दृष्टि ये भी है कि जब भुखमरी थी, जीडीपी पर कैपिटा ५०० डॉलर से भी कम था तब निराशावादी लेखन के साथ आशावादी लेखन भी था। पर निराशावादी लेखन महान था, यथार्थ था। समय बदला। दुर्भिक्ष समाप्त हो गया। जीडीपी पर कैपिटा २००० डॉलर से अधिक हो गया। पर निराशावादी लेखन काम होने की जगह कई गुना बढ़ गया। धीरे-धीरे ये हो गया कि बुद्धिजीवी आशवादी कैसे लिख सकता है! कोई लिख दे तो बुद्धिजीवी गलियों में उसे सीआईए एजेंट, जो उन गलियों की सबसे बुरी गाली होती है, कह दिया जाएगा! यथार्थ भले बदलता गया हो पर यथार्थवादी लेखन का अर्थ ही हो गया - निराशावाद। अगर परिवर्तन का यथार्थ देखें तो कई बार ऐसा लेखन वैसे ही हास्यास्पद नज़र आता है जैसे चेचक के उन्मूलन के बाद भी उसे दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते रहना!
परिवर्तन कैसे होता है ये देखना कठिन नहीं है – मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के लेंस से दृष्टि हटा कर देखें तो। जिस गाँव में एक पक्का मकान नहीं होता था वहाँ अब एक भी कच्चा नहीं बचा। लोग क्या पहनते थे और अब क्या पहनते हैं। हमने देखा तो नहीं पर सुना है जब शादी तक लोग माँगे हुए कपड़ों में करते थे। झोले और टूटे चप्पलों की जगह बैग और हाथ में मोबाइल। जिस पूरे गाँव में एक फोन नहीं होता था अब हर-घर में कई मोबाइल होते हैं। गाँव के अस्पताल में व्यवस्था नहीं है का आलेख लिखने वाले ये नहीं देखते कि पिछले दस-बीस वर्षों में जहाँ एक टूटा कमरा हुआ करता था वहाँ एक विशाल भवन और एम्बुलेंस खड़ी रहती है। और ये लगभग हर जगह की ही कहानी है। आपके गाँव में दूसरे से साइकिल माँग कर चलने वालों के पास अब मोटर साइकिल अगर आपको नहीं दिखती तब तो आपको ये कोई मशीन लर्निंग नहीं दिखा सकता। एक जमाना था जब प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर पैसे फूंके जाते थे उससे कुछ ना हो पाया और वही लोग बुढ़ापे में फोन चलाने के लिए पढ़ना लिखना सीख गए! जिस उमर के आधे लड़के अनपढ़, गाय-भैंस चराते घूमते थे अब कितने रुपए में कितना जीबी डेटा मिलता है और कौन सी फ़िल्म कहाँ देखनी है सब एक साँस में नाप देते हैं। कौन सी परीक्षा में किस कटेगरी में कितना कट -ऑफ गया है। किस देश में कोरोना कितना फैला है आपसे कम नहीं जानते हैं। आप भले आज भी वही घिसी-पिटी कहानी गढ़ते रहो कि एक सब्जी बेचने वाले ने आपसे ऐसा कहा – वैसा कहा! बुद्धिजीवी लोगों का चूँकि पेट बिना मेहनत भरने लगता है तो उन्हें लगता है कि उनका दिमाग भी आम आदमी से ज्यादा हो गया है! वो कैसे मान लेंगे कि एक गाँव-देहात का आदमी, एक ऑटो-टैक्सी चलाने वाला, सब्ज़ी बेचने वाला भी स्मार्ट हो सकता है? उसे तो दुखियारा, बेसहारा, और हताश होना चाहिए। वो कैसे सुखी हो सकता है? वो कहे भी तो हम बता रहे हैं कि वो हमारे पैमाने पर दुखी है!
(पिछले दिनों मैं गाँव गया था और) एक दिन सुबह दूध लाने गया तो देखा कि एक बच्चा फोन पर वही कार्टून/राइम देख रहा है जो दुनिया के सबसे बड़ी कम्पनियों के सीईओ के बच्चे भी देखते हैं – वही यूट्यूब। असमानता, समाजवाद, और दुःख पर भारी भरकम लिखने (रोने) वाले दुःख का धंधा करते रह जाएँगे और दुनिया उनकी परवाह किए बिना बदलती रहेगी। सब हरा-हरा नहीं है, दुनिया वैसे हो जाने के लिए बनी ही नहीं है। लेकिन पिछले कई वर्षों से हरियाली बढ़ती ही गयी है। अद्भुत रूप से। लिखते हुए लग रहा है एक डायलोग लिख दिया जाय - ‘निराशा का दौर है’ का धंधा करने वालों से बिगाड़ के डर से आँकड़े की बात नहीं करोगे?! 😊
हिंदी किताब लिखने के बाद कुछ अकादमिक हिंदी के लोगों से बात हुई तो ये भी पता चला कि विश्वविद्यालयों में हिंदी के पठन-पाठन में भी ऐसा है कि एक ही प्रकार के शिक्षकों-विद्यार्थियों का गुट है! जो एक ही विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, उन्हें ही शैक्षणिक नौकरीयाँ मिलती है। इस प्रकार एक लेंस से ही दुनिया को देखने को जो विद्वता कहा जाता है उसका क्रम चलता रहता है। वो आज भी दुनिया वैसे ही देखते हैं जैसे सौ साल पहले कुछ लोग देख गए थे। अरे भई, शोध कर रहे हो तो “फलानेवाद के परिपेक्ष्य” की जगह कभी वैसे भी दुनिया देख लिया करो जैसी वास्तव में है!
पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हो रही है। इससे लम्बा लोग पढ़ेंगे नहीं। आप ये पढ़िए, ज़ोरदार बात है, याद रहेगी। कई किताबों में उद्धृत हो चुकी है:
A few years ago, The New York Times did a story on the working conditions of Foxconn, the massive Taiwanese electronics manufacturer. The conditions are often atrocious. Readers were rightfully upset. But a fascinating response to the story came from the nephew of a Chinese worker, who wrote in the comments section:
My aunt worked several years in what Americans call “sweat shops”. It was hard work. Long hours, small wage, poor working conditions. Do you know what my aunt did before she worked in one of these factories? She was a prostitute.
जो रोना रोते हैं कि दुनिया बड़ी खराब होती जा रही है। उन्हें पन्ने काले करने दीजिए - उनका धंधा है। आप अपना काम मन से कीजिए। सरल कर के दुनिया को देखिए। खुश रहिए।
नया वर्ष मंगलमय हो।
~Abhishek Ojha~
उत्तम आहार - पशु आहार
पिछले दिनों एक मित्र मिलने आये। शनिवार का दिन। आराम से पसर के बैठे। खाते-पीते बैकग्राउंड वाले हैं, तो जहाँ बैठें, अच्छा रेडियस घेर लेते हैं। दो-चार दिन पहले हमारी तबियत थोड़ी डाउन थी, तो उस सिलसिले में बात होने लगी। आपकी तबियत गड़बड़ हो तो सामने वाले का कर्तव्य हो जाता है कि कुछ ज्ञान ठेले।
दो-चार बातों के बाद बोले - “ओझा, तुम वीगन बन जाओ।”
हमने कहा जो खाते हैं वो ठीक है, अब क्या कुछ नया खाएंगे और नहीं खाएंगे।
फिर बोले - “अच्छा खाते क्या हो तुम?”
हमने कहा - “नार्मल खाते हैं, दाल-चावल, रोटी-सब्जी वगैरह।“
ऐसे मुंह बनाये जैसे बोल दिया हो कि कुत्ता-बिल्ली खाते हैं !
“केवल कार्ब ! प्रोटीन कहाँ से मिलता है तुम्हे?”
“दाल-वाल से मिल जाता होगा ...थोड़ा उन्नीस-बीस। नहीं तो दूध-दही, अब नाप कर तो खाते नहीं हैं।”
“यही गलती कर कर रहेहैं लोग। क्यों नाप कर नहीं खाते हो? डॉक्टर बोलेगा तब नापोगे? योर फ़ूड शुड बी योर मेडिसिन।”
हमें लगा बिना बात ही ये आदमी गुस्सा हुए जा रहा। ये भी कोई नापने तौलने की चीज है।शांत किया जाय । तो पूछ लिया -
“अच्छा छोडो, कुछ खाओगे? कुछ मीठा? मिठाई पड़ी है फ्रिज में। लड्डू खाओगे?”
“मीठा? शुगर ! बता रहा हूँ मैं ...छोड़ दो।” ऐसा मुँह बनाया आदमी …कहाँ शांत होने की बात थी, कहाँ आग में एक चम्मच घी पड़ गया!
हमें कुछ दिन पहले की देखी एक रील याद आई। रील का जमाना हो गया है तो इधर-उधर से फार्वड होकर आ ही जाता है। वही याद करते हुए हम मन में बोले - “हम क्यों लड्डू छोड़ें बे? तुम छोड़ दो, हम तुम्हारा भी खा लेंगे।”
“संतरा खाओगे?”
“संतरा शुद्ध शुगर होता है!”
“मतलब फल-वल भी नहीं? सुनते हैं कि विटामिन सी वगैरह भी होता है। फल-सब्जी का बड़ाई तो बचपन से सुनते आये हैं।“
“अरे बचपन से सब गलत सुनते आये हो। शुगर माने जहर ! जितना विटामिन सी उससे ज्यादा शुगर होता है उसमें।”
“अच्छा चलो ठीक बात है। चाय पीओगे?
“बनाओ बिना शुगर के। आलमंड या ओट मिल्क रखे हो?”
“अब दूकान थोड़े खोले हैं। एक ही दूध है। हम तो स्किम ना लाये आजतक।”
“स्किम क्यों पीओगे? वो तो और बेकार है। हम बस प्लांट बेस्ड पीते हैं।”
“हम तो वैसे नार्मल दूध ही पीते हैं लेकिन स्किम भी बेकार है? वो तो बहुत चला हुआ है?”
“स्किम से अच्छा नार्मल ही ठीक है। देखो गाय दूध देती हैं तो वो तो चलो प्रकृति ने बढ़िया पौष्टिक बना कर दिया होगा। लेकिन अब स्किम के नाम पर उसमें से फैट निकालने के साथ क्या-क्या निकल गया ये कैसे पता चलेगा? दूध क्या से क्या बन गया, ये तुम्हे पता है?”
“ये तो ठीक बात है। तो दूध में क्या दिक्कत है? वो तो प्रकृति…”
“अरे डेयरी में बहुत फैट होता है। हार्ट के लिए ठीक नहीं है। और स्किम से अच्छा तो पानी मिला के पीयो।”
“पानी मिला के पियें? मतलब ग्वाले जो दूध में पानी मिला के देते थे, उसके पीछे वैज्ञानिक कारण था, नहीं? उनको स्वास्थ्य विभाग से सर्टिफाइड करवा देना चाहिये। और पानी मिला के पीना का क्या मतलब हुआ थोड़ा कम पीने को कह देते।”
“तुम मजाक कर रहे हो?”
“अरे नहीं सीख रहे हैं तुमसे।पर एक दम ही क्रांतिकारी सुझाव हैं तुम्हारे।”
“अब तुम्हें खिलाएं क्या! हाई-फाई हम कुछ रखते नहीं हैं। दूध में पानी जरूर मिला सकते हैं। लो ये वाला चाय पी लो तुम। रोज-इंफ्यूजड ब्लैक टी।“
फैंसी टिन का डब्बा देख कर खुश हो गए कि कुछ तो ढंग का है इसके पास। “तुम इतना फैंसी कब से हो गए?”
“अरे नहीं, वो हमारे लन्दन ऑफिस में कुछ फ्रेंच लड़के हैं। लेबंटी चाह का अमेज़न पेज ट्रांसलेट कर के किताब के बारे मे पढ़े, उनको लगा हम चाय के बड़े शौक़ीन होंगे। तो ये दे गए। हम एक बार कोशिश किये, फिर दुबारा हिम्मत नहीं हुई पीने की। दूध चीनी मिला कर पीने लायक हो जाता है। खैर …लगता है खाने पर बहुत ध्यान दे रहे हो तुम आजकल?” हमें लगा दूध-चीनी की बात पर ये न कह दें कि ऐसे चाय की तौहीन है ये, इसलिए बात बदल दी।
“अरे जरूरी है ! हम इधर-उधर बहुत मेहनत करने के बाद समझे कि खाना ही दवाई है। कायदे का खाओ, सब कुछ ठीक रहेगा।”
“अच्छा। कुछ हमें भी ज्ञान दो।”
“तुम्हे मजाक लग रहा है तो क्या ज्ञान दें!”
सही बात है बिना श्रद्धा के गुरु ज्ञान नहीं दे सकता। हमने कहा, नहीं-नहीं बताओ। बहुत सीरियस हैं हम।
“ब्रेकफास्ट क्या करते हो?” पहले उन्होंने ग्राउंड वर्क करना चालू किया।
“घर पर किये तो ब्रेड, इडली, डोसा, उपमा, पोहा यही सब बाहर …जो मिल जाए, जो मन करे और जितना टाइम हो।”
“खाली कार्ब है तुम्हारे डाइट में। नॉट गुड! सबसे पहले तो फर्मेन्टेड फूड से शुरू करो। पेट में अच्छा बैक्टीरिआ रहना जरूरी है। अब देखो, पहले इंसान नदी का पानी पीता था तो उससे बहुत लाभ वाले बैक्टीरिआ भी पेट में जाते थे, पर अब तो वो है नहीं। तुम्हारे पानी में अच्छा-बुरा कुछ नहीं है! एकदम शुद्ध पानी है।”
“इडली-डोसा फर्मेन्टेड में नहीं आएगा? और पीने के लिए गड़हा के पानी का जुगाड़ किया जाय?”
“इडली-डोसा नहीं, किमची खाओ।”
“कौंची? तुम मेरी किताब पढ़ लिए क्या? कौंची खाना नही होता है।”
“तुम किमची गूगल करो।”
“अच्छा -अच्छा। चलो कर लेंगे।”
“उसके बाद चैट जीपीटी प्लस सब्स्क्राइब करो।”
“उसको कैसे खाएंगे?”
“अरे यार, पहले पूरी बात सुनो, उसको खाना नहीं है। जो भी खाना कभी खरीदो या खाओ, फट से उसका फोटो डाल दो, न्यूट्रिशन और इंग्रेडिएंट्स बता देगा। पैकेज्ड है तो उसके पीछे जो इंग्रेडिएंट्स और न्यूट्रिशन फैक्ट्स होता है उसकी फोटो डाल दो।”
“अच्छा और?” भरोसा नहीं हुआ, आदमी इतना कुछ कर सकता है भोजन के लिए।
“उसके बाद ये वाला मशीन ले लो।”
अपने फोन में फोटो दिखाए और बोले - “बस एक पिंच होगा, तुम्हारा ब्लड वर्क करके बता देगा। खाने के बाद ग्लूकोज वगैरह का लेवल कितना बढ़ा। धीरे-धीरे तुमको खुद आईडिया लग जाएगा क्या खाना है क्या नहीं।”
“भाई हमको सुई लेने से बहुत डर लगता है। खाना भी ढंग का मत खाओ और खाने के बाद सुई! क्या बोल रहे हो।”
“इंजेक्शन नहीं है बस पिंच भर ….और प्रोटीन बढ़ाओ।”
“कैसे बढ़ाएँ?”
अपने बैग में से एक पारदर्शी बोतल निकाले, जिसमें एक स्टील का स्प्रिंगनुमा गोला पड़ा हुआ था। उसमें सतुआ जैसा पावडर डाले और घोर के पी गए।
“ये तुम सतुआ लेकर चलते हो?”
“सतुआ नहीं, प्रोटीन पावडर है। अनाज कौन-कौन सा खाते हो?”
“अनाज मतलब? अनाजकाकुछ बनाकर खाते हैं, अनाज थोड़े चबाएंगे।बताये तो दाल-चावल, गेंहू-चना वगैरह।”
“बंद कर दो - किनुआ खाओ।”
“कौंची, किनुआ-बेचुआ जैसे शब्द कहाँ से सीखे तुम? बिहार गए थे क्या?”
“अबे, किनुआ अनाज होता है। चिआ, ओट्स, फ्लेक्स खाओ। चावल कौन सा खाते हो?""कौन सा मतलब?""अरे मतलब व्हाइट, ब्राउन, ब्लैक?"हमें गोलमाल सिनेमा के रामप्रसाद दशरथप्रसाद शर्मा की याद आ गयी ...सोचा पूछ लूँ - "चावल काला भी होता है सर! मैं तो अभी तक श्वेतवर्णी चावल ही जानता था” पर रहने दिया।
“फ्लेक्स तीसी होता है न? खाएंगे कैसे उसको? लड्डू बना के?”
“लड्डू बना के खाओगे उससे अच्छा मत ही खाओ। उसका पावडर मिल जाएगा तेल निकालने के बाद वाला - फ्लैक्ससीड मील।”
“तीसी की खली? या भूसी? वो तो पशु आहार होता है?”
“तुम हलवा-पूड़ी और लड्डू खाओ बस। तुम जिसे पशु आहार कह रहे हो, वही उत्तम आहार है।”
“अबे मजाक नहीं सीरियस हूँ मैं। तीसी की खली हम खुद खिलाये हैं बचपन में गाय को। और ये लड्डू से बहुत चिढ़े हो तुम। लगता है कभी बहुत पसंद था तुम्हे। ऐसा भी क्या छोड़ना मज़बूरी है। बेवफा के प्यार टाइप फील कर रहे हो लड्डू बोलते हुए। कभी-कभार खा लिया करो। गुलजार टाइप कोई कवि हो तो कविता लिख देगा तुम्हारे लड्डू से प्यार-चिढ पर। अच्छा चलो, बताओ और।”
“ज्यूकिनी, और एवोकाडो। केल और सेलेरी।” मेरी कही बात अनसुनी कहते हुए बोले।
“एक बात बताओ, तुम्हारे बचपन में घर के पिछवाड़े ज्यूकिनी-एवोकाडो उगता था? भिंडी-लौकी-नेनुआ नहीं? केल और सेलेरी? पालक बोल देते तो ठीक रहता … केल नाली में उगने वाले पौधों का पत्ता लगता है!”
“तुम वही रुके रहो भिंडी-लौकी-नेनुआ में। और हाँ, डेयरी की जगह प्लांट बेस्ड दूध पर स्विच कर लो। हेम्प जानते हो?”
“भूसा?”
“अबे नहीं! एकदम ही गँवार हो ! हेम्प भी गूगल करो। चैट जीपीटी प्रो तो है नहीं तुम्हारे पास। और जो खाना है आठ घंटे में खा लो ...बाकी सोलह घंटे कुछ नहीं।”
“वो क्यों? सोलह घंटे वाली माता का कोई व्रत आया है क्या मार्केट में?”
“अरे, देह बना ही नहीं है तीन बार खाने के लिए ! साइंस की बात है।”
“अच्छा, ये सोलह घंटे रोज उपवास करने से अच्छा महीने में जो पूरा चौबीस घंटे कर ले? एकादशी-शिवरात्रि टाइप्स ताकि थोड़ा पुण्य भी क्रेडिट हो जाए?”
“नहीं, वैसे नहीं होता है। तुम हमारे पिताजी जैसे साउंड कर रहे हो। इंडियन फ़ूड खा रहे हो, जानते हो न, लाइफ एक्सपेक्टेंसी बहुत है नहीं इंडिया में।”
“यार, खाने में लाइफ एक्सपेक्टेंसी सोचें? और जो तुम कह रहे हो उसके अमर होना का डाटा है क्या? जहाँ तक हमें पता है नदी के पानी पीने वाले दिनों में लाइफ एक्सपेक्टेंसी कुछ अधिक न थी.”
“बात वो नहीं है। तुम रहोऐसे ही - कीटो जानते हो? “
“कीटो?”
“तुम रहने ही दो।”
हमारी शक्ल देख उनको लग गया, कोई फायदा नहीं है। फिर भी बोले - “तुम मछली भी नहीं खाते हो?”
“अभी तो बोल रहे थे वीगन बन जाओ?”
“नहीं वो दूसरा रूट है। सोच रहे थे कि तुम्हे ओमेगा भी नहीं मिल रहा है।” हमें लगा गजब है! ये रूट कहाँ ले जाते हैं? क्यों बने हैं? कहाँ जाना है?
“छोडो ओमेगा और रोलेक्स का चक्कर ! चलो तुम्हारे लिए ओलिव ऑयल में पूड़ी छानते हैं। घी सुन के तो बहिष्कार ही कर दोगे।” ज्ञान के प्रवाह को विराम देना ही ठीक लगा।
“चलो अब तुम्हारे नाम पर आज व्रत तोड़ देते हैं। ओलिव ऑयल है तो खा लेते हैं।” खाये तो एक दर्जन चाप गए। - “बड़ा बढ़िया बना है यार।”
हमने कहा -”बढिया नहीं बना है। भूसा खा के और पावडर पी के तुम्हारे टेस्ट-बड़ बिलबिला रहे थे कि कुछ ढंग का मिल जाए।”
“बालाजी मंदिर का लड्डू है प्रसाद समझ के खा लो।” वो भी दो उदरस्थ कर लिए।
बोले एक महीने की हमारी मेहनत तुम आजखराब कर दिए।
खैर… एक सौ बीस किलो का अद्द्मी पैंसठ किलो के आदमी को ज्ञान दे गया - गड़हा का पानी पीओ, पशु आहार खाओ, दूध में पानी मिला कर पीयो। लड्डू-पेंडा-जलेबी-फल मत छुओ। 🙂
पिछले दिनों एक कृष्ण भगवान के मंदिर गए थे वहाँ भी वीगन कैफेटैरिया! ऊपर फोटो लगी थी दही-मक्खन खाते गोपाल की। मामला कुछ समझ नहीं आया। फिर लगा जैसे कुछ सालों पहले ट्रेंड था … पेट भरने लगता तो लोगों को शौक के कीड़े काटते थे - एसएलआर कैमरा, और ट्रेवल। वैसे ही शायद फैशन के दौर में ये नया आया है !