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Channel: ओझा उवाच
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ना(समझ) - II

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खलल दिमाग काऔर (ना)समझ - 1से आगे -


सबसे ज्यादा प्रेम

लेकिन'सबसे ज्यादा प्रेम'तो किसी एक से ही हो सकता है न?
नहीं... प्रेम अनंतता है और अनंत कई होते हैं।
सच में?
हाँ ! न सिर्फ कई अनंत होते हैं पर कई तरह के भीहोते हैं।
ओह !

मुझे नहीं समझ प्रेम  की तुलना कैसे करते हैं।
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सफल रिश्ता

एक समझदार व्यक्ति ने कहा -
आजीवन झेला
घुटते रहे
पर एक 'सफल'रिश्ता निभाया.

मुझे नहीं समझ आजीवन घुटन सफलकैसे कहा जा सकता है !
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राधा-कृष्ण

कृष्ण की कितनी पटरानियों के नाम जानते हो?
बच्चे ने तपाक से उत्तर दिया - एक तो राधा !
मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा - नहीं !
ऐसे कैसे?

मुझे नहीं समझ - बस ऐसा ही है !
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ऑनलाइन

सोचते रहते हैं वो -
कितने बजे पोस्ट करने पर
किस एंगल से फोटो लेने पर
कितने दिनों बाद पुरानी फोटो पर कॉमेंट करने पर
किसे टैग करने पर
कितने लाइक - कितने कमेन्ट.

बना रखी है जिंदगी
हसीन ऑनलाइन - फटेहाल ऑफलाइन

मुझे नहीं समझ जिंदगी जीना ज्यादा जरूरी है या दिखाना  !
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सैलरी

एक ने कहा -
नहीं यार, बहुत कम है।
अब उनकी बात न करो जो भर पेट खाना भी नहीं खाते,
आज के जमाने में पचास हजार में मुश्किल है !

दूसरे ने कहा  -
महीने का पचास हजार !?
बहुत कम लोगों को मिल पाता होगा। नहीं?

ऐसे वार्तालाप के बाद -

मुझे नहीं समझ किसी से उसकी पगार* पूछने की जरूरत ही क्या है !

*इंक्लुडिंग-उपरवार :)
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ज्ञान

अपना सारा अनुभव निचोड़ एक ने कहा -
प्रेम और 'रुख लखि आयसु अनुसरेहू'है - दांपत्य जीवन !

दूसरे ने कहा  -
धैर्य की परीक्षा !
सिर्फ झेलना और सहना है - दांपत्य जीवन।

मुझे नहीं समझ व्यक्तिगत अनुभवों को लोग शाश्वत ज्ञान कैसे मान लेते हैं  !
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बहुमूल्य-अनमोल

दिखाओ जरा हमें भी कैसी होती है इतनी महंगी कलम।
उत्सुक संतोषी जीव ने अपने सरकंडे की कलम- मिट्टी के दवात को याद करते हुए कहा -
ई सोना चानी ना नु लिखी? इहों त क-ख-वे-ग-घ-S लिखी?'*

सात समंदर पार  -
सरकंडे की कलम देख
'वॉव ! क्लासिक ! कैसे लिखते हैं इससे?'
मैंने उनके आँखों में उत्सुक-इर्श्योल्लास देखा
जो खरीद सकते हैं कोई भी कलम !

मुझे नहीं पता किसी चीज की कीमत कैसे निर्धारित करते हैं !

*ये सोना चाँदी तो  नहीं लिखेगी न? ये भी तो क-ख-ग-घ ही लिखेगी।









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प्रेम ज्ञानी

असाधारण प्रेमी -
गढ़ते रहते हैं प्यार की परिभाषा
देते हैं प्रेम पर सुंदर व्याख्यान
ग़ालिब-फैज कंठस्थ !
उन्हें पता है क्या होता है प्रेम
कैसे करते हैं रोमांस
क्या देना होता है गिफ्ट
कैसा होता हैं - रोमांटिक माहौल ।

पर वेनिस के माहौल में बैठे भी अक्सर एक दूसरे से सीधे मुंह बात नही कर पाते।

साधारण प्रेमी -
अज्ञानी
उन्हें नहीं पता प्रेम की परिभाषा
ना याद कोई प्रेम की तारीख
प्यार-रोमांस शब्द से भी अंजान।
नहीं कहते कभी - आई लव यु.

पर उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी परिभाषा है प्रेम की - टोल्स्टोय के तीन सन्यासियों की तरह।

मुझे नहीं पता प्रेम-ज्ञानी कैसे होते हैं !
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वक़्त की  गति

वक़्त का 'पता ही नहीं चलता'
और 'बीत ही नहीं रहा'
के बीच जूझते लोगों को देख -

मुझे नहीं समझ वक़्त को किस गति से चलना चाहिए।
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संस्कार

उन्होने कहा -
हमारे तो संस्कार ही ऐसे रहे कि... पूरी आजादी।
दारू तो घर वालों के साथ भी, गाली-गलौज से भी कभी परहेज नहीं रहा ।

दूसरे ने कहा - हमारी तो आज भी हिम्मत नहीं कि...

मुझे नहीं समझ संस्कार के पहले 'कु'या 'सु'कब लगाते हैं।
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मूर्ख

आज तक
किसी मूर्ख को अपनी मूर्खता महसूस होते नहीं देखा।
शायद मैं भी किसी को वैसे ही मूर्ख लगता होऊंगा?

मुझे नहीं समझ फिर कैसे किसी को मूर्ख कह दूँ।
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उदाहरण 

उन्होने कहा -
तुम इसकी तरह नहीं,
उसकी तरह नहीं।
शर्मा जी के बेटे की तरह नहीं !*

मैंने सोचा - नए आविष्कारों और विचारकों के उदाहरण पहले से कैसे हो सकते हैं !

मुझे नहीं समझ लोग किसी में किसी और को क्यों देखना चाहते हैं !

*शर्मा जी का लौंडा
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समझ

चंद अनुभव और
हम समझ लेते हैं - "ऐसा ही होता है"
उस कुत्ते की तरह -
गाड़ी की छाँव में जिसे लगा वही गाड़ी चला रहा है।

जब हम नहीं जानते थे कि गुरुत्वाकर्षण कारण है
तब भी चीजें उसी तरीके से गिरती थी !
हम भूल जाते हैं
कि चीजों के गिरने ने हमारी समझ को जन्म दिया.
हमारी समझ उनके गिरने का कारण नहीं !

समझ ध्वस्त होती रहेगी - नए आइंस्टीनियन-ऋषि आते रहेंगे.

मुझे नहीं समझ अपनी समझ से दुनिया न चले तो खीज क्यों होती है !
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पुनश्च:

ब्लॉगिंग में और अन्यत्र भी डीस्कलेमर की बड़ी महिमा है इसलिए कहे दे रहा हूँ - "ना-तजुरबाकारी से वाइज़ की ये बाते हैं, उस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है !"

और "वादे वादे जायते तत्त्वबोध:" - रंभा-शुक संवाद 

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~Abhishek Ojha~


हनीमून के भूगोल का सिलेबस (पटना २०)

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‘का भईया, किससे बतिया रहे थे? लग रहा है कहीं जाने का प्लान बन रहा है?’ मेरे फ़ोन रखते ही बीरेंदर ने पूछा। वो बात और है कि यही बात किसी ने बीरेंदर से पूछा होता तो उसका जवाब होता - ‘जब सब सुनिए लिए हैं त फिर काहे ला पूछ रहे हैं?’
'हाँ कुछ दोस्तों के साथ सुंदरबन जाने का प्लान बन तो रहा था पर कुछ फाइनल नहीं हो पा रहा. एक ट्रेवल एजेंट से बात कर रहा था. वो कुछ ज्यादा ही महंगा बता रहा है. बोला सीजन नहीं है और कम आदमी हुए तो भी दस आदमी का पे करना पड़ेगा'मैंने कहा।
‘ई गजब हिसाब त पहिला बार सुन रहे हैं! हमको आइडिआ त नहीं है पर साथे का पढ़ा एक ठो लरका ट्रेभेल एजेंसी खोला है. कहिये त बात करें?.’ बैरीकूल के जान पहचान और जुगाड़ पहले भी काम आ चुके थे, तो मना करने का कोई कारण था नहीं.

ट्रेवेल एजेंसी एक पुराने ऑफिस बिल्डिंग के बेसमेंट में थी. जहां से हम अंदर गए वहाँ ढेर सारी बाइकें बेतरतीब तरीके से पार्क की गयी थी। बिल्डिंग को थामे खम्भे पर पान के पीक की परतें और पास जमा किया गया कचरा। बैरीकूल को लगा कि मुझे थोड़ा अजीब लग रहा होगा कि ये कैसी जगह पर 'ट्रेभेल एजेंसी'है ! उसने कहा – ‘थोड़ा जादे गंदगी है, का कीजिएगा कुकुर ही नहीं यहाँ आदमी भी खंभा देख के उसी का इस्तेमाल करते हैं। आछे भैया, कभी आपके दिमाग में आया है कि ये खंभा भी कभी तो एक दम फरेस... चूना-पालिस मारके एकदम चकाचक रहा होगा। अइसा कौन आदमी होगा जो पहली बार मुंह उठा के थूका होगा? माने अभी तो गंदा है तो लग रहा है कि जगहे है थूकने का. लेकिन जब चमक रहा होगा त एक दम सर्र से कोई थूक के लाल कर दिया होगा... माने उसको मजा आया होगा का? चमचमाती दीवार देख थूकने वाला जीव मचल जाता होगा थूकने के लिए कि उसको बुरा लगता होगा थूक कर?‘

'यार तुम भी क्या सोचने को कह रहे हो? मुझे कैसे पता होगा'मैंने हँसते हुए कहा।

एक छोटे से चाय की दूकान के बगल से सीढ़ियां नीचे गयी थी. चाय की दुकान के नाम पर एक कोयले का चूल्हा, एक लकड़ी की आलमारी जिसमें प्लास्टिक के तीनं-चार डब्बे रखे थे। चूल्हे को हवा देने के लिए एक टेबल फैन। एक प्लास्टिक की बड़ी बाल्टी जो शायद ट्रक के मोबिल का डब्बा था जिसकी छपाई उतर गयी थी। गिलास धोने से आस पास का फर्श गीला हो गया था। चाय के कप और कुल्हड़ फेंकने के लिए भी एक डब्बा रखा था लेकिन कप-कुल्हड़ उस डब्बे से ज्यादा बाहर फर्श पर बिखरे थे। हमें उसी रास्ते जाना था. बैरी कूल ने बताया था कि – “चाय की पसंद अपनी-अपनी होती है। कोई जादे शक्कर वाला चासनी जैसा पसंद करता है, त कोई जादे दुध वाला रबड़ी जैसा... आ जैसे-जैसे ‘बड़े आदमी'बनते जाते हैं – ‘ब्लैक टी'की तरफ बढते जाते हैं. चीनी और दूध दोनों की मात्रा कम करते जाते हैं. ज्यादा बड़े लोग बिना शक्कर बस ब्लैक ही ‘परेफर’ करते हैं. वैसे ही कप का भी है... कोई शीशा वाला गिलास, कोई कुल्हड़.  आ प्लास्टिक वाला त माने नरक है। आजकल वैसे 'हाई क्लास' फैसन में फिर कुल्हड़ आ रहा है. 'हाई क्लास' माने  'आई लभ कुल्हड वाली चाय'वाला क्लास। जैसे आदमी साल में एक बार चार जामुन- एक करेला खाके  सोचता है अब डायबिटीज नहीं होगा, बहुते फायदा करता है. वैसे ही साल में एक दो बार कार से उतर कुल्हड़ में पी के पर्यावरण से लेकर सेहत सब…।'

ट्रेवेल एजेंसी के अंदर शीशे का एक केबिन था जैसे पुराने पीसीओ होते थे. दीवारों पर कोनों से उखड़ते, टेप से फिर चिपका दिये गए, धुल की एक हलकी परत ओढ़े, स्विट्ज़रलैंड, एफ़िल टावर, सिडनी और स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी जैसे पोस्टर लगे थे. आईएटीए का एक सेर्टिफिकेशन, हज की कुछ तस्वीरें, एक पीला हो चूका सफ़ेद कम्प्यूटर, एक बड़ा सा चाइनीज मोबाइल, एक रजिस्टर जिन पर अनगिनत बार घिस घिस कर कलम चलाने का प्रयास किया गया था, जिसके उपर एक 'लिखी-फेंको'वाली कलम रखी थी और पानी की एक बोतल।

बीरेंदर ने अपने चिर परिचित अंदाज में कहा - ‘का हो चिंटूपुत्र-मांझा, कटाई कैसी चल रही है आजकल? बकरे आ रहे हैं कि नहीं? सुने रोजे बक़रईद मन रहा है?’
‘आओ आओ बीरेंदर दीखबे नहीं करते हो आजकल।’ ट्रैवल एजेंट ने सर उठाते हुए कहा।
‘का निहार रहे थे बे एतना ध्यान से कम्प्यूटर में? हमको त डाउट हो गया तुम ट्रेभेल एजेंसी खोले हो कि साइबर कैफे? आ सुने हैं आजकल भीजा-ऊजा भी लगवाने लगे हो? एक ठो हमरा भी लगवा दो कि खाली फोटवे देखते रहेंगे हम?’
‘तुमको भिजा थोरे लगेगा बीरेंदर, तुम्हरा तो ओबामा किहाँ से सीधे लेटेरे आएगा।‘
‘...बैठा जाय, खारा काहें हैं? चाय पीयेंगे? की ठंढा मांगा दें?’ ट्रेवेल एजेंट ने मेरी तरफ देखते हुए कहा। मैं चुपचाप चीजों को घूरते हुए ऐसे खड़ा था जैसे एडमिशन के लिए किसी बच्चे को स्कूल लाया गया हो.
‘काम मंदे चल रहा है बीरेंदर. का बताएं’
‘मंदा चल रहा है आ हीरो हौंडा उरा रहे हो?… हमेशा रोइतहि रहेगा. ई बता सुंदरबन का का हिसाब चल रहा है चार से पाँच आदमी के जाना है’

‘अरे बैइठिये ना पहिले। बात करे परतौ, हमलोग उधर भेजते नहीं है जादे। कउन जा रहा है?’ पटना की अपनी एक अलग ही भाषा है। हिन्दी-भोजपुरी-मगही-मैथिली कई भाषाओं का सम्मिश्रण। बोलते-बोलते अक्सर लोग एक से दूसरे पर ‘स्विच’ भी कर जाते हैं।
‘भैया को जाना है’  बीरेंदर ने मेरी तरफ इशारा किया. ‘आ बात कौंची करे परतौ रे? हमको तू पैंतरा सिखाएगा? माने तू अपना मलाई खायेगा और जिससे बात करेगा उ बचलका घी खायेगा? काम मंदा चल रहा है तो हमी को लूट के राजा हो जाएगा, नहीं?’
‘बीरेंदर यार, तुम्हें कहना पड़ेगा? उधर का आइडिया ही नहीं है तो का करें... एक तो तुम्हें सब सच बता रहे हैं’
‘अच्छा करो बात’

ट्रेवेल एजेंट अपना मोबाइल उठा कर बात करने चला गया।

‘इसके लिए भी हमको लगता है कि मिस्सडे काल मारेगा। एक नंबर के लीचर है। ...जानते हैं भैया, मांझवा का असली नाम सतप्रकास आ इसके पिताजी का नाम चिंटू. आप कभी सुने हैं कि पिताजी के नाम चिंटू आ बेटा के नाम सतप्रकास ? मतलब अइसा लगता है की उल्टा रखा गया नाम. बचपन में कोई पूछता होगा कि बेटा  तुम्हारा नाम क्या है तो बोलता होगा - सत्य प्रकाश। और तुम्हारे पिताजी का - श्री चिंटू ! दू चार ठो और श्री भी लगा दे तो चिंटू कभी भारी हो सकता है? पूछने वाला कन्फरम करने लगे - चिंटू बेटा फिर से बताओ? तो मंझवा बोलता होगा नहीं नहीं मेरा नाम चिंटू नहीं वो तो पिताजी...’

‘पूरा नाम सत्य प्रकाश मांझी?’ मैंने हँसते हुए पूछा।

‘आरे नहीं। मांझा तो इसका नाम स्कूल में धरा गया। वो ऐसे कि ई काटने में उस्ताद है. माने एकदम वल्ड चैम्पियन मांझा. धड़ से काट देता है एक दम. आ आज भी देखिये एतना न महीन कटाई की गाहक के बुझाएगा ही नहीं’ बात स्कूल के दिनों की चली और तब तक मंझवा वापस आए।

‘लिया जाय’ पोटेंशियल कस्टमर के लिए चाय मंगाई गयी थी. और फोन पर बात कर मंझवा ने बताया कि ‘बरी महंगा बता रहा है. ओतना पैसा देके काहे जाएंगे आप. कुछो नहीं है सुंदड़बन में’

ये पहला मौका नहीं था जब पटना में किसी ने मेरे खर्च की चिंता की थी। अक्सर जब रास्ता पूछता कि कितनी दूर होगा तो एक से पूछो तो चार उत्सुक लोग बताने आगे बढ़ आते। जैसे मिठाई बंट रही हो। जब पूछता कि रिक्शा या ऑटो मिल जाएगा? तो अक्सर जवाब होता  - ‘अरे काहे रेक्सा करेंगे, टहलते टहलते निकल जाइए एगारह नंबर का गारी से। हिहें पर तो है.’  तीन किलोमीटर तक के तो पैसे बचवा ही देते लोग। ये उत्सुकता और बेवजह की शुभचिंतकी हमेशा सुखद लगती।

सतप्रकास ने कहा – ‘भैया, एतना पैसा में त हम आपको ग्रुप टूर पर दुबई भेज देंगे, आ दुबई का फोटो जब आप फेसबुक पर डालेंगे त सोचिये केतना लाइक आएगा। आपका फ्रेंडलिस्ट में गर्दा उर जाएगा. एक बार आइडिया दीजिये अपना दोस्त सब के भी। सुंदड़बन में कुछो नहीं है‘
‘जाना तो सुंदरबन ही है नहीं तो कोई जरूरी भी नहीं है कि कहीं जाना ही है। खैर कोई बात नहीं... ’ मैंने कहा।
‘माने भैया को सुंदरबन जाना है त तू दुबई भेजने लगा? तुम्हरा काटने का आदत नहिये गया... ई साला चहवो तीता बना दिया है’ बीरेंदर ने मुंह बनाते हुए चाय का ग्लास रख दिया।
‘देखिये भइया हमलोग के भी त मार्केट के हिसाब से चलना पड़ता है। लोग जो पसंद करेंगे हमलोग वही भेजेंगे। मेरे पास पहली बार कोई आया है सुंदड़बन के लिए। डिमांडे नहीं है’
‘बात सही है। लेकिन अब फेसबुक पर फोटो डालने के लिए घूमने नहीं नू जाएँगे? कह रहे हैं सुंदरबन आ तू भेज रहा है दुबई। डाक्टर के हियाँ सर दर्द दिखाने आए त उ बताने लगा कि लिबरे चेक करा लीजिये फ़ेल मार गया होगा। तू चार बाई चार का डिब्बा में अकेले बईठ के फेसबूक टूर पैकेज बना रहा था क्या जब हम लोग आए?’

‘अरे उ बात नहीं है। आ भैया दुबई काहे नहीं जाएंगे? माने आपे बताइये कोई देखबों नहीं करता है अब दार्जिलिंग, शिमला, ऊटी का फोटो। कम से कम अंडमान-केरल हो तो कुछ लाइक आ भी जाय। ओतने पैसे में दुबई-बैंकॉक नहीं जाएगा कोई? उहे जमाना नहीं है बीरेंदर कि सिमला-मनाली से आगे दिमागे न जाये? अब लोग आते हैं भेनिस, संटोरिनी आ सेसेल्स के लिए... ई सब जगह अब फैसन में आ गया है। हनीमून के भूगोल का सिलेबस जो है उ सिमला-ऊटी-कस्मीर से आगे बर्ह गया है। आ अडवेंचर के लिए जाना है त लद्दाख जाइए।’

‘कौंची बोला रे? मालूम भी है तुमको नक्सा में कहाँ है ई सब? कि इसको भी झाड़खण्डे में दिखा देता है? आ अपना अनुभव के लिए जाना है कि दिखाने के लिए? तुम ससुर पाहिले एक थो इनक्रेडिबल इंडिया का फोटो लगाओ हीहां फिर बाद में संतोरियाना. देस का नक्सा  देखना आया नहीं आ यूरेसिआ के मैप पढ़ाने लगा हमको। जलडमरूमध्य बुझाया नहीं कभी आ भूगोल फेसबुकमध्ये बुझने चले हैं’

सत्यप्रकाश कुछ बोला नहीं हंसने लगा।

‘अरे भाई हमें हनीमून पर नहीं जाना है ना ही फेसबुक पर फोटो डालनी है. खैर कोई बात नहीं  मार्केट का डिमांड-सप्लाई बताने के लिए धन्यवाद। दुबई जाना हुआ तो जरूर बताएँगे आपको’ - मैंने कहा.

बीरेंदर ने आगे कहा – ‘छोड़िये! हम पहिलही बोले कि हम लोग पैंतरा में पड़ने नहीं आए हैं। लेकिन तू अइसा अइसा जगह का नाम बताया आज। हनीमून के भूगोल में परकाण्ड पीएचडीये दिला दें का तुमको? नालंदा भी फिर खुलिए गया है। एक ठो बर्हिया चाहो नहीं पिलाया आ भूगोल पढ़ाने बईठ गया। तुम्हारा सब भूगोल का कच्छा में हम भी साथे थे... सब देखे हैं…’  हम चलने लगे तो बात भूगोल की कक्षा की ओर चली गयी…

‘जानते हैं भैया, भूगोल में हमलोग के हर परीच्छा में भारत का मानचित्र बनाने आता था। माने उ सवाल फिक्से समझिए। आ आधे से जादा लरका दु रुपया का सिक्का लेके जाता था आ नहीं त नक्सा वाला कोम्पस बोक्स। तबो सब अखण्डे भारत बना के आता था। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश आ साथ में पाकिस्तानो भारते में दिखा देता था। नक्सा के बाद उसमें जगह दिखाना होता था…  मंझावा के त था कि जो भी दिखाना हो सब झारखण्डे में दिखा आता था। माने सवाल में आधा त खनिजे उत्पादन का जगह दिखाने आता था। त इ अइसा झारखंड फैन कि बंबईओ दिखाने आए त झारखण्डे में। एतने इसको पता था भूगोल। आ अब देखिये केतना भारी-भारी जगह का नाम ले रहा है! एक्को नाम नहीं सुना होगा जब पर्हता था… अभियो से पर्ह लो बे अपने देस में झारखण्ड के अलावे भी बहुत जगह है’

‘केचाईन मत करो बीरेंदर। झाड़खंड वाला हम नहीं थे उ राजेसवा करता था।’

‘अबे जाओ ! चपटु सर बोले नहीं बोले थे तुमको कि जब नकसवे सही नहीं है तो “दिखाये तो सहिये हैं सर” का कर रहा है? जब नकसवे सही नहीं बना है त जगह कौंची का ठीके दिखाया हैं? आ महाद्वीप के महाद्विप लिख देगा त महा हाथी हो जाएगा भी तुम्ही को बोले थे। अब भले तुम पीएचडी कर लिए हो हनीमून भूगोल में’

‘कौन कौन बात याद रखते हो बीरेंदर तुम भी !’ - मंझवा ने कहा.

इसके बाद एएन कॉलेज में हुई मार पीट की बात चली... वो फिर कभी :)

‘वहाँ से चले तो बीरेंदर ने बताया... अब सब कुछ फेसबुके से डिसाइड होता है। माने देखिये... वैसे जानते हैं भैया उ पुरुवा है न जिससे मिलाये थे उस दिन। उ छोर दिया फेसबुक। हम पूछे त बोला... “जानते हो नसा हो गया था। ओहि में लगे रहिते थे। एक दिन गुस्साके डिलीट कर दिये। जानते हो मेरे बाबूजी पहले खूब चाय पीते थे... उस जमाने से जब चाय पहिले पहिल फैसन में आया था। एक दिन छोर दिये... उसके बाद जहां भी जाते हैं। सब कहता है - ई चाय नहीं पीते हैं... त पेरा (पेड़ा) मांगा देता है। अब पेरा  मिलने लगा त उनको मन भी होता चाय पीने का त नहीं पीते... आ उनका चाय छूटिए गया। उहे हुआ फेसबुक छोरने पर... एतना न फैसन में हो गया है कि अब न रहो फेसबुक पर त लोग कहता है कि कैसे नहीं हो? माने अइसा है जैसे.. कौनो असंभव वाला कम कर दिये. हमको स्पेसल लगता है। फेसबूक पर तो सब है ही त जे है से कि जो नहीं है उहे न स्पेसल हुआ’  :)

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~

...मॉडर्न आर्ट

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"जाकी रही भावना जैसी, मॉडर्न आर्ट तिन्ह देखी तैसी"

कला प्रेमी नाराज न हो। मज़ाक की बात नहीं है... मैं प्रभु से तुलना कर रहा हूँ। इसी बात से आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरे मन में कला के लिए कितनी इज्जत है। मैं अक्सर म्यूजियम भी जाता हूँ और 'मूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा)' तो कई बार जा चूका हूँ। वो बात और है कि नॉर्मल अवस्थामें जाता हूँ... जाना अच्छा लगता है। मेरे एक मित्र ने कहा था - "अबे,  मोमा बिना गाँजा मारे जाके करते क्या हो तुम ? हाई होकर जाओ तो वहाँ जो 'कुछ भी'रख दिया जाता है उसे देखकर  फंडे मारने में मजा आएगा। तब आर्ट एंजॉय करोगे"। मानता हूँ उस स्तर का कलाप्रेमी नहीं हूँ। पर मोमा जाकर ये अनुभूति जरूर हुई कि कला ब्रह्म की तरह साकार और निराकार दोनों है. मैं नादान अभी तक कला को साकार ही समझता रहा था।

कला प्रेमी होने के बावजूद मैं मोमा के लिए इस ट्वीटको आधुनिक कला की परिभाषा मानता हूँ। जैसे ऋषि-मुनि कण कण में भगवान देखते हैं वैसे ही मॉडर्न आर्ट प्रेमी... वैसे मुझे कला की समझ नहीं बस थोड़ी रुचि है और मोमा जैसी जगहों पर जो 'कुछ भी'रखा होता है उसमें से बहुत कुछ मुझे रोचक भी लगता है। कुछ बहुत रोचक। पिछले दिनों एक आर्ट ऑक्शन में भी जाने का मौका मिला। जिसका अनुभव कुछ ऐसा था  -


वैसे 'मोरोंस'नाम की ये पेंटिंग भी आप जितना अनुमान लगा रहे हैं उससे महंगी ही है। नहीं-नहीं मैं आपकी औकात नहीं नाप रहा, हो सकता है आप इसे और ज्यादा पैसे में खरीद लेते। वो तो मैं अपनी औकात से सोच रहा हूँ कि मेरे ब्लॉग का पाठक मेरे जैसा ही तो होगा कितना भी अनुमान लगाएगा तो भला कितना लगाएगा ! वो क्या है कि हम उस सोच के हैं - 'इतना महंगा पैंट है तो हम क्यों लेंगे जी?लूँगी ही क्या बुरी है ?'वैसे ऑक्शन में कला से ज्यादा मैं नीलामी करने वाले की बेचने की कलाऔर प्रक्रिया पर मुग्ध हुआ। थोड़ी देर बाद वही मैंपेंटिंग्स की कीमत का ऐसे अनुमान लगाने लगा जैसे... बस में बिकने वाला 'सोना चाँदी से कम नहीं, भुलाने पर गम नहीं'ब्रांड वाला गहना जिसे महंगा लगता हो वो कार्टियर-टिफनी देख कर कीमत गेस कर दे।

आर्ट ऑक्शन में बेचने वाले कला की कीमत कुछ ऐसे बढ़ा देते हैं जैसे... बचपन में एक चाचा राशन की दुकान चलाते थे। वो कहते कि... "मैं चावल दिखाता हूँ तो कई लोग पुछते हैं कि थोड़ा और महीन नहीं है? ये साफ भी नहीं लग रहा? तो मैं अंदर जाके उसी बोरी में से फिर लाता हूँ और कहता हूँ ये देखीये बिल्कुल फाइन क्वालिटी का चावल आया है। और ज्यादा महंगा भी नहीं है बस पिछले वाले से पाँच रुपये ही ज्यादा है"। वैसे ही जिन बातों की मुझे कोई समझ नहीं मैं उन्हें भी समझने के भ्रम में कीमत सोचने लगा लगा.… ये वाली इतने नहीं उतने हजार डॉलर की होनी चाहिए ! ऐसा भी नहीं कि मुझे कोई पेंटिग बहुत कमाल की लगी हो... जैसे कलाकार ने जान डाल दी है। अब कला के  बारे में  तो यही सुनते आये थे - जान डाल देना ! पर यहाँ तो कभीनिराकारमोंकारमूलं तुरीयं  तो कभी अष्टावक्र दिखने वाली कला में कलाकार क्या जान डालेगा... पहले डिसाइड तो हो कि उसने जो  बनाया है वो कोई प्राणी है या ऑटो या ऐटम बम!

खैर... मैं मानता हूँ कि जो मुझे समझ नहीं आता वो भी जरूर किसी और को आता होगा। जो मुझे रोचक लगता है वो किसी और को बकवास लगता होगा। कुछ बात होगी तभी तो ऐसी कला को इतने बड़े म्यूजियम में रखा जाता है और इतना महंगा बिकता है !  ऐसी ही बात पर मुझे किसी ने सलाह दी थी कि मुझे आर्ट अप्रेसिएशनका कोर्स करना चाहिए। पर मुझे लगा कोर्स करके अप्रेसिएट करना तो नहीं सिखाया जा सकता। मुझे तो नहीं. मुझे नहीं लगता किसी के कह देने से मैं कुछ अप्रेसिएटकरने लग जाऊंगा ! मैं अक्सर कहता हूँ - अगर कोई अच्छा इंसान नहीं तो भले ही नोबल प्राइज़ जीत के बैठा हो मुझसे न होनी उसकी इज्जत ! तो मुझे नहीं लगता किसी के कहे या सिखाये से मुझे कुछ रोचक लग जाएगा।  इश्क़, कला, ईश्वर ये सब अनुभूति की चीजें हैं... संभवतः जिन्हे है और जिन्हें नहीं है एक दूसरे को बहुत ज्यादा समझ-समझा नहीं सकते। समझने का एक ही तरीका है - खुद अनुभव करना। खैर... बात इतनी सिरियस भी नहीं है। तो बैक टु मोमा -


जब मैं मोमा जाता हूँ तो  वहाँ रखे 'आर्ट'को देख अक्सर मन में सवाल उठता है कि 'ये है क्या'! पढ़ने के बाद कई बार कुछ रोचक लग जाता है पर कई बार ये भी लगता है कि क्या बकवास है। सबसे मजेदार अनुभव वहाँ होता है जहां कुछ लिखा ही नहीं होता। या पढ़ने से पहले जो देख कर समझ आता है वो पढ़ने के बाद कुछ और ही निकल जाता है।  या जब लगता है यूँही भारी-भारी बात लिख दी गयी है। मेरे लिए मोमा जाना यानि खुश होकर लौटना, आर्टमयहोकर लौटना। थोड़ी देर तक हर चीज आर्ट ही आर्ट लगने लगती है। हर चीज को देख कर लगता है - "फिर तो ये भी आर्ट हुआ" !

खैर... फिलहाल आप ये बेनामी तस्वीर देखिये -



मैंने कुछ लोगों को दिखाया और पूछा - 'ये क्या है' ! बड़े रोचक जवाब मिले। जितने ज्यादा लोग देखेंगे यकीनन और रोचक जवाब मिलते जाएँगे। ये हैं कुछ जवाब  -

1 दीवार लग रही है
2 आयरन से कोई कपड़ा जल गया है
3 स्टीम आयरन
4 पानी की परछाई
5 मुझे तो ये कोई बैक्टीरिया या वाइरस लग रहा है, माइक्रोस्कोप के नीचे
6 समुद्र में क्रूज जा रहा हो वैसा लग रहा है !
7 कोई कीड़ा?
8 कुछ तो ऐसा लग रहा है जैसे कंक्रीट आयरन से जल गया हो... कंक्रीट के ऊपर आयरन से कपडा जलने के कांसेप्ट का प्रोजेक्शन है !
9 जबड़े का एक्स रे (सबसे अधिक लोगों ने कहा)
10 मगरमच्छ का मुंह लग रहा है। अब ये मत कहना कि मैथ का कोई थियोरम है !
11 कोई मछली?
12 लूक्स लाइक ए डेंटल इंप्रिंट
13 त्रिशूल !
14 रैंडम लग रहा है पर कुछ ज्यादा ही रैडम है !
15 हीटमैप?
16 फ्रैक्टल ? तुम भेजे हो तो मैथ ही होगा !
17 कुछ तो माइक्रोस्कोपिक है।
18 भुतहा लग रहा है। जैसे फोटो खींचते समय कैमरा हिल जाता है।
19 क्या है? बताओ। नहीं पता चल रहा। मैग्नेटिक फील्ड?
20 टॉर्च या लैंप के सामने रखे किसी पेपर जैसी चीज से दीवार पर रौशनी पड़ रही है। आकार-प्रकार से कली जैसा लग रहा है या दो कीड़े। लगभग पर्फेक्ट सिमेट्री है तो मुझे लग रहा है कि कागज को बीच से मोड़ा गया है।
21 साउंड वेव को पानी में डालकर उसका प्रोजेक्शन खींचे हो
22 पता नहीं चल रहा। पर ऐसा लगता है कि ये तस्वीर कहीं देखी है मैंने !

यानि 'देखा-देखा लग रहा है'के लेवल पर ये तस्वीर पहुँच चुकी है। इस जवाब के बाद लगा मैंने मास्टरपीस बना दिया। जब पूछा था तब ये फोटो इस तरह फ्रेम में नहीं थी। ना ही मैंने कहा कि इसे आर्ट की नजरों से देख कर बताओ।


क्या दिख रहा है से याद आया… एक बार एक पहलवान, एक बनिया और एक पंडित एक जंगल से जा रहे थे। अब जंगल था तो चिड़िया तो बोलेगी ही ! तो एक चिड़िया अपनी धुन में कुछ बोल-गा रही थी। पंडित ने कहा - सुना तुम लोगो ने? चिड़िया कह रही है राम-लक्ष्मण-दशरथ।
पहलवान बोला - धेत पंडिज्जी ! आपको तो रामे राम दिखता है। वो कह रही है - दंड-बैठक-कसरत।
बनिया बोला - कैसे सुन रहे हो आपलोग ! साफ साफ कह रही है - प्याज-लहसुन-अदरख !
अब चिड़िया क्या कह रही थी ये तो चिड़िया जाने। हम चिड़िया तो हैं नहीं जो पता होगा। फिर से तुलसी बाबा साक्षी - खग जाने खग ही की भाषा !

किसी ने मुझसे मुझसे कहा - 'जो भी है ये पर... ह्यूमन ब्रेन इज सो वायरड़ टू मेक ऐंड सी पैटर्नस आउट ऑफ रैंडम नथिंग बेस्ड ओन एक्सपेरिएन्सेस !'और मुझे लगा ये वायरिंग ही मॉडर्न आर्ट के आर्ट होने का कारण है। सब लोचा घूमा फिरा के ब्रेन की वायरिंग का ही है।

तो ये है क्या?
अब चिड़िया के बोलने की तरह ये जो भी हो... आप भी कुछ देख ही रहे होंगे इसमें। बताइये।

ये कला है?
कला का तो ऐसा है कि …कलाकार की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कलाकार काहे का?

'भेंड़े और भेंडिए'में परसाईजी ने एक सियार कवि के हुआं-हुआं करने पर लिखा है - पीले सियार को 'हुआं-हुआं'के सिवा कुछ और तो आता ही नहीं था। हुआं-हुआं चिल्ला दिया। शेष सियार भी हुआं-हुआं बोल पड़े। बूढ़े सियार ने आँख के इशारे से शेष सियारों को मना कर दिया और चतुराई से बात को यों कहकर सँभाला - "भई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं। पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं?अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का?उनकी कविता में से शाश्वत के स्वर फूट रहे हैं।"

खैर कभी गलती से हम भी मशहूर हो गए तो... ममता दी की तरह कराएंगे हम भी नीलामी !

वैसे यहाँ तक पढ़ गये तो ये भी देखकर आइये - ..समीकरणरूपाय जगन्नाथाय ते नमः ! :)

~Abhishek Ojha~

चाइनीज शॉट (यूनान -१)

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'डोंत वरी, यू कैंत क्लिक अ बैद शॉत हियर। ऑल सीनिक ग्रीक पोस्तकार्द्स कम फ्रॉम दिस प्लेस' - मैंनफ्रेड ने मुसकुराते हुए कहा. मैनफ्रेड से मेरी मुलाक़ात वहीँ थोड़ी देर पहले हुई थी। पर्यटकों, सेल्फ़ी-स्टिक्स और सैकड़ों ट्राईपॉड़ों  से खचाखच भरी जगह पर. जहाँ अनजान लोग एक दूसरे को देखते हुए अक्सर मुस्कुरा देते हैं ताकि ऑक्वर्डन लगे.

सनसेट पॉइंट - भीड़ सूर्यास्त का इंतज़ार कर रही थी. लोग कहते हैं सूर्यास्त देखने के लिए दुनिया के सबसे अच्छे जगहों में से वो एक है. आबादी 14-15 हजार पर वहाँ  हर साल कई लाख पर्यटक आते हैं। दिन अभी काफी  बचा था पर भीड़ अभी से ही अच्छी हो चली थी. दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आये लोग. सबकी अपनी भाषा और अपनी-अपनी अंग्रेजी

वहां आते हुए रास्ते में मुझसे एक चीनी लड़की ने बड़ी हड़बड़ी में पुछा - 'वेयर इज सनसेट? आर यू गोइंग फॉर सनसेट?'सनसेट को तो पश्चिम में ही होना चाहिए। कायदे से मुझे कहना चाहिए था - 'कीप लुकिंग ऐट वेस्ट'पर मैंने बताया - 'कीप वाकिंग स्ट्रेट एंड इन अबाउट एट टू टेन मिनट्स यू विलरीच सनसेट'.

खैर… सनसेट पॉइंट पर मैनफ्रेड की वेशभूषा देख मुझे ह्वेनसांग की याद आई. बचपन में इतिहास की किताब में बनी उनकी फोटो। पीठ पर बैगपैक और सर पर तवा लिए.



स्कूल के दिनों में कभी समझ नहीं आया कि ह्वेनसांग के सिर पर वो तवा दरअसल छतरी थी.

ऐसी जगहों पर मैं भी ट्राईपॉड और लेंस फिल्टर लेकर जाता हूँ.  पर यहाँ न तो ट्राइपॉड था न फिल्टर। मैं सोच रहा था कि सनसेट की तो क्या ही अच्छी फोटो आएगी ! खैर दुनिया का कोई  भी कोना हो बोली के इतर भी एक भाषा होती है जो सभी समझते हैं. उसी भाषा से ये बात समझ आधुनिक ह्वेनसांग, मैनफ्रेड ने मुझसे कहा - 'डोंत वरी, यू कैंत क्लिक अ बैद शॉत हियर।' 

इस के बाद मैनफ्रेड से थोड़ी बात चीत हुई. मैं शायद ही कभी आगे बढ़ कर खुद किसी से बात करता हूँ पर अगर कोई करने लगे तो अच्छा लगता है. मैनफ़्रेड आराम से यात्रा करने वाले यात्री हैं और अक्सर ग्रीस आते हैं. वो कहीं भी जाते हैं तो कम से कम १५ दिन रुकते हैं. स्थानीय लोगों के बीच रहते हैं उनसे मिलते जुलते हैं. आराम से घूमते हैं. उन्होंने कहा - "आई डोंट वांत तू तेक अनदर वैकेशन तू रिकवर आफ्टर माय वैकेशन। आई कीप इत रिलैक्स्ड।"उन्हें व्यू पॉइंट्सकवर करने और फोटो खींचने की जल्दी नहीं होती। तीसरी बार वो वहाँ आए थे. मैंने उनसे पूछा - "क्या-क्या है यहाँ देखने लायक?"उन्होंने एक भी व्यू पॉइंट और शॉपिंग की जगह या रेस्टोरेंट नहीं बताया। उनके अनुभव अलग थे. बातें अलग थी। गाँवों के नाम बताये उन्होने. वाइनरी बतायी। खेत देख के आओ. लोगों से मिलो। टूरिस्ट्स, रेस्टोरेंट्स, क्रुजेज? -दिस इस नो ग्रीस ! 

पहला सवाल जो मेरे दिमाग में आया वो ये कि - कोई  घूमने क्यों जाता है ?

मुझे याद आया उसी दिन सुबह होटल में बैठे एक दंपत्ति से मेरी बात हुई थी. उन्होंने मुझसे कहा - 'एक सप्ताह थोड़ा ज्यादा ही है यहाँ के लिए. दो दिनबहुत है.'उन्होंने ही मुझे दिखाया था एक सनसेट की फोटो और कहा था  'यू मस्ट सी सनसेट हियर, इट्स मेस्मेराईज़िंग'. उनके फोटो का कैप्शन था - 'हेवेन ऑन अर्थ'.मुझे लगा 'हेवेन ऑन अर्थ'के लिए दो दिन बहुतकैसे हो सकते है? हेवेन से भी बोर?

'आर दे रियली लुकिंग ऐट हेवेन?'मैनफ्रेड ने कहा. मैंने सोचा - बात तो सही है. हो गया घूमना-फिरना, खींच ली फोटो, शेयर  कर दी. चलो अब घर ! लाइक्स से अभिभूत होने के जमाने में किसे पड़ी है अनुभव की?

वैसे कई लोगों के साथ वैसा भी हो जाता है कि... एक थीं कोई. वो गयी तीर्थ करने। जाने से पहले उनके आचार  के मर्तबानों को धूप दिखाना था, जो वो पड़ोसी के यहाँ छोड़ गयी। पर उनके मन में यही हुट-हूटी रही कि... आचार खराब तो नहीं हो जाएँगे? कहते हैं जब वो द्वारका पहुंची तो लोग उन्हें द्वारिकाधीश दिखाते रह गए। पर उन्हें हर तरफ सिर्फ अचार के मर्तबान ही दिखते रहे। वैसे ही अब पर्यटकों को सिर्फ लाइक्स और कमेंट्सदिखते हैं - द्वारिकाधीश दिखें न दिखें। कैप्शन होना चाहिए - फीलिंग स्पिरिचुयल ऐट...

पिछले दिनों मैं एक कार्यक्रम में भारतीय दूतावास गया था। वहाँ मेरे आगे बैठी लड़की पूरे समय फोन में यही ढूंढती रही कि टैग  कैसे हो दूतावास! फिर वो ट्वीटर पर गयी तो उसे दूतावास का हैंडल नहीं मिला। क्या लिखना है वो तो पहले से लिख चुकी थी। कुछ देखने और सुनने की जरूरत थी नहीं। बीच में लोग ताली बजाते तो वो भी  बजा देती। शायद कर  पाते हों लोग इतनी मल्टी टास्किंग  हमसे तो न हो पाता। [हां, ये ऑब्जर्व जरूर कर रहा था :)]

खैर... मुझे याद आया जब पिछले साल मैं और मेरे एक दोस्त कोलोराडो प्लेटोके कैन्यन्सऔर रेगिस्तान में दो सप्ताह घूमते रहे थे. लोग पूछते हैं इतने दिन तुमने किया क्या?है क्या इतना देखने लायक? और हम सोचते रहते हैं - फिर जाएँगे कभी ! हम किसी एक जगह पर जितनी देर बैठते उतनी देर में पर्यटक बसलोगों को पूरा नेशनल पार्क दिखा लाती ! लोग व्यू पॉइंट्सपर उतरते भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसी अलग-अलग मुद्राएं बनाते - खीचिक-खीचिक कर आठ दस फोटो खींचते और चले जाते. मै उन्हेंचाइनीज शॉटकहता हूँ। सूर्यास्त देखने की जगह सूरज खाते हुए लील्यो ताहि मधुर फल जानी* पोज और एफिल टावर  चुटकी में भर लेने में ही लोग लगे रह जाते हैं। मुझे नहीं लगता वो देखते भी हैं कि क्या है वहाँ. सब कुछ तो है इन्टरनेट पर क्यों देखें या पढ़ें वहां रूककर? देखने के लिए थोड़े न गए हैं ! मुझे नहीं लगता उनके अनुभव कैप्शनऔर स्टेटस सोचने से बहुत अधिक होते होंगे। वो आँख भर नहीं कैमरा भर देखते हैं। मुझसे भी किसी ने मेरे एक ट्रिप की फोटो देख कहा था - "क्या देखूँ इसमें? वालपेपर लग रही हैं सारी पिक्स ! तुम तो हो नहीं इसमें।"

सूर्यास्त हुआ. खूबसूरत था. इतना कि उसके कुछ दिनों बाद मैंने किसी से कहा  - "पिछले कुछ दिनों से मैं सनसेट रेजिस्टनहीं कर पा रहा. मुझे ओबसेशनसा हो गया है."… सूर्यास्त देखने के लिए खड़ी समुद्री नावों और जहाजों ने भोपूं बजाया। लोग सेल्फ़ी और तस्वीरें लेने में व्यस्त रहे. जल्दी-जल्दी।  कहीं 'गोल्डेन मूमेंट'चला न जाये। मुझे पता है उनके स्टेटसऔर कैप्शनजरूर सिरीनरहे होंगे भले वहां हांव-हांवमची थी.

लोग बहुत खुश दिखे। अच्छी तस्वीरें आई. मैनफ्रेड ने सही कहा था इतनी खूबसूरत जगह है कि ख़राब फोटो नहीं आ सकती।  फिर मैंने किसी को कहते सुना - 'इट्स ओवररेटेड ! सन, सी, माउंटेंस व्हॉट इज सो वंडरफुल अबाउट ईट? इट इज सो क्राउडेड!'बात सच थी. सूरज रोज उगता है रोज अस्त होता है. समुद्र, पहाड़ -  है थोड़ा खूबसूरत पर ऐसा भी क्या है जो इतना हो-हल्ला? जैसे बादशाह के अद्भुत कपड़े के लिए सभी वाह-वाह कर रहे हों और किसी ने  कह दिया हो कि - नंगा है !

भीड़ आई थी धीरे-धीरे पर छँटी बड़ी तेजी से. अभी ठीक से सूर्य अस्त भी नहीं हुआ था कि अधिकतर लोग निकल लिए. बैठने की जगह भी खाली होने लगी। जब सब जाने लगे - मैनफ्रेड बैठ लिए. हम भी बैठ गए. सोचा थोड़ी देर में जाएँगे जब रास्ते खाली हो जाएंगे। मैनफ्रेड ने कहा… 'वेत, अनतिल मिडनाईट। इफ यू रियली वांत तू फील समथींग वंदरफूल '. उन्होंने तस्वीर नहीं खींची। उन्होंने बताया कि बहुत अच्छी तस्वीरें ली हैं उन्होंने उस जगह की। पर आज वो सिर्फ देखने आये थे. हम कुछ गिने-चुने लोग देर तक बैठे रहे। मुझे याद आया रात के दो बजे आर्चेस नेशनल  पार्कमें डेलिकेट आर्च के पास सिर्फ छह लोग बैठे रहे थे - धुप्प अंधेरी रात, मिल्की वे, डेलिकेट आर्च. फिर रात को सिर पर फ्लैश लाइट लगाए नीचे उतरना.... वो अब तक के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक है।

लाखों पर्यटकों के लिए एक-दो दिन किसी भी जगह के लिएबहुत होता है - हेवेन्ली कैप्शन और तस्वीरों के लिए. फेसबूक पर कमेन्ट का रिप्लाई होता है - 'इट वाज अ ड्रीम वकेशन ! सैड दैट इट एंडेड टू सून :('और मन में होता है - दो दिन ही काफी थे। एक सप्ताह बेकार गए! कहीं और भी चले गए होते इतने दिन में। मुझे मैनफ्रेड की बात जमी। मैं दो शाम और गया वहाँ। देर रात तक बैठा रहा।

मुझसे जब कोई पूछता है कैसी जगह है? कितने दिन के लिए जाना चाहिए? मुझे नहीं समझ आता मैं क्या जवाब दूँ।
वापस आने पर किसी ने पूछा - विल यू गो अगेन ?! देख तो लिया ! अगर सिर्फ जगहें 'कवर'करना लक्ष्य हो तो फिर क्यों दुबारा जाऊंगा? अगर अनुभव करना हो तो बिलकुल। फिर से... बार-बार. डिपेंड  करता है - 'चाइनीज शॉट'या 'मैनफ्रेडीय'।

मुझे लगता है कि लोग कहीं इसलिए जाने लगे हैं क्योंकि... फैंटेसी है। एल्बम बनाना है। शेयर करना है। इंटरनेट का पर्यटन पर प्रभाव विषय पर रिसर्च करने की जरुरत नहीं है. फिर लोग अपने यात्रा के असली अनुभव बताने से डरते हैं। कहीं लोग ये न समझे कि... उस बादशाह के कपड़े की तरह जो दरअसल नंगा था ! कितने लोगों के निगेटिव यात्रा अनुभव (या विस्तृत?) आपने फेसबुक पर पढ़ा है?

सबका यात्रा करने का अपना तरीका होता है- अपने कारण। सबकी अलग-अलग पसंद होती हैं। पर लाइक्स/कमेंट्स के जमाने में अनुभव के लिए कौन यात्रा करता है? यात्री बढ़े हैं - यात्रा से अनुभवी होने वाले घटे हैं - ह्वेनसांग नहीं होते अब। ट्वीट/फेसबुक के त्वरित जमाने में किसे फुर्सत है विस्तार से लिखने की और किसे फुर्सत है आपका लिखा पढ़ने की?

मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं इज इट वर्थ टू विजिट न्यू यॉर्क फॉर वन वीकेंड? 

मुझे नहीं पता क्या जवाब दूँ मैं। मैं इस शहर में घंटों पैदल चला हूँ... मीलों। मुझे सच में नहीं पतावर्थक्या है ! शायद मुझे सारे प्रसिद्द जगहों से ज्यादा अच्छा सेंट्रल पार्क में एक पानी बेचने वाले से बात करना लगा ! मैंने पिछले पांच साल में दर्जनों दोस्तों को न्यूयॉर्क का वीकेंड ट्रिपकराया है. अन ऑफिसियल गाइड ! ऐसी जगहें हैं जहाँ पर बार-बार सिर्फ इसलिए गयाक्योंकि किसी को घुमाना होता है. नहीं तो दुबारा तो कभी नहीं जाता।एक दिन भी काफी है - सालों भी कम है। घूमते रहो तो हर बार कुछ नया दिखता है। जैसे मेरी माँ ने हजारो बार मानस पढ़ा है, हर बार उन्हे लगता है कुछ नया मिला ! मैनफ़्रेडिय घूमना वैसे ही है। चाइनीज शॉट है - मानस का पाठ हुआ प्रसाद लेने के समय पहुंचे, जय-जय किया, निकल लिए.

मैं कह देता हूँ - डीपेंड्स।
लोग कहते हैं - न्यू यॉर्क के बारे में तो बहुत सुना है। और कह रहे हो डीपेंड्स ?

मैनफ़्रेडिय घूमना हो तो - "पैदल घुमो - सड़कों पर। स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी, म्यूजियम्स, स्टोर्स, ब्रूकलिन ब्रिज और एम्पायर स्टेट हीन्यू यॉर्क नहीं है.".

.... या है शायद... इतना कह सकता हूँ कि समय लगता है इस शहर से प्यार होने में। पर ऐडपटेबलशहर है। शायद वो सबसे जरूरी है किसी जगह  के लिए - कुछ समय रहो तो हर अगला दिन पिछले से बेहतर लगे. सबके लिए कुछ  न कुछ है इस शहर में।  कई लोग आते हैं जिन्हें पहले भीड़-भाड़, चमक धमक, मौसम, भाग-दौड़, लोग पसंद नहीं आते। पर धीरे-धीरे मैंने देखा है उन्हें अच्छा लगने लगता है। क्योंकि उनके लायक जो है शहर का वो हिस्सा उन्हें दिख जाता है. सबकुछ है इस शहर में. पर वो शायद मैनफ़्रेडीय नजरिया है। मैनफ्रेड जगहों के बारे में लिख सकते हैं। यात्राओं से सीख सकते हैं। अनुभव बटोर सकते हैं. पर जिन्हें चाइनीज शॉट के लिए घूमना हो - उनके लिए दो दिन बहुत है और न्यूयॉर्क तो उनके लिए पर्फेक्ट है !

मुझे खुशी है मैं मैनफ्रेड से मिला।

अज्ञेय याद आए -

मैंने आँख भर देखा। (सिर्फ कैमरा भर नहीं !)
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?'

और ये रही बिन फिल्टर ट्राइपॉड बिना शॉट…


~Abhishek Ojha~

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यूनान डायरी... पटना की तुलना में बहुत कम दिन रहना हुआ यूनान में। पर लिखने का मन है 8-10 पोस्ट। जो मैंने देखा। भाषा, लोग, जगहें, खँडहर, माइथोलॉजी, भूत, वर्तमान...

पटना और यूनान - सहस्त्राब्दियों पुराने खंडहरों को देख कर लगा यहाँ पाटलिपुत्र से आए आचार्यों ने जरूर कभी मंत्रोचर किया होगा। खैर... बाकी अगली पोस्ट्स में।

बाई दी वे - यूनान को हिन्दी में ग्रीसकहते हैं :)

*लिल्यो ताही मधुर फल जानूँ पोज- शिव भैयाने बहुत पहले एक पोस्ट में ये बात लिखी थी। वो इतनी पसंद आई थी कि लोगों को सूरज लीलते हुए देख वही याद आता है :)

अहिम्सा (यूनान २)

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नयी जगहों पर जाते हुए मन में कहीं न कहीं चलता रहता है कि वहाँ खाने को पता नहीं क्या मिलेगा ! वैसे समय के साथ ये समस्या लगभग खत्म हो गयी है। मेरे एक दोस्त कहते हैं - 'ये ऐसा वेजिटेरियनहै कि कुछ भी खा सकता है'। उनके कहने का मतलब मांस-मछली-अंडा के अलावा मैं कुछ भी लगभग निर्विकार भाव से खा लेता हूँ। जैसे सुना है कि सुट्टेबाज अजनबियों में अक्सर माचिस-सुट्टे को लेकर बातचीज शुरू हो जाती है... (होती होगी !) वैसे ही मेरा शाक-पात-भक्षी होना एक मुलाक़ात का कारण बना था, ग्रीस में, आइरिन से - 

वैसे ये सुखद था कि ग्रीस में मुझे खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं हुई। शायद ये भी कारण रहा हो कि मैं जिन जगहों पर गया वो सारे विश्वप्रसिद्ध पर्यटक स्थल हैं । या एक कारण ये भी हो कि खाने में आधा किलो टमाटर, चीज के साथ सामने रख दिया जाना भी मुझे अच्छा ही लगा। टमाटर-चीज-शिमला मिर्च-बैंगन-दही-फल-ब्रेड-चावल-पास्ता... अब देखिये लिखना शुरू किया था तो लगा बस टमाटर और चीज ही तो खाने को मिलता था। पर लिस्ट लंबी होती गयी। कहने का मतलब ये कि दही-टमाटर-चीज की प्रमुखता रही पर दिक्कत वाली कोई बात नहीं थी। सैलेडके अलावा जेमिस्टा, केफेटेडेस,लंदर, फंदर जो भी नाम रहे हों व्यंजनों के एकाध बार छोड़ दें तो जीभ को भी कुछ खास शिकायत नहीं रही। मुझे लगता है कहीं न कहीं खान पान पर यूरोप के अलावा ओट्टोमान साम्राज्य और मध्य पूर्व की  मिश्रित सभ्यताओं का असर इस ना-शिकायती का कारण रहा होगा। कहने का मतलब ये कि जीभ के गुलाम लोगों के लिए भी ग्रीस अच्छी जगह है। 

खैर… खाने के चक्कर में आइरिन की बात अधूरी ना रह जाए. आइरीन से मुलाक़ात हुई थी एक खूबसूरत रेस्तरां में। मेरे अपने शाकभक्षी होने की बात वेटर को समझा चुकने के तुरत बाद पीछे से आवाज आई - 'हाउ लॉन्ग हैव यू बीन अ वेजिटेरियन?'मैंने मुड़कर देखा तो आइरिन मुस्कुराती नजर आई। 

मैंने कहा - 'हाय ! आई वाज रेजड ऐज़ ए वेजिटेरियन सो... बेसिकली माई एंटायर लाइफ
'वॉव ! यू नेवर ईवन ट्राइड? आई वाज अ वेजेटेरियन फॉर फ़्यू यीयर्स। बट देन... इट्स टफ।' 

मैंने जवाब में मुस्कुरा दिया। शायद कोई बहुत छोटा उत्तर नहीं था मेरे पास जो एक अजनबी को दिया जा सके। पर जब आइरिन ने खुद ही अगले सवाल के रूप में जवाब देते हुए कहा -'बिकॉज़ ऑफ अहिम्सा ?'तो बात आगे निकल गयी। इससे पहले मुझे याद नहीं कभी मैंने एक शब्द का उत्तर दिया हो अपने शाकाहारी होने के सवाल का। 'अहिम्सा'सुनकर बहुत सुखद अहसास हुआ.

बात आगे बढ़ी तो आइरिन ने बताया कि 'योगा ऐंड इन्दु फिलॉसोफी'में उसे रुचि है। कुछ क्लासेज भी की है उसने। दे इवन सर्व अ योगिक वेजिटेरिअन मील ओन वीकेण्ड्स.

'ऐंड वॉट अबाउट आयुर्वेड़ा?'उसने पूछा।

मैंने आइरिन को बताया कि मुझे आयुर्वेद  की कोई ख़ास जानकारी नहीं। उसने पूछा 'व्हाइ? आई लव आयुर्वेड़ा ! यू हैव बीन टू केराला? व्हेयर आर यू फ़्रोम इन इंडिया?'बात अहिंसा से आयुर्वेड़ापर आई तो मुझे समझ में आ गया कि इस लड़की को पर्यटक स्थलों पर भारतीय देखकर 'नामास्ते' और बिना रुके-थमे एक सांस में 'केसहेंयाप'कहने वालों से कहीं ज्यादा पता है। (एथेंस में एक गाइड ने हाथ जोड़ 'केसहेंयाप'कहा तो मुझे थोड़ी देर तक समझ नहीं आया कि वो क्या कह रहा है। फिर उसने पूछा यू नो हिन्दी? तब समझ में आया कि वो 'कैसे हैं आप'कह रहा था।)

मैंने आइरिन को अपने तरीके से समझाया कि मुझे आयुर्वेद की जानकारी इसलिए भी नहीं क्योंकि मुझे  उसकी कभी जरूरत नहीं पड़ी। वैसे तो मैं बहुत उत्सुक इंसान हूँ पर दुनिया में कई चीजें ऐसी हैं जिनका मैं अनुभव करना नहीं चाहता। चिकित्सा भी वैसी ही एक चीज है - वो चाहे आयुर्वेद हो या कुछ और। जैसे मान लो मेरे पास कुछ दवाइयाँ पड़ी हैं। मेरे हिसाब से उनका सबसे अच्छा उपयोग होगा कि वो पड़ी-पड़ी खराब हो जाएँ !  सबसे अच्छा उपयोग कि वो उपयोग में आए ही न । अब जैसे मेरे मेडिकल इन्स्युरेंसका सबसे अच्छा पैसा वसूल यही तो होगा कि वो बिन इस्तेमाल हुए मेरी जगह बीमा कंपनी का ही फायदा करा दे? मैं नहीं चाहता कि वो बेकार जा रहे पैसे वसूल करने की कभी नौबत आए। 

आइरिन को मेरी बात अच्छी लगी। उसने पूछा 'बट व्हाट अबाउट योगा ऐंड आयुर्वेड़ा ऐज़ वे ऑफ लिविंग?'

मैंने आइरिन को समझाया कि बहुत तो नहीं पर हां जिस तरह मैं पला बढ़ा कुछ वे ऑफ लिविंग की बातें  'बाई डिफ़ाल्ट'ही पता होती जाती हैं - अनकोंसियसली... नॉट एक्सपर्ट बट यू नो वॉट आई मीन। मैंने सोचा कि अब घर की बात क्या बताई जाये उसे पर सच्चाई तो ये है कि हमारे देश में हर दूसरा इंसान ही वैद्य होता है। 

थोड़ी इधर उधर की बात हुई तो आइरिन ने पूछा - 'यू डोंट ड्रिंक ऐज़ वेल? यू डोंट नो माई फ्रेंड वॉट यू आर मिसिंग'।

फिर आइरिन ने मुस्कुराते हुए मुझे एक टंगा हुआ बोर्ड दिखाया जिस पर लिखा था “A man who drinks only water has a secret to hide. - Charles Baudelaire" 

मैंने कहा - आई डोंट नो, इफ आई कैन कीप माई सिकरेट्स आफ्टर अ ड्रिंक ऑर नॉट... बट ऐज़ यू सेड़ आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग ! और जब मुझे पता ही नहीं कि मैं क्या मिस कर रहा हूँ क्या नही तो फिर उस चीज की कमी कैसे हो महसूस हो सकती है? कभी किया होता तब तो अच्छा, बुरा या फिर मैं क्या मिस कर रहा हूँ ये पता चलता ? मैंने आइरिन को समझाया कि 'आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग'भी एक उत्तर है कि मुझे क्यों कभी ट्राई करने की जरूरत नहीं पड़ी।गुड टिल आई डोंट नो. 

"बट देन हाउ विल यू एवर नो हाऊ ईट फील्स लाइक? दिस वे यू कैन नेवर फील फ़्यू थिंग्स। "

मेबी आई डोंट नीड़ टू ! आई नेवर फेल्ट दैट आई शुड। शायद मुझे कभी इनकंप्लीटलगा नहीं क्योंकि 'आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग'। मैंने आगे कहा कि कैसे ये आइरिन के लिए समझना कठिन हो सकता है. जिसकी कभी आँखें रही ही नहीं वो कैसे सोच सकता है कि जो देख पाते हैं वो क्या देखते होंगे? अच्छा, बुरा या मिस करने का सवाल ही नहीं उठता। बात वैसी ही है कुछ. मैंने उसे समझाया कि जब मैं अपने उन दोस्तों के साथ जाता हूँ जो  - प्याज, लहसुन, दूध तक नहीं खाते ! मुझे तुरत लगता है कि ये खाते क्या हैं फिर? इन्हें तो पता ही नहीं स्वाद क्या होता है? ये जिंदा कैसे रहते हैं? मैं भी वैसा ही हूँ तुम्हारे लिए. पर कहीं न कहीं जो नहीं जानते कि वो क्या मिस कर रहे हैं उनके लिए आसान है वैसे ही बने रहना। पर एक बार कुछ जीवन का हिस्सा बन जाये फिर उसे छोडते हुए आपको पता होता है कि क्या जा रहा है जिंदगी से क्या नहीं। बीलीव मी, इट्स गुड समटाइम्स नॉट टू नो वॉट वी आर मिसिंग ऑर नॉट मिसिंग। 

ऐसा लगा जैसे आइरिन को फिर मेरी बात पसंद आई। 

उसने बताया कि वो कुछ साल तक वेजिटेरियन रह चुकी है। इंडिया से लौटने के बाद। - आई हैव बीन टू इंडिया - केराला, रिचिकेश, वारानासी ऐंड माडुराई।

मुझे बहुत खुशी हुई। अब पता चला कि उसे इतना कैसे पता है.  आइरिन ने आगे बताया... वो पहली बार भारत गयी आयुर्वेद के लिए। दुबारा ब्रेकअपहोने के बाद 'योगा कैपिटल रिचिकेश'। जब उसके सारे दोस्तों की शादी होने लगी और वो अकेली, टूटी, अवसाद में डूबी, सब कुछ खो जाने के बाद. उन दिनों उसे किसी ने उसे ऋषिकेश जाने की सलाह दी। तब वो बत्तीस साल की थी.

"इट वाज सो डेंजरस बट आई टूक अ डीप इन गैन्गीज।" उसके बाद उसी यात्रा पर वो अपने होने वाले पति से मिली मदुरै में ! किसी फिल्मी कहानी की तरह मैं आइरिन की बातें मंत्रमुग्ध सुनता रहा। ही इज फ्रॉम रोमानिया। लाइफ हैज बीन काइंड आफ्टर दैट. आइरीन ने मुझे अपनी बेटी की फोटो भी दिखाई - ईट वाज हर सेकंड बर्थडे लास्ट मंथ. 
उसके पति नौकरी ढूंढ रहे हैं। क्राइसिस में आसान नहीं है ऊपर से कैपिटल कंट्रोल। ... बट आई हैव सीन सो मच दैट... आई डोंट वांट टू डू एनिथिंग स्टुपिड अगेन। 

मैंने सतही सा घिसा पीटा दिलासा दिया - डोंट वरी... सब ठीक हो जाएगा.

'विल यू गो अगेन टु इंडिया?'मैंने पूछा
'आई डोंट नो ! लाइफ हैज़ बीन सो अनप्रेडिकटेबल सो फार। आई वांट टू... मेबी वंस माई डाटर ग्रोज अप' 

आइरिन ने मुझसे पूछा - 'यू? विल यू कम अगेन टू ग्रीस?' हाउ डू यू लइक इट?'

'वंडरफुल सो फार. अबाउट कमिंग अगेन... आई डोंट नो. प्रॉबब्ली नॉट बट देन… हु नोस ! फ्यू इयर्स बैक आई वुड हैव नेवर इमेजिनड आई विल एवर कम टु ग्रीस!' 

"यू लूक वेरी काम ऐंड फिल्ड। लेट मी गेस समथींग, यू हैव नेवर बीन इन लव? ऐंड यू हैव नेवर बीन विथ समवन रियली स्टुपिड?" 

"वॉट मेक्स यू थिंक दैट?"

'लव बिकौज…अटैचमेन्ट्स माई फ्रेंड ! दे रूईन एव्रिथिंग -अ मेजर पार्ट ऑफ़ यू. ऐंड… यू हैव नो आइडिया अबाउट फूलिश ऐंड ओब्स्टिनेट पीपल माई फ्रेंड !'

मैंने बस मुस्कुरा दिया... एक शब्द का उत्तर सुझा नहीं और फिर बात लम्बी हो जाती ! 

...
दुनिया के हर कोने में लोगों की कहानी एक जैसी ही होती है। बस कहने और सुनने वाले होने चाहिए। …खोना, पाना, गलतियाँ, संघर्ष, प्यार, सुख, दुःख, जीना सीखना... आइरिन की कई बातें ऐसी लगी जैसे पहले भी कई लोगों के मुंह से सुनी हो। वैसे लोगों के दुःख की बातें भी होती हैं जिन्हें देखकर हमें लगता है - 'इन्हें भला क्या दुख होगा !'प्यार मुहब्बत किसी को इतना कैसे तोड़ सकता है. लगता है जिन्हें कोई दुःख नहीं अचानक वही सबसे अधिक दुखी दिख जाते हैं ! अधुरे...  

आइरिन से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा। बहादुर ! किसी ने कह दिया तो भारत तक चली जाने वाली -गंगा में डुबकी लगा आने वाली. रोमानियन को मदुरै में पा लेने वाली. कई बार मैं लोगों के दुःख सुन अक्सर अपने अंदर खुद से कह देता हूँ  - जिसके पास होता है वही रोता है - 'हसीन दुःख' - पर आइरीन से मिल लगा वो मेरी नासमझी है !  

खैर… मुस्कुरा के बात ख़त्म करते हैं नहीं तो बात  फिर लम्बी  हो जायेगी :)

मेरे पास आइरिन का कोई संपर्क नहीं, न उसके पास मेरा। अच्छी मुलाकातों को 'इट वाज अ प्लेजर मीटिंग यू'पर ही खत्म हो जानी चाहिए।  - …अटैचमेन्ट्स माई फ्रेंड ! 


-- 
~Abhishek Ojha~ 

किसी अपने ने कहा इतनी जगहें गए... ग्रीस ही क्यों? उसी यात्रा पर और भी जगहें थी?
पता नहीं ! वैसे ही जैसे पुणे, बैंगलोर, मुंबई, दिल्ली… ये सब भी तो गया. कई बार… और पटना? एक बार ! :)

... 'ओक्सिटोसिन'क़हत टैटू मोरा

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बात शुरू हुई एक रस-आयनिक टैटू वाले ट्वीटसे - 

Oxytocin Tattoo
इस पर पोस्ट लिखने की बात हुई तो याद आया - चित्र देखकर कहानी लेखन जैसा कुछ होता तो था हिन्दी-व्याकरण की किताबों में। हर व्याकरण की किताब में एक तस्वीर जरूर दी ही होती थी। सारस और लोमड़ी. तस्वीर देखते ही कहानी समझ आ जाती कि दोनों ने एक दूसरे  को कहा होगा - "कभी खाने पर आओ हमारे घर"... आगे की कहानी तो आप समझ ही गए होंगे। हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी है ! दस बटा दस पाने वाले विद्यार्थी को भी तस्वीर दे दीजिये कहानी लिखने को तो वो उसमें भेड़िया, लोमड़ी, सारस ही तो ढूंढेगा? हमने भी बहुत गौर से देखा लेकिन इसमें ऐसा कुछ दिखा नहीं। मोबाइल उल्टा करके देखना पड़ा तब थोड़ा बहुत समझ आया कि ये चित्र है क्या ! 

...बैकग्राउंड पर से ध्यान हटा गौर से देखा तो ये संरचना कुछ तो देखी-देखी सी लगी. ख्याल आया कि ओक्सिटोसिन तो नहीं ? गूगल किया तो ख्याल 'अटेस्ट'हो गया। ओक्सिटोसिन माने प्यार-मोहब्बत का रसायन- लव हार्मोन। अब अनुमान तो यही लगाया जा सकता है कि ये टैटू, ये मुद्रा... 'ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा'टाइप्स प्यार से ही जुड़ा होगा. किसी ने कह दिया होगा - यही है असली केमिकल लोचा तो गोदवा ली होंगी अपनी काया पर ! (टैटू से टैटूवाना क्रिया बने न बने हिन्दी में गोदवाना/गुदवाना ही कहते हैं) या फिर हो सकता है बुद्ध के चार सत्य की तरह अनुभूति हो गयी हो मोहतरमा को - 
इस दुनिया में प्यार ही प्यार है। प्यार का कारण ओक्सिटोसिन है। प्यार को पाया जा सकता है। और फिर प्यार प्राप्ति के अष्टांग मार्ग में एक टैटू गोदवा लेना होता होगा या अभय मुद्रा, धर्मचक्र मुद्रा इत्यादि की तरह प्यार प्राप्ति के बाद की टैटू-मुद्राहोगी ये.

अब हम और सोच भी क्या सकते हैं? हमसे कोई पूछे तो। ...टैटू बनवाने में दर्द भी, पैसा भी और ऊपर से परमानेंट... वो भी एक केमिकल का फॉर्मूला ! हम एक और सवाल पूछ बैठेंगे - मतलब... क्यों? कोई मज़बूरी थी?... मान लीजिये कल को पता चला कि हाइड्रोक्साइड गलत जगह पर लग गया हो, कल को ये भी हो सकता है प्यार पर से भरोसा ही उठ जाये, बेहतर केमिकल का आविष्कार हो जाये तब? दाहिने भुजा टैटू बनाएके बाद अहिरावण की भुजा उखाड़े स्टाइल में कुछ करना पड़ जाएगा. (अगर टैटू भुजा पर हो तो नहीं तो जो भी अप्रोप्रिएटहो)। वैसे भी साइंसका क्या भरोसा ! रिलिजन तो है नहीं... किसी ने कह दिया तो वो शाश्वत सत्य हो गया।  विज्ञान की तो खूबसूरती ही इसीमें है कि सवाल उठाओ! आइंस्टीन को भी गलत कर दिए तो कोई फतवा थोड़े जारी करेगा. उलटे और वाह-वाही होगी। कल का सही आज तक गलत नहीं हुआ तो कल गलत नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं। गलत नहीं भी होगा तो बेहतर सत्य आते रहेंगे !खैर... इतना सोचने वाले टैटू नहीं बनवाते होंगे।

प्यार की बात आती है तो मुझे तुलसी बाबा कि ये बात जरूर याद आती है। बड़ी रोमांटिक लाइन है - 

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

तुलसी बाबा संत आदमी थे। वैसे हमेशा से संत नहीं थे. मैंने तूफ़ान से लड़ते आशिकों को भी तुलसीदास कहे जाते सुना है। नदी पार करने वाली उम्र में होते तो शायद कुछ और कहे भी होते... लेकिन ये बातें उन्होने आत्मज्ञान और प्रभु दर्शन हो जाने के बाद कही। प्रेम का सार, प्रीति-रस इतने में ही है - विशुद्ध बात। पर टैटू से पता चलता है वो ओक्सिटोसिन नामक प्रेम-रस तक सीमित प्रेम की बात है ! लव-केमिकल यानि प्रीति-रसका नाम पता चला टैटू बनवा लिया - प्रीति रसु एतनेहि माहीं. 

खैर... हमने भी ट्वीट का जवाब ट्वीट से दे दिया  - "तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। ओक्सिटोसिन कहत टैटू मोरा।"ट्वीटर पर अक्सर 140 अक्षर में ही बात वहीँ की वहीँ निपट जाती है। पर जवाब के बाद भी पोस्ट की बात बाकी रह गयी। और आप तो जानते ही हैं कि उधार-बाकी ओक्सिटोसिन का एंटीडोट है... (प्रेम उधार की कैंची है का अनुवाद !)

अब बात निकली तो बता दें कि हम भी टैटू एक्सपर्ट रह चुके हैं। मेरे एक मित्र को टैटू टैटूवानाथा - दाहिनी भुजा पर गर्लफ्रेंड का नाम - तमिल में। बिना गर्लफ्रेंड को बताये। तमिल उन्हें खुद आती नहीं थी। समस्या ये थी कि गूगल इनपुट टूल्स पर ज्यादा भरोसा किया नहीं जा सकता। पता चला कुछ और ही गोदवा लिए ! "गोदनाधारी अपने गोदना के लिए खुद ज़िम्मेवार है"टाइप डिस्क्लेमर ना भी हो तो गोदनाहार को तो आप जो देंगे वो तो वही बना देगा। ...रिस्क लेना भारी काम है। जैसे इसी गोदना में... मान लीजिये एक दो हाइड्रोक्साइड गलत जगह पर लग गए और पता चला ओक्सिटोसिन की जगह कोर्टिसोल की तरह काम करने लगा ! केमिस्ट से प्यार होगा तो वो तो पकड़ लेगा कि फार्मूला ही गलत है.

दोस्त-दोस्त के काम आने वाले सिद्धान्त के तहत हमने अपने एक तमिल सीनियर को ईमेल किया। हमारे सीनियर तब हार्वर्ड में थे। बहुत बड़े फिजिस्ट हैं। पर मामला भी गंभीर ही था। गंभीर न भी हो तो अब किसी दोस्त को कल को नोबल प्राइज़ भी मिल जाये तो ऐसा थोड़े न होगा कि पीएनआर कन्फर्म हुआ या नहीं जानने के लिए उसको फोन नहीं करेंगे? (वो बात अलग है कि अब फोन में इन्टरनेट हो गया पर अपने जमाने का डायलॉग मार दिया तो आप दोस्ती के वसूल का मर्म समझ ही गए होंगे)। मेरे सीनियर ने भी इस बात को उम्मीद से कहीं ज्यादा गंभीरता से लेते हुए विस्तृत जवाब भेजा। निष्कर्ष ये था कि वो उत्तर भारतीय नाम तमिल में शुद्ध तरीके से लिखा ही नहीं जा सकता! तमिल भाषा की अपनी सीमाएं हैं। (तभी पता लगा कि त को थ क्यों लिखा रहता है कई तमिल नामो में)। खैर उनके सुझाव के हिसाब से जो सबसे सटीक हो सकता था वो हमारे मित्र ने अपने हाथ पर गुदवा लिया ! गलत नाम गुद जाने के अलावा एक रिस्क ये भी था... जो तनु वेड्स मनु में कंगना ने राजा अवस्थी के नाम का टैटू करा ले लिया था! उसमें उन्होंने हल भी बताया था - सरनेम का टैटू है उसी नाम का  कोई और ढूंढ लुंगी। उनके इस डर से ये बात भी सीखने को मिली थी कि आधुनिक इश्क़ में चीजें 'वैरिएबल'होनी चाहिए - परमानेंट कभी नहीं। लभ लेटर हो या टैटू... पुनः इस्तेमाल होने वाले होने चाहिए। रिसाइकल होने वाले। ओरगेनिक - ग्रीन टाइप्स। - मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।

खैर... ओक्सिटोसिन को वैज्ञानिक प्रेम-मुहब्बत के लफड़े वाला केमिकल मानते हैं। यही वो केमिकल है जिससे उल्फ़त वाला लोचा होता है। माँ के 'माँ'जैसी होने के पीछे भी लोग-बाग इसका होना ही कारण बता देते हैं। और भी कई चीजें - भरोसा वगैरह। दरअसल भोले लोग बहल जाते हैं। इतना आसान होता तो... दो चार सुई घोंप देते(-लेते) इश्क़ कम पड़ने लगता तो. नहीं? दरअसल बस इतना भर है कि किसी न्यूज चैनल वाले को बता दीजिये तो 'गॉड पार्टिकल'की तरह इस पर भी आलंकारिक भाषा में प्रोग्राम कर देंगे -वैज्ञानिकों के ढूंढा लोचा-ए-उल्फ़त का केमिकल। और वो देख बायोलॉजिस्ट-केमिस्ट वैसे ही सर पीट लेंगे जैसे गॉड पार्टिकल पर प्रोग्राम देख फिजिसिस्ट ! इस बात पर कैसी कैसी हेडलाइन बनाएँगे न्यूज बेचने वाले वो आप यहाँ एक ब्रेक लेकर सोच-सोच मुस्कुरा लीजिये। 

ब्रेक के बाद -

ऐसे ही एड्रेनालीन, डोपामिन जैसे कई केमिकल लोग बताते हैं ख़ुशी वगैरह के लिए। पर खुशी, प्रेम... जैसी जटिल चीजों को एक केमिकल में सिमटा देना वैसे ही हो जाएगा जैसे भोले लोग खुशी का फॉर्मूला दे देते हैं - माइनस और माइनस मिला के प्लस बन जाता है। बिल्कुल सही बात है ! पर यहाँ कर्ल-डाइवरजेंस-इंटेग्रेशन-स्टोकास्टिक-अगैरह-वगैरहभी लगा दीजिये तो संभव है कभी खुश हो जाने का फॉर्मूला लिख पाना?

पर जिसने टैटू कराया उससे कह दीजिये कि ये प्यार का फॉर्मूला नहीं है तो बिगड़ ही जाएगा ! भोले लोग हैं...  साइंस, फिलोसोफी, गायक, भगवान, शंख, चक्र, गदा, क्रॉस, चिड़िया, फूल, पत्ती, जो पसंद आये छपवा लेते हैं. किसी ने भेजा था मुझे एक मैथ वाला टैटू...

Math Tattoo 
मैंने कहा - खूबसूरत है ! पर ध्यान भटक जा रहा है। गणित ऐसे तो नहीं पढ़ा जा सकता। और जगह भी कम पड़ गयी है। जगह कम होता देख फ़र्मैट का मार्जिनयाद आ गया। एक महान गणितज्ञ हुए फ़र्मैट, वो लिखते लिखते लिख गए थे एक धांसू प्रमेय। और उसके बाद लिख गए - "मेरे पास इस प्रमेय का प्रूफभी है पर उसे लिखने के लिए ये मार्जिन बहुत कम है"। जो प्रमेय लिख के गए वो गणित का सबसे कठिन सवाल बन गया. सदियों बाद हल भी हुआ तो ७०० पन्नों का हल छपा. गणित के लिए मार्जिनहोना बहुत जरूरी है. बड़ी महिमा गायी है गणित के विद्वानो ने. फ़र्मैट साहब के पास थोड़ा और मार्जिन होता तो गणित का इतिहास शायद आज कुछ और होता ! और इस टैटू में... कालिदास के शब्दों में जिसे "मध्‍ये क्षामा" कहेंगे वहां तो... ना हो पायेगा. 







लीजिये लिखते लिखते एक किताब में मिले मॉडलस-ऑन-मॉडलस वाला आलंकारिक गोदनाभी याद आ गया - मॉडल मॉडल ते सौ गुनी मादकता अधिकाय

Models on Models 
कुछ लोग संस्कृत के मंत्र ही गुदवा लेते हैं। श्लोक के उच्चारण का महत्त्व तो पढ़ा है। गुदवाने का भी कुछ तो फायदा होता ही होगा। नहीं तो कम से कम संस्कृत तो पढ़ ही लेते होंगे थोड़ा बहुत। जैसे केटी पेरी का टैटू देखा तो लगा ये सबसे अच्छा तरीका हो सकता है लोट लकार, प्रथम पुरुषका उदाहरण पढ़ाने के लिए। खट से याद हो जाएगा ! 
और कुछ लोग - अजंता एलोरा के भित्ति चित्र  की तरह पूरा शरीर ही चलता फिरता कला का संग्रहालय बनवा लेते हैं! खैर हमसे किसी ने एक बार पूछा था धार्मिक कुछ बताओ टैटू करवाने को तो हमने कहा था कीर्तिमुख बनवा लो ! 

...टैटू का अच्छा मार्केट है. एक टैटू सलाहकार की दुकान खोली जा सकती है. बढ़िया चलेगा।

अभी ही देखिये बात निकली तो तमिल भाषा की सीमा से लेकर, प्रेम, ओक्सिटोसिन, किर्ति मुख, फ़र्मैट... कितना कुछ है जी जो अभी चर्चा में आ गया। प्रेम और टैटू का तो खैर गहरा संबंध है। 
वैसे... गोदना की डिजाइन के साथ साथ अंग चयन की भी बड़ी महिमा बताई है टैटू-विद्वानो ने :)

(टैटू पर बहुत अच्छा पढ़ना हो तो यहाँ पढ़िये)

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~Abhishek Ojha~ 

...उस पार

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ज्ञान देना (भाषणबाजी) बहुत मस्त काम है।

ज्ञान देने वाला खुद वैसा ही हो या नहीं इस बात से इसका कोई लेना देना नहीं. और फिर गूगल-फेसबुक-ट्विट्टर-विकिपीडिया के जमाने में जिसे देखिये वही घनघोर ज्ञान और संवेदना से लबालब भरा बैठा है. इतना कि उसे छलकाने के लिए मुद्दे-मौके कम पड़ जा रहे हैं ! भाषणबाजी से  याद आया कि जो लोग असल जिंदगी में चंद लोगों के साथ भी ढंग से न रह पाते उनसे अच्छा रिश्तों पर कोई नहीं बोलता ! घर में अँधेरा हो तो हो महफ़िल में चराग-ए-भाषण जरूर जलाते है. और ये तो खैर फैक्ट ही है कि लभ-गुरुबनने का सबसे ज्यादा पोटैन्श्यल होता है असफल प्रेमियों में।

पहले का पता नहीं पर आजकल ज्ञान देते-देते लोग लड़ने पर उतर आते हैं. ये कैसा अद्भुत ज्ञान? ! जैसे कोई कहे.... मैं बहुत अहिंसक हूँ और सामने  वाला  न माने तो उसकी गर्दन ही तोड़ दो - बोला था अहिंसक हूँ ! समझते ही नहीं हों लोग ! और एक लेवल के बाद दोनों ही पक्ष एक दूसरे को मुर्ख करार देते हैं! मुर्ख को उपदेश देना क्रोध को बढ़ाना है, मूरुख हृदयँ नहीं चेत , नेवर आर्ग्यु विथ स्टुपिड पीपल... वगैरह वगैरह कोट तो वैसे ही बरसाती मेंढक हैं इंटरनेट के.  वैसे आप विवाद का हिस्सा नहीं हैं तो कई बार मुश्किल होता है समझ पाना कौन बुद्धिमान वाला पक्ष है कौन मुर्ख वाला। लड़ते हुए देख लेने के बाद लगता है बुद्धिमता और मूर्खता अन्योन्याश्रित हो चली है। अगर आप एक पक्ष के साथ हैं तब तो मुर्ख ऑब्वियस्लीसामने वाला ही होगा।

खैर.. भाषणबाजी सुनकर अक्सर लगता है... कि भाषणबाजी अगर इस पार का काम है तो उसे जीना उस पार का। ज्ञान सुनाने वाले को समस्या हलवा लगती है और संसार बेवकूफ ! वहीँ सुनने वाले को लगता है - मेरी जगह होते तो इन्हें पता चलता ! सही भी है जब तक आप इस पार रहते हैं तब तक उस पार का सोच पाना कठिन सा होता है - एक अलग डाइमेन्शन में सोचने जैसा

पर अक्सर लोग उस पार जाकर भी कुछ ज्यादा सीख नहीं पाते। छात्र जीवन में शिक्षकों को खडूस कहते रहे, शिक्षक बने तो छात्रों को नालायक करार दिया. उस पार गए तो इस पार का भूल गए - याद नहीं रहती खुद की अनुभव की हुई सारी बातें। डिस्टोर्टेड वर्जन याद रह जाता है। वैसे भी जो झेल चूका होता है उससे उम्मीद करना कि जो आप झेल रहे हैं वो बेहतर समझेगा तो आप भोले हैं - मैं ही नहीं कह रहा बड़े लोग भी ऐसा कह रहे हैं  - It’s Harder to Empathize with People If You’ve Been in Their Shoes

 - भाँति-भांति के लोग !

...भूमिका ख़त्म. बात पर आते हैं।

ज्ञान के नाम पर गर्दन तोड़ देने वाली चीज देखने को मिली पिछले दिनों। न्यू यॉर्क में एक प्रतियोगिता हुई जिसमें कई विश्वविद्यालयों के पढ़ने लिखने वाले छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया। (यहाँ ध्यान दीजिएगा कि सारे छात्र पढ़ने लिखने वाले नहीं होते हैं - दंगा, धरना-प्रदर्शन, मार पीट, लफंगई  वगैरह वगैरह करने वाले भी छात्र होते हैं) न्यू यॉर्क ही नहीं छः-आठ घंटे दूर तक से छात्र छात्राएं आए थे...  (कभी कभी दूरी में वजन डालने के लिए उसे घंटे में भी नाप दिया जाता है)। छात्रों को एक 'केस'सोल्वकरना था-एक कंपनी का केस।

अब छात्र माने बैचलर से पीएचडी तक। कुछ बिलकुल ही नवा-नवा कॉलेज में नामांकन कराये ... जिन्होंने कभी जेब खर्च के लिए भी नहीं सोचा होगा कि कहाँ से आ रहा है कहाँ जा रहा - उन्हें भी उसी केस के बारे में सोचना था। जिसके बारे में एमबीए, पीएचडी वाले भी सोच कर आए थे। पाँच-सात साल अनुभव वाले भी थे!  बोली भी अंग्रेजी होते हुए भी सबकी अलग (वैसे बहुमत - चाइनीज अंग्रेजी) । फिर ऐसे भी थे जो जबान से दनादन 'जार्गन'उगलते हैं - प्रति मिनट सौ-डेढ़ सौ की रफ्तार से - भले उसका केससे कोई लेना देना नहीं हो। वैसे मुझे लगता है दुनिया में मैं अकेला तो नहीं ही होऊंगा जिसे मीटिंग, कॉन्फ्रेंस में काम के बात की जगह 'जार्गन'की दवनीहोता सुनकर लगता है... छोड़िए फिर कभी :)

बहुत मेहनत की थी सबने... लेकिन प्रेजेंट करने वाला जैसा भी हो 'जज'(अक्सर) होता है - बेशर्म - भाषणबाज -  ज्ञान झाड़ने वाला- गर्दन तोड़ने वाला अहिंसक। सवाल पूछने से पहले ये भी नहीं सोचता कि... जिसे क, ख, ग ढंग से नहीं पता हो उससे उपनिषद एक्सप्लेनकरने को कहना - मतलब क्यों? ! ... जज का एक काम शायद सामने वाले को बेइज्जत करना भी होता है! वो प्रजेंटकरने वाले से प्यार से बात नहीं कर सकता।

मुझे उस पार ...यानी जज वाले साइड बैठना था. मेरे बगल में बैठे एक सज्जन बार बार - "व्हाट द [अगला शब्द आप समझ ही गए होंगे]" - और बार बार टीम्सके किये कराये को "[बैल का गोबर]"करार दे रहे थे। खैर इट्स कूल टु टॉक लाइक दैट दीज डेज। मैं उस पार बैठने वाला नवा-नवा मैं क्या ही बोलता ज्यादा कुछ.  सोचा पूछ लूँ - "आपको उस उम्र में पता था कि जो पढ़ रहे हो वो इंडस्ट्रीमें इस्तेमाल नहीं होता?"फिर ये सोच रहने दिया कि हो सकता है वो अभिमन्यु रहे होगे !

हमारा दिल पिघल रहा था.. हम उस पार होके भी नहीं थे. हम सोच रहे थे किस किताब की लाइन उठा के लाये हैं... जो बोल रहे हैं वैसा क्यों बोल रहे हैं? कहाँ से सीखा होगा? हंसी नहीं आई मुझे कॉपी-पेस्टीय अनभिज्ञता पर - जहाँ हो सकता था ज्ञान से प्रभावित जरूर हुआ। पता तो वैसे भी चल ही जाता है जो रट के बोल रहे होते हैं ...जिनका मतलब भी नहीं पता उन्हें ! पर मैं ये सोच रहा था कितनी मेहनत की है एक एक शब्द पर...  कितना तैयार होकर आए हैं... बाहर गया तो देखा... लड़के-लडकियां रट रहे थे टहलते हुए। आखिरी मिनट तक।  स्लाइड देख कर न बोलना पड़े... सूट, जूते, घड़ी, बाल... सब एक दम चकाचक। एक बाल इधर की जगह उधर नहीं... जैसे चमको छाप डिटर्जेंट के एजेंट हों ! कब स्माइल करना है, कैसे अभिवादन करना है. कब तक किसे बोलना है. हमें अपने दिन याद आ रहे थे - प्लेसमेंट सीजन के पहले दो चार लोगों को छोड़ दें तो सूट और जूते क्या बेल्ट भी उधार का होता था - "अबे जल्दी जाओ तैयार होके... आधे घंटे में इंटरव्यू है"। खबर हॉस्टल में आती तो लोग अभियान शुरू करते कपड़े ढूंढने का..."..."अबे जल्दी जाओ, इसी के ऊपर पहन लो !"। कितनी बार सब कुछ आते हुए भी नहीं बोल पाना...

मैं ये भी सोचता रहा कि किसका बैकग्राउंड क्या होगा। उनसे पूछ भी लिया   - सही ही सोचा हर बार। फाइनन्स, मैथ, कम्प्युटर साइंस, एकोनोमिक्स, मार्केटिंग... फर्क दिखता है कौन क्या पढ़ा है। कौन कैसे तर्क देता है. किसने कितनी मेहनत की है वो भी दिखता है। हमेशा एक दो टीम ही बहुत अच्छी होती है... वो ऐसे ही दिख जाता है। पर एक बात मुझसे देखी नहीं जा रही थी  - जजों द्वारा तौहीन ! - [बैल का गोबर]

एक दो ग्रुपसे सवाल पूछे जाने के बाद लड़के-लड़कियों की शक्ल देखने लायक हो गयी ! घोर हताशा... जैसे एक पल में सारी मेहनत चली गयी हो ! दिल टूटता हुआ दिखता है चेहरे पर। उम्मीद का टूट जाना. बोलने से पहले काँपती है आवाज। गया सब कुछ... करुणा टाइपका हो जाता है।  ...उनका गला सुखने लगा हो जैसे... और मेरे बगल में बैठे सज्जन ने भकोसी हुई कुकी को कॉफी से गले के नीचे उतारते हुए कह दिया  - [बैल का गोबर] - राम राम !

मैं सोच रहा था क्या चल रहा होगा उनके दिमाग में वैसे सवाल पर जो उन्हें ढंग से समझ भी नहीं आया?

- क्या होगा इसका सही उत्तर? सुना हुआ तो लग रहा है... जैसे दिमाग के सारे न्यूरॉन एक साथ चमक गए हों... - ओह ! तो ये बोलना था? आसान था यार पर समझ ही नहीं आया। ...क्या पूछ रहा था यार वो मैंने तो कभी सुना ही नहीं था... फिर से सवाल रिपीटकरने को बोला तो जो थोड़ा बहुत समझ आया था वो भी हवा हो गया. विनिंग टीमको देखा तुमने? अबे यार इतने सीनियर लोग आएंगे तो क्या ही होगा। लेकिन क्या ही प्रेजेंटेशन था यार उनका - फ्लॉलेस! हमने तो कुछ किया ही नहीं। मुझे तो अब सोच के ही शर्म आ रही है, हम क्या ही बोल रहे थे ...हम कहीं नहीं टिकते। अबे यार पर उस खडूस जज को कुछ नहीं आता ! पता नहीं किसने बना दिया उसे जज।  कितना समझाया मैंने उसे... उसे समझ ही नहीं आया कि हमने किया क्या है। पता नहीं क्या पूछ रहा था। उस बात का  इस केस से क्या लेना देना ?- पकड़ के बैठ गया एक ही बात। इतना कुछ किया था किसी ने कुछ सुना ही नहीं, सब बेकार हो गया! हड़बड़ी में जो एक कोटरट के गया था वो तो बोल ही नहीं पाया। छोड़ यार अब... ...वैसे हमारा तो उनसे अच्छा ही था... मेहनत तो की ही थी हमने. बस लटके झटके अच्छे थे उस टीम के  हमने कितना काम किया था।  उन्होने तो कुछ किया भी नहीं और जीत गए.

हमेशा अंत में बात यहीं रुकती है... एक टीम का प्रेजेंटेशन अच्छा था और एक का काम अच्छा था। और एक टीम हमेशा होती है जो अच्छी होकर भी नहीं जीतती।... मेरा दिल और वोट हमेशा उनको जाता है। ये अनुभव हुआ कई बार... पहले भी और इस  बार भी.

खैर... बात जब दूसरे पार की हो तो थोड़ा मुश्किल भी होता है समझना... जैसे मान लीजिये पढ़ाने वाला निश्चय कर ले कि मैं किसी को फेल नहीं करूंगा और ये कि... जिसे मन हो वो पढे नहीं तो क्लास आने की जरूरत नहीं है। पढ़ाने वाले को लगेगा कि इतना रोचक है, मैं इतना अच्छा समझाता हूँ... कैसे नहीं पढ़ेगा कोई ? और स्टूडेंट को लगे... अबे एक दम गाय है प्रोफेसर... एक दम कूल। इस कोर्स में कोई टेंशन नहीं... दूसरा वाटलगा देगा उसीका पढ़ते हैं !

पटना में राजेसजी से हुआ वार्तालाप याद आया - मैंने कहा था- ‘जूनियर इम्प्लोयीसे बड़े बुरे तरीके से बात करते हैं वो. प्यार से बात करने से सब काम हो जाता है लेकिन….’
‘अरे नहीं सर ऊ त ठीके है. बिना उसके इहाँ काम चले वाला है? इहाँ नहीं चलेगा आपका परेम-मोहबत. आप नहीं समझेंगे यहाँ का मनेजमेंट… यहाँ परेम देखाइयेगा त जूनियर एम्प्लाई आपका बेटीओ लेके भाग जाएगा’।...एक ये पहलू भी है जो अनुभवी लोग बताते हैं, मैं सहमत होऊं या नहीं!

 ...खैर अंत में हुआ यूं कि उस पार  बैठे हुए भी मेरी इस पार वालों से खूब दोस्ती हुई. भाषणबाजी ही कहेंगे पर मैंने जो टीम रोने-रोने सी हो गयी थी और वो एक टीम जो अच्छी होकर भी नहीं जीतती। उनसे बहुत देर बात की... अच्छा अनुभव रहा. बहुत कुछ सीखने को मिलता है खासकर उस पार बैठने पर जब आपको हार जीत की फ़िक्र नहीं होती !

और सबसे अंत में हुआ यूँ कि... किसी ने एक फोटो शेयर की कैप्शन था - 'विनिग टीम विथ जजेस'... उसमें एक चेहरा हमारा भी था. हमें विनर होने के बधाई के कुल छःमेसेज आये । हमविनरतो थे नहीं ...उस पार वाले हो चुकने के बाद यही सोच खुश हो लिए कि... शायद हमारी त्वचा से हमारी उम्र का पता ही नहीं चलता होगा ! :)

~Abhishek Ojha~


ग्रीक म्यूजिक (यूनान ३)

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यादें धुंधली पड़ती जाती हैं. अच्छी-बुरी सब. कुछ यादें स्थायी जैसीहोती तो हैं - पर स्थायी नहीं. कुछ उड़ते समय अवशेष छोड़ जाती हैं - रसायन में जिसे अवक्षेप कहते हैं - प्रेसिपिटेट. जिन बातों के होते समय लगता है कि ये अनुभव तो कभी नहीं भूल सकते - सवाल ही नहीं उठता ! ... वो अनुभव भी धुंधले हो ही जाते हैं - एवरी एक्साइटमेंट हैज अ हाफ लाइफ !  

कई बार खुद की डायरी में लिखे नोट्स पढ़ते हुए लगता है कि लिखना क्या चाहा था? लिखावट उतनी बुरी भी नहीं कि खुद का लिखा न पढ़ पाएं पर लिखते समय अक्सर बस एक दो शब्द लिख जाता हूँ...  क्योंकि उस समय तो ऐसा लगता है जैसे ये घसीट कर लिखे हुए शब्द देखते ही सब कुछ आँखों के सामने घूम जाएगा. पर बहुत दिन बीत जाए तो कई बार खुद ही नहीं जोड़ पाता उन शब्दों को !  डायरी पलटा तो  "ग्रीक म्यूजिक? :)"सिर्फ इतना ही लिखा है एक पन्ने पर. पर ये दो शब्द बहुत हैं याद दिलाने को कि हुआ क्या था. वैसे यात्रा में जो बुरे अनुभव होते हैं वो याद रह जाते हैं कोई बचकानी हरकत, कोई समस्या, शर्मिंदगी, फँस जाना - वगैरह. ऐसी बातें हर यात्रा में होती हैं. और जैसे जिंदगी का हर सपना पूरा हो जाने के बाद ओवररेटेड लगने लगता है, वैसे ही हर उलझन से निकल जाने के बाद वो परेशानी हलवा लगती है और हम बाद में उसे चाव से सुनाते हैं. वैसे ये बहुत छोटी सी बात थी.

कहीं जाने के पहले बजट-टाइम कन्स्ट्रेन्स के साथ सोचना पड़ता है कि कहाँ-कहाँ जाएँ. गूगल अपनी जगह है पर किसी जगह के बारे में वहां के लोगों से पूछो तो वो बड़ी ख़ुशी से बताते हैं. किसी को उसकी 'अपनी'जगह के बारे में बताते हुए सुनने में एक अलग खूबसूरती होती है. इतनी ख़ुशी और गर्व होता है बताने वाले के चेहरे पर कि...

मुझे भी एक ग्रीक-दोस्त ने जगहों का विस्तृत ब्यौरा पहले बताया फिर लिखकर भी भेजा. कहाँ जाना, क्या देखना, कहाँ रुकना, क्या खाना, क्या करना, क्या नहीं करना... पर उसने सब कुछ कुछ इस तरह बताया मानो ऑप्टिमाइजेशन बिना किसी कन्स्ट्रेन सोल्वकरना हो. बजट और टाइम की फ़िक्र किये बिना !  मुझे उनका विस्तार से बताना और फिर काट-छांट के बनायी गयी यात्रा ! ऐसे याद रहा कि कुछ दिनों पहले जब किसी ने मुझसे पूछा 'भारत देखने के लिए कितने दिन चाहिए'. तो मुझे समझ नहीं आया क्या जवाब दूं. बताने बैठो तो पुराण लिखना पड़ जाए. मैंने कहा 'सवाल गलत है - तुम बताओ तुम्हारे पास कितने दिन हैं और तुम्हें कैसी जगहें पसंद हैं'. ये बात दुनिया के हर जगह के लिए सच है. मुझे नहीं पता लोग कोई भी देश या पूरा यूरोप कैसे देख आते हैं एक सप्ताह में। ग्रीस में भी दो सप्ताह जैसी समय सीमा में बहुत कम देखा जा सकता है. जगहें भी अलग अलग तरह की. हर कदम - इतिहास और मिथनहीं तो प्राकृतिक खूबसूरती - क्या देखें-क्या छोडें ! फिर जैसे कोई पूछे कि... गोवा के अलावा कहाँ कहाँ जा सकते हैं भारत में. तो अक्सर हम कहेंगे ही कि... 'और भी अनगिनत अच्छी जगहें हैं ! गोवा खुबसूरत है - पर उससे भी अच्छी जगहें हैं'. एक ही जगह के लिए - 'इट्स अ मस्ट सी'से लेकर '... 'वी हैव बेटर प्लेसेस...'जैसे सुझाव दिए थे लोगों ने. पर कुछ जगहें हर लिस्ट में निर्विवाद थीतो वहां जाना ही था! -जब बहुत सारे कंस्ट्रेन हों तो कॉमन मिनिममएजेंडा टाइप कुछ निकल ही आता है.

मिथ और खंडहरों से भरा पड़ा है ग्रीस - संरक्षित और जानकारी से भरपूर. ग्रीक के द्वीप दुनिया के सबसे खुबसूरत द्वीपों में आते हैं. ये दो सबसे बड़े कारण हैं जिससे ग्रीस हर साल अपनी जनसँख्या के दोगुने से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है. इसके बाद भी अर्थव्यवस्था... :)  इकॉनमी फिर कभी.

अगर आप कहीं घुमने जा रहे हैं तो कोई होना चाहिए जो आपको खंडहरों से खींच कर खूबसूरत जगहों पर भी ले जाए. और अगर आप खुबसूरत जगहों के शौक़ीन हैं तो कोई चाहिए जो आपको खींच कर खँडहर और संग्रहालयों में ले जाय. समुद्र-झील-पहाड़-घाटी श्रेणी की खुबसूरत जगहें प्रेमचंद की कहानियों की तरह होती हैं - सदाबहार -सुपरहिट. मुझे अब तक कोई नहीं मिला जिसे पसंद न हो. पत्थरों, खंडहरों और म्यूजियम कुछ लोगों को ही पसंद आ पाते हैं 'घुमने जाते हो कि पढने?'टाइप के लोग. अपनी-अपनी पसंद. और बहुत प्रसिद्द जगह हो तो भी ये जरुरी नहीं कि वो वहां के निवासियों की भी पहली पसंद हो. कई जगहें पर्यटकों के लिए खूब विकसित की गयी हैं . सब कुछ वैसा ही जैसा पर्यटकों को चाहिए - एक तो खूबसूरत ऊपर से सिंगार !  - संतोरिणी.

यूनान - डेमोक्रेसी, रोमन लिपि, गणित, दर्शन, खगोल, ट्रेजेडी, कॉमेडी, खेल, युद्ध, जीयस, वीनस, अपोलो, ओरेकल, अगोरा, अकिलीस, ओडीसस, सिकंदर, पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, ओलंपिक, मैराथन, काठ का घोडा  - अनगिनत - पश्चिमी सभ्यता का सबकुछ. पढ़ते रहो तो ख़त्म न हो घूमते रहने से कहाँ हो पायेगा !

खैर.. लोगों से उनके देश के बारे में पूछने से होने वाली ख़ुशी की ही तरह एक और ख़ुशी होती है  जब आप उस देश की भाषा (अंग्रेजी छोड़कर) बोलने की कोशिश करते हैं. टूटी फूटी ही सही. मुझे ग्रीक नहीं आती पर...  मैंने बस स्टैंड पर जोड़-जाड के पढ़ा ΚΤΕΛ क्टेल? Δρομολόγια - डेल्टा-रो-ओ-म्यु-लैम्ब्डा-गामा-आयोटा-अल्फा - ड्रोमो... ड्रोमो-लोगिया.... ड्रोमोलोग्या ?

'यू स्पीक ग्रीक?'

मैंने कहा नहीं... पर अक्षर पढ़ लूँगा (इस कार्टून की तरह) - ग्रीक लिपि में
एक अक्षर नहींजो गणित-विज्ञान में इस्तेमाल न होता हो - एक भी नहीं. सिग्मा, थीटा, अल्फा, बीटा, पाई, टाऊ, ओमेगा... वगैरह वगैरह. ग्रीक लिखा हुआ देखकर लगता है किसी नौसिखिये ने फार्मूला लिखने की कोशिश की है. और सारे सिंबलकी खिचड़ी बना दी है. पता नहीं बस स्टैंड पर खड़े उस आदमी को पता था या नहीं कि दुनिया में कहीं भी मैथ-फिजिक्स-इंजीनियरिंग के सिंबल ग्रीक अक्षरों में ही लिखे जाते है. पर वो खुश बहुत हुआ. उसने बताया - कटेल यानि बस. और द्रोमोलोग्या माने टाइम टेबल. मुझे ग्रीक पढने में मजा आता. जैसे नया नया पढ़ना सीखे बच्चे सब कुछ पढ़ डालते हैं - बिना मतलब पता हुए. सारे अक्षर पहचान के थे, मतलब कुछ नहीं पता था. κέντρο मैंने एक बोर्ड देखकर पढ़ा - केंत्रो. टैक्सी वाले ने सुधारा -  केद्रो जैसा कुछ कहा उसने. मतलब बताया सेंटर. तब चमका मुझे - केन्द्रो-केंद्र-सेंटर. यूँही तो नहीं हो सकता एक ही शब्द. ॐ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती. नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरू टाइप लगा ॐ संस्कृते च ग्रीके चैव लैटिनं ... टाइप कभी रहा होगा. वीनस सरस्वती हों न हों, इंद्र जीयस हो न हो... केंद्र तो केंद्र होगा ही ! यहाँ से वहां गया हो या वहां से यहाँ आया हो.

 'ग्रीक म्यूजिक?' - इन दो शब्दों में छुपी कहानी पर वापस आते हैं.  इटरनल, स्पिरिचुअल,खुबसूरत - वगैरह वगैरह कैप्शनवाली जगहें हम भूल सकते हैं पर ऐसे अनुभव नहीं. हुआ यूँ कि इतिहास-खँडहर-पत्थर वाले इंसान को 'व्यू'वाली हाई-फाई जगहों का अनुभव तो वैसे ही नहीं. तो ऐसी जगह जाने पर हर चीज देखकर हम मान लेते हैं -  बड़े लोग हैं  ऐसा ही करते होंगे !  और फिर जितनी सभ्यता-शिष्टता से अपने आप को समेट कर रख सकते हैं रखते हैं. तो ऐसा ही कुछ हुआ एक बड़े लोगों वाले रेस्टोरेंट में. मद्धम मद्धम रौशनी. अभी अभी सूर्यास्त हुआ था. व्यू के साथ सिंगार-पटार वाली जगह. दो संगीतकार टाइप के लोग संगीत बजा रहे थे. अब अच्छा संगीत तो वैसा होता है जो सबको ही अच्छा लगता है. कोई भी बाजा हो - देश-काल-भाषा के इतर. अच्छा संगीत बस अच्छा संगीत होता है.  हमें भी बहुत अच्छा लग रहा था. नाचने-गाने-थिरकने वाली कैटेगरी वाले तो नहीं हैं पर बैठे बैठे पैर वैसे हिल रहे थे.. जैसे हिलाने पर डाँट पड़ती है - 'पैर मत हिलाओ'. थोड़ी देर में वो घूम घूमकर बजाने लगे. हमें देख उन्हें शायद कुछ ज्यादा अच्छा सा लगा होगा. स्पेशल टाइप. सो वो आ गए हमारे टेबल के पास.  बजाने लगे... हम बहुत खुश हुए. माने... बता नहीं सकते. हर टेबल से तुरत ही चले जाते। हमारे यहाँ जम से गए. हम विडियो भी बनाए. ताली भी बजाये. वो भी एक दम लीन होकर  भाव भंगिमा के साथ बजाये. फिर उन्होंने फरमाइसी संगीत का कार्यक्रम टाइप भी किया और पूछा - 'ग्रीक म्यूजिक? ग्रीक म्यूजिक?'सर हिलाते हुए - सिर्फ दो शब्द। और सर ऐसे गिरगिट की तरह हिलाते रहे...  मानों उनको उतनी ही अंग्रेजी आती हो जितनी हमें ग्रीक.

हम भला क्यों मना करते !

थोड़ी देर बाद हमें लगा अब कुछ ज्यादा हो रहा है. हमारे पास ही ये क्यों बजाये जा रहे हैं ! उनकी मुस्कान भी तल्लीनता से लेफ्ट टर्न लेकर इस मुद्रा में आ गयी थी कि ...वो भी कुछ वैसा ही सोच रहे थे जैसा हम. तब मुझे पहली बार लगा कि इन्हें कुछ देना होगा. तब लगा कि शायद बाकी जगह लोगों ने उतना भाव नहीं दिया या तुरत कुछ दे दिया होगा ! इन दो बातों का उनका इतनी देर तक बजाने और इतने अच्छे से बजाने में जरूर ज्यादा योगदान रहा होगा. हम कितने स्पेशल लग रहे थे वो दिल बहलाने का ग़ालिबी  ख्याल साबित हो गया. खैर ये कोई बात नहीं जो याद रह जाए... बात तब हुई जब हमने जेब टटोला.

जेब खाली तो नहीं थी पर...

ग्रीस हम गए थे ये सोच कर कि - यूरोप है ! हर जगह कार्डचलेगा. ग्रीस ऐसा है कि एक तो कार्ड कोई नहीं लेना चाहता (कैपिटल कण्ट्रोल भी था तब पर लोगों ने बताया कि बिना उसके भी यही हाल रहता है). जहाँ कार्ड लेते भी वहां - कार्ड से इतना, कैश से उतना का हिसाब. और ये उतना इतने से हमेशा कम. अब दुनिया का कोई भी कोना हो दिमाग एक्सचेंज रेट लगा तुरत जोड़-घटाव कर लेता है  कि कितना घाटा-फायदा हो रहा है. तो हमने उसी शामकैश तो निकाल लिया था. लेकिन 'जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि'की तरह हमारे  पास १०० यूरो से नीचे कुछ था नहीं. अमेरिका में २० डॉलर से ज्यादा के नोट कभी एटीम से निकलते देखा नहीं. या कभी सौ से ज्यादा कैश निकाला हो ये भी याद नहीं. भारत होता तो वैसे ही कोई जुगाड़ निकल आता. खैर... ऐसे मौके पर दिमाग तुरत हिंदी पर आ जाता है. जीटा-थीटा थोड़े करोगे आपस में अब. हमने अपने साथी से पूछा तो वहां भी यही हाल था. हाथ में वॉलेटलिए.. अब हम बेशर्मी वाली मुस्कान के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे. छुट्टा भी नहीं पूछ सकते थे -कलाकार की बेइज्जत्ती हो जाती. हमने एक बार मुस्कुराया.. वो दोनों जो एक वायलिन सरीखा और एक कोई ग्रीक बाजा लिए थे.. मेरे हाथ में बटुआ देख और जोश में बजाने लगे. वो हमें देख मुस्कुराते, हम उन्हें.. ये सिलसिला कुछ देर तक चला. माने हमारे ऊपर थोड़ी देर तक पानी पड़ा जब तक उन्हें समझ आया... अब उन्हें जो भी समझ आया हो.  थोडा बहुत हमें भी समझ आया और हम उठकर काउंटर पर छुट्टा पूछने गये. पर वो अपनी समझ से दूसरी तरफ निकल लिए. मुझे लगा वो इसी  रेस्टोरेंट में काम करते होंगे पर वो निकल कर चले ही गए. माने अब... हम लिखने में इतने सिध्हस्त तो हैं नहीं कि वोसीनलिख सके. यूँ समझ लीजिये... दोनों पार्टियों की ख़ुशी परवर्तित हो रही हो दिमाग की झुंझलाहट में और चेहरे पर मुस्कान बनी रहनी चाहिए! बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ. तो कैसा दृश्य रहा होगा. इससे ज्यादा मैं नहीं लिख सकता. :)

आप  कहेंगे ये भी कोई सोचने की बात हुई.. उनसे अब कौन सा फिर से मिलना है. पर वो क्या है न कि... इवोल्यूशनरी साइकोलॉजीकहती है... किसी और पोस्ट में.

ये पोस्ट भूमिका में ही ख़त्म होने की सी लंबाई को प्राप्त हो गयी !

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~Abhishek Ojha~


...उसको जल जाना होता है !

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पिछली पोस्टख़त्म हुई थी ... इस बात पर कि हमें क्यों फर्क पड़ता है ऐसे लोगों के सामने भी जो न तो हमें जानते हैं, न ही हमें उनसे कभी दुबारा मिलना होता है. एवोल्यूशनरी साइकोलोजी पढने से ऐसे सवालों का उत्तर मिलता है. वैसे एक मजेदार बात ये है कि... ये एक ऐसा विषय हैं जहाँ हर सवाल का एक ही उत्तरहोता है. कई बार ऐसा लगता है जैसे.. उत्तर पता है और बस फिटकरना है उसे... आप सवाल तो ले आओ !

एवोयुश्नरी साइकोलोजीके अलावा बिहेवियरल इकोनॉमिक्सभी ऐसा ही विषय है. जो पढने-सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं. इसलिए भी कि... जिन बातों का हमारे पास आसान सा उत्तर नहीं होता.. उनका बिन दिमाग खपाए एक सरल उत्तर मिल जाता है. भले समझ के यही समझ में आये कि इस समझ से कुछ फायदा होना नहीं है. समझ से सिर्फ दूसरों को ज्ञान दिया जा सकता है. ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं.समझ कर खुश हुआ जा सकता है कि हमें समझ में आ गया कि दुनिया ऐसी क्यों है. भले ही समझ के हम फिर वही काम करें - 'शिकारी आयेगा जाल बिछाएगा'... क्योंकि ये पढ़ कर समझ यहीं पंहुचती है कि - हमें खुद नहीं पता हम क्या कर रहे हैं. खूब सोचा तो यही सोचा के सोच के कुछ नहीं होना !

खैर - एवोल्युश्नरी साइकोलोजी के हिसाब से हर बात का उत्तर होता है - '... क्योंकि हमारे पूर्वज कभी शिकारी-संग्रहकर्ता (हंटर-गैदरर) थे जो कबीलों में रहते थे.' - हर समस्या-उत्सुकता का एक ही उत्तर - सरल सपाट. ऐसे सोचिये कि अगर हम आज भी शिकारी-गुफा-कबीला युग में रह रहे होते तो क्या करते? गुस्सा.नफरत.प्यार. आलस.आतंक.दोस्त.दुश्मन.गर्व. कब, क्यों और कैसे ! - माने सब कुछ. हम कब कैसा बर्ताव और महसूस करते हैं और क्यों !  उस समय सबसे जरूरी क्या था? सबसे अधिक क्या चाहिए था? सबसे अधिक डर किस बात का था? तब जीवन के लक्ष्य क्या थे?

उस युग की वो बातें फिटहैं हमारे अन्दर. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं. कोई नहीं भी हो सिखाने वाला तो भी बहुत कुछ जीवों में इनबिल्टही आता है.  हँसना-रोना से लेकर ऐसा पाया गया कि जिन्होंने कभी बचपन से सांप नहीं देखा-सुना.. वो भी पहली बार जब सांप देख ले तो डर जाते हैं. लडकियां मकड़ी, छिपकली, तिलचट्टा वगैरह से ज्यादा डरती हैं. वगैरह. वगैरह. बहुत काम किया है लोगों ने इस क्षेत्र में. लेक्चर नोट्सथोड़े न है जो सब रेफेरेन्सके साथ  लिखा जाय. एक लाख २५ हजार सालों से भी अधिक समय से हमारा विकास चल रहा है. संभवतः एक लाख साल तक हम शिकारी-गुफा वाला जीवन ही जीते रहे. सब ठीक चल रहा था. विकासवाद के हिसाब से अभी दस हजार साल भी नहीं हुए खेती का आविष्कार हुए. फिर इन दस हजार सालों में सभ्यता के विकास का पहिया ऐसा घुमा कि... धड़ाधड़ एक के बाद एक विकास होते गए... विज्ञान... गाड़ी, बिल्डिंग, फैक्टरी...सैटेलाईट. एटम बम, फ़ोन, इंटरनेट. सभ्यता कहाँ से कहाँ पंहुच गयी. लाखों सालों में धीरे धीरे बढ़ने वाले हम दस हजार साल में कहाँ से कहाँ आ गए. माने भगवान का बनाया उनके हाथ से निकल गया. प्रकृति ने सोचा था कि उसी रफ़्तार से चलेगी सभ्यता. उस हिसाब से हमें तैयार किया... नेचुरल सेलेक्शन। फिर तुम्हारी है तुम्ही संभालो ये दुनिया कह के बनाने वाला निकल लिया.

कहने का मतलब ये कि...

हमारी जो बायोलोजीहै वो बहुत धीमी गति से सीखती और बदलती है... पर दुनिया बदल गयी - सभ्यताएं बदल गयी. हमारे अन्दर की वायरिंगवैसी ही रह गयी. कायदे से दोनों को एक साथ चलना था पर एक घोघा की चाल से चला और दूसरा चीते की चाल. हमारे शरीर और दिमाग का बहुत कुछ अब भी तकरीबन तीस चालीस हजार साल पहले के हिसाब से काम करते है. उसी हिसाब से सोचते है. उसमें वही फिटहै जो हमारे लिए उस युग में सही होता. माने अब जा रहे हैं और सामने शेर दिख गया तो दिमाग ने फिट कर दिया ... सोचो मत. पहले भाग लो, उसके बाद सोचना. पका फल देखा तो वायरहुआ ये रंग हमारे लिए अच्छा है. जिससे दुर्घटना हुई उससे डरना सीखाया. औरत को माँ बनना होता है तो उसे किस चीज से डरना चाहिए. उसे कब कैसा सोचना चाहिए. पुरुष का प्यार कब चरम पर होगा औरत का कब. वगैरह वगैरह.  उस जमाने की वायरिंगका दो बड़ा काम था..  'मरो मत और कुटुंब बढाओ' - सर्वाइवल एंड रिप्रोडक्शन! जो सीखता गया बचता गया और बढ़ता गया. इसके लिए समय के हिसाब से जो हो सकता था धीरे धीरे प्रकृति ने इंसान में बनाया. क्या देख खुश होना है. क्या देख डरना है, कब गुस्सा करना है. कब भागना है. कब अपने कबीले को बचाना है. कैसे पार्टनरकी ओर आकर्षित होना है. उसमें क्या देख के आकर्षित होना है. कब तक होना है. कौन से अंग-रंग-रूप-अदा-ज्ञान. कौन अपना है. कौन पराया. सब की वायरिंग की. माने हमें लगता है हम दिमाग लगा रहे हैं उधर न्युरोंस प्रोग्रामकर दिए गए हैं धड़ाधड़ देख के फैसला कर लेने को.

इस बीच सभ्यता इतनी आगे बढ़ गयी कि... अब उनमें से कई चीजों की जरुरत नहीं रही - जैसे सर्वाइवलका मतलब अब कुछ और है. अब हम गुफों और जंगलों में नहीं रहते. अब जंगली जानवर नहीं होते. कीड़े-मकोड़े-इत्यादि. पर हम व्यवहार अब भी वैसे ही करते हैं. हमारी वायरिंग को नहीं पता कि अब उसकी जरुरत नहीं. उसे नहीं पता कि अब किसी और कबीले का आदमी है तो उससे कभी नहीं मिलना. तो अगली बार कोई ओवरटेककरके जाए तो आपको गुस्सा आना लाजिमी है. वायरिंग सोचेगी कि दुसरे कबीले का आकर ऐसे करके चला जाएगा तो अगली बार फिर आएगा, उसे सबक देना चाहिए ! हमारे दिमाग को नहीं पता कि दुनिया यहाँ आ गयी है कि कबीले की जगह फेसबुक से जुड़ गए हैं लोग. वैसे ही वो डिप्रेसहो जाता है क्योंकि उसे लोग चाहिए... घर, सामान, गाडी, घोड़े का भूखा नहीं है वो.. उसके लिए वायरहोने में अभी कुछ हजार साल और लगेंगे. इसे इरेशनल बेहवियरकह लें या चेतना जैसा कुछ... हम एक हद तक गुलाम है उस प्रागैतिहासिक वायरिंगके. जो हमें खुद भी नहीं पता. फेमिनिस्टमाफ़ करेंगे लेकिन दिमागी वायरिंगकोफेमिनिस्टआन्दोलन का नहीं पता ! पुरुष पुरुष की तरह क्यों होते हैं और महिलाएं महिलाओं की तरह क्यों होती है - उसके भी कारण हैं.फेमिनिस्ट और एवोल्यूशनवालों की कभी ठनती कैसे नहीं है? ठनती भी होगी शायद मुझे पता नहीं.

छोडिये... ये तो सुना ही होगा आपने - 'शमा कहे परवाने से... वो नहीं सुनता उसको जल जाना होता है. हर खुशी से, हर ग़म से, बेगाना होता है'. शमा-परवाना से ज्यादा शायरों को कुछ पसंद नहीं - इश्क ! इससे ज्यादा मानव सभ्यता को किसी और चीज ने प्रभावित नहीं किया. बदला नहीं - इतिहास उठाकर देख लीजिये. और जो मैं लिखने जा रहा हूँ इससे अच्छा उदहारण मुझे नहीं सुझा. परवाने को जल जाना नहीं होता. उसे नहीं पता इश्क किस चिड़िया का नाम है. दरअसल परवाने के दिमाग की जो वायरिंगहै वो उस ज़माने की है जब शमा हुआ नहीं करती. तब प्राकृतिक रौशनी हुआ करती और परवाने को एंगल-वेंगलका पता चलता रौशनी से कि किधर उड़ना है. उसके दो ही काम थे - सर्वाइवल और रिप्रोडक्शन ! रौशनी देखकर उड़ना भी इसी का हिस्सा था. सभ्यता के विकास ने इंसान को ही नहीं परवाने को भी ऐसे उलझाया कि... उसे नहीं पता चलता कि जिस चीज से उसे जीवन मिलना था उसी से वो मर क्यों जाता है! वहीँ पर हजारों परवाने मरे होते हैं तब भी उसे नहीं समझ आता कि ये शमा वो चीज नहीं जो... और वो समझ भी कैसे सकता है. दिमाग को ही तो सोचना है और उसीकी वायरिंगमें लोचा है. जैसे माइग्रेटरी बर्ड्स फँस जाती हैं मैनहट्टन के इमारतों की रौशनी में. तारे की जगह रौशनी देख उन्हें लगता है अब इस दिशा में जाना है ! परवाने भी वही करते हैं. यकीं मानिये उनको जलना नहीं होता. वैसे उपमा सही है. ठीक उसी तरह हम भी अक्सर समझ ही नहीं पाते कि हम कर क्या रहे हैं... 'वसीयत 'मीर'ने मुझको यही की, कि सब कुछ होना तो, आशिक न होना'टाइप। पर... समझ ही गए होंगे आप ! शमा-परवाना-मीर-एवोल्यूशन. हमारी भावनाएं हमें वैसे ही छलती हैं. वो  किसी और युग और काम के लिए बनी हैं. अगली बार आग का दरिया टाइप शायरी पढ़ते समय एक बार सोचियेगा कि क्यों है जो है सो. जीसस ने जिसे कहा - माफ़ करना ऐ भगवान, इन्हें नहीं पता ये क्या कर रहे हैं. या जिसे कहते हैं - माया, लीला, ब्रेन-वायरिंग, एवोल्यूशन.

कबीलाई सोच पर आगे - क्यों कुछ लोग हमारे अपने होते हैं? -दोस्त. और क्यों कुछ लोगों से हम दूर-दूर रहते हैं. -दुश्मन। फिर जो लोग हमें अच्छे नहीं लगते उनका भी एक दोस्तों और अच्छे लोगों का समूह होता है. आप जिसे सबसे ज्यादा बुरा मानते हैं उसका भी एक सबसे अच्छा दोस्त होगा जो उसे बहुत अच्छा आदमी मानता होगा. तो ऐसा क्यों है? रामबाण उत्तर तो आपको पहले ही बता दिया है. बस उसे फिट करना है ! हमारी वायरिंगऐसी है कि हम खुद के और अपनों के गुण ज्यादा देखते हैं. लक्ष्य ही वही है. हमारी अच्छाई हमारा कोर (असलियत) है. हमारी विफलता के कारण होते हैं. हम जिन्हें पसंद नहीं करते उनकी बुराई उनकी असलियत होती है और उनकी अच्छाई के कारण होते हैं. उन्हें थाली में सजा के मिल गया हमने मेहनत की. बुरा हमारे साथ हो गया - उन्होंने बुरा किया. हमारे अपने रिश्वत लें तो 'उन्हें लेना पड़ता है'तक कहते सुना है मैंने !! और जो अपने नहीं है वो तो आप जानते ही हैं वही देश बेच रहे हैं. हमारे दोस्त के भी दुश्मन होते हैं, हमारे दुश्मनों के भी दोस्त. दोनों एक साथ सही हो सकते हैं?  - सोच हमारी रह गयी कबीले में रहने वाली - मैं और तुम वाली. मैं और तुम को बड़ा करते जाइए. परिवार-कबीला- -देश-धर्म. मेरा कबीला अच्छा, तुम्हारा बुरा. प्रकृति ने मुझे भी वही सोचने के लिए बनाया, तुम्हे भी. मेरा अपना 'मैं'हैं तुम्हारा अपना 'मैं'. सही पकड़ा उन ऋषियों ने जो 'वसुधैव कुटुम्बकं'कहते रहे ! 'मैं'का त्याग करने को कहते रहे.एवोल्युश्नरी साइकोलोजीकहती है - हम बने ही नहीं उसके लिए. यानी हमें वो करना पड़ेगा जिसके लिए हम बने नहीं ? -आत्म-नियंत्रण।

माया, लीला ! - ऋषि ने कहा.
एवोल्यूशन - बायोलोजिस्टने.

दिमाग ने सीखा है... कबीले में कैसे किसी को इम्प्रेसकरना है. उसके लिए कैसे और किस हद तक जाना है. इंसान ही नहीं आप किसी जीव को उठा कर देख लीजिये. ये भी सिखाया कि कब मुड़ जाना है. कब तक पलट के देखना है. कब से नहीं देखना है. किस चीज से घृणा हो जानी है. कब तक वफ़ा, कब से बेवफा. कैसे अपने कबीले को बचाना है. मर्द ऐसे क्यों होते हैं. औरत वैसी क्यों.  प्रकृति ने पचास हजार साल पहले ठोक पीट के बनाया. फेसबुक-व्हाट्सऐपके जमाने को आत्मसात करने में उस गति से उसे पचास हजार वर्ष और लग जायेंगे और तब तक सभ्यता कहाँ पंहुच जायेगी?  ऐसा खेल है - माया-लीला-वायरिंग. जेनेटिकके साथ नॉन-जेनेटिक एवोल्यूशनभी हुआ।  विचारों का - सब माया है - वसुधैव कुटुम्बकम - आत्म नियंत्रण - बुद्ध - कितना दर्शन हमें रेडीमेड मिलता है. कृत्रिम एवोल्यूशन - बाहरी वायरिंग. पर दिमाग अब भी शिकारी के युग का है. उसका एक ही काम है स्वार्थी जीन को अगली पीढ़ी तक पंहुचाने का. झमेला बनाए रखने का. सभ्यता के साथ हुए  विचारों के विकास के बारे में प्रकृति ने नहीं सोचा था. कृत्रिम रौशनी बन गयी इंसान उड़ कर उसमें उलझने लगा.

प्रकृति ने बनाया सुख की मरीचिका  - है वो मरीचिका. पर उसे स्थायी न सोचे तो फिर उसके पीछे भागेगा कौन? ख़ुशी का काम है सिर्फ प्रोत्साहित करना. उसका तत्व ही है अनित्यता - बुद्ध काइम्पर्मानेंस !प्रकृति का लक्ष्य ही नहीं हमेशा के लिए ख़ुश करना. 'ह्यूमन्स आर नॉट वायर्ड टू बी हैपी'. दुखी रहो अगर उससे प्रकृति के लक्ष्य पुरे हो रहे हैं तो. ख़ुशी इतने के लिए है कि लगे रहो काम में. रिवार्ड बेस्ड सिस्टम ! ख़ुशी का काम सिर्फ इतना है -रिवार्डकी ललक में बझाए रखना. प्रकृति की प्रकृति है कि एक सफलता की ख़ुशी के बाद और बड़ी सफलता चाहिए पिछली सफलता जितनी ख़ुशी के लिये - हेडोनिक ट्रेडमिल. उलझे रहो. जिंदगी में कुछ अच्छा होने के बाद  अगर इंसान को लगने लगे कि अब बस हो गया ! - हमेशा के लिए खुश ! बस अब और नहीं करना कुछ. तो जो वायरिंगहै -  'सरवाइव एंड रिप्रोड्यूस'उसका क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा रिप्रोड्यूसज्यादा से ज्यादा सरवाइव - और इस बात कीमैक्सिमम प्रोबबिलिटी तभी होगी जब... ख़ुशी - इम्पर्मानेंटहो, मरीचिका हो - हमें उस मरीचिका की ललक हो. प्रकृति को सृष्टि चलाना है. उसका काम हमें खुश करना नहीं है.

एवोल्युश्नरी बायलोजीको इस एंगल से पढो तो लगता है सब कह गए हैं ऋषि-मुनि बस जार्गन अगल हैं :)

खैर बात यहाँ से चली थी कि हमको फ़िक्र काहे को हो रही थी... उस घटना के बाद - कबीलाई सोच !

हरी ॐ तत्सत् !

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~Abhishek Ojha~

[बोलने पर ये टॉपिक ज्यादा स्पष्ट होता है. लिखने में वो बात नहीं]

एथेंस (यूनान ४)

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किसी नई जगह जाने पर सबसे पहले वो बातें ध्यान में आती हैं जो बाकी जगहों से थोड़ी अलग होती हैं. उन बातों से फ़टाफ़ट किसी देश के बारे में धारणा बनानी चाहिए या नहीं वो तो पता नहीं  पर...

चर्च, सुट्टा और राष्ट्रीय झंडा  ग्रीस में ये तीनों बाकी देशों (जितनी दुनिया हमने देखी है) की तुलना में ज्यादा दीखते हैं - हर जगह. और एक बात अलग लगी वो है रेस्टोरेंट में आप आराम से बैठे रहिये. किसी को जल्दी नहीं होती ...न आर्डर लेने की ना बिल लाने की. जब तक आप खुद बुला कर ना बोलें. बिल आता है... रोलकरके, छोटे से शॉट ग्लास में, टोकरी में या ऐसे ही किसी चीज में. छोटी सी बात है पर अलग होती है तो ध्यान में आ जाती है. देश भी इंसानों की तरह होते हैं - संस्कार कह लीजिये या अदा ! एथेंस में एक और बात अजीब लगी वो ये कि देर रात बच्चे पार्क में खेलते मिल जाते। जब डिनर का टाइम होना चाहिए तब शाम की कॉफ़ी का टाइम होता। जब सब कुछ इतनी रात ख़त्म होता तो स्वाभाविक है सुबह सब कुछ देर से शुरू होता। मुझे किसी की बतायी एक जापानी मान्यता याद आयी..  जिसके अनुसार सूर्य से सृष्टि चलती है. जीवन चलता है. इसलिए सूर्य का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। हर सभ्यता में सूर्य की पूजा की जाती रही है.  और सूर्य की पूजा मंदिर में नहीं होती सूर्य के साथ अपने को एकाकार कर होती है... जिस सभ्यता में लोग सूर्योदय के बाद उठते हैं वो सूर्य का अपमान करते हैं. सूर्य को पैर नहीं दिखाना चहिये। एक जापानी वर्ग ऐसे लोगों के साथ व्यापार नहीं करते थे जो देर से सोकर उठते। मान्यता भले अंधविश्वास हो लेकिन कहने का मतलब ये कि - ग्रीस इस मामले में जापान नहीं है. वैसे कुछ दिन रह कर किसी देश के बारे में कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। पर लोगों की तरह देश भी आलसी और देर से उठने वाले तो हो ही सकते हैं?

ग्रीक इतने सपाट जवाब देते हैं कि कई बार (कम से कम बाकी यूरोप के तहजीब की तुलना में) थोडा रुखा लग सकता है.  जैसे -

"कैन वी हैव ग्रीक कॉफ़ी?"

"ग्रीक कॉफ़ी?  इट्स नॉट गुड. इट्स फॉर ग्रीक पीपल. यू विल नॉट लाइक. ट्राई फ़िल्टर कॉफ़ी ऑर कैपेचीनो"मैंने सोचा भाई ये अजीब है. मुझे अच्छी नहीं लगेगी तो नहीं दोगे?  (फ़िल्टर कॉफ़ी से मद्रास ही दिमाग में आता है उसके अलावा यहीं सुना). वैसे बाद में लगा सही ही कहा था उसने. मुझे पसंद नहीं आई ग्रीक कॉफ़ी. जो है वो मुंह पर ही बोल देते हैं.

झंडे और सुट्टे का तो पता नहीं। पर चर्च का ऐसा है कि ईसाई धर्म का 'इस्टर्न (ग्रीक) ऑर्थोडॉक्सी'सम्प्रदाय ग्रीस का सवैधानिक धर्म है. (अगर आपको लगता है कि पूरा यूरोप संवैधानिकली धर्मनिरपेक्ष है तो ऐसा नहीं है). रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ईस्टर्न ओर्थोडोक्सी इसाई धर्म के तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं. ये विभाजन धार्मिक कम राजनितिक ज्यादा थे - रोमन, बीजान्टिन साम्राज्य और मार्टिन लूथर से बने. आगे बात करने पर ये पोस्ट इसाई धर्म के इतिहास की क्लास लगने लगेगी. वैसे घुमने का ये सबसे बड़ा फायदा होता है - क्रैश कोर्स हो जाता है इतिहास का. कुछ देखकर, कुछ सुनकर बाकी पढ़कर. मजेदार गाइड मिल जाए तो मिर्च मसाले के साथ. खैर हम अभी इतिहास के इस कोने में नहीं जा रहे.

एथेंस ऐतिहासिक जगह है. वैसे इतिहास में जिस स्वर्णिम काल के लिए एथेंस का इतना नाम है वो बहुत कम समय के लिए था. सौ साल से भी कम. ऐसे समझ लीजिये कि एथेंस सौ साल से भी कम पाटलीपुत्र  रहा बाकी समय पटना. वैसे निष्पक्ष विश्व इतिहास पढ़ें तो पता चलेगा कि एथेंस-स्पार्टा का इतिहास और उससे प्रेरित ३०० फिल्म वगैरह वगैरह में वर्णित गौरव बहुत हद तक पश्चिमी इतिहासकारों का पक्षपात है. हर पैमाने पर इससे अच्छी, सभ्य और विकसित सभ्यताएं संसार में अन्यत्र रही. उस काल में भी और उससे पहले भी. पर इतिहास ऐसे लिखा गया कि... जैसे - बारबेरियनका मतलब था वो कोई भी जो रोमन या ग्रीक भाषा न बोलता हो. वास्तव में भले वो हजार गुना सभ्य रहा हो - कहते हैं कि बारबेरियन शब्द बना ही ऐसे कि... जिनकी भाषा सुनकर समझ में न आये. सुनने में  - बार्ब-बार्ब-बार्ब लगे वो हो गया बारबेरियन - असभ्य. उसी तरह ग्रीक-रोमन गौरव काल की अच्छाई वालीं बातें बढ़ा चढ़ा कर लिखी गयीं. उस समय की सैकड़ों कुरीतियों को नजरअंदाज करते हुए. इतिहास लिखने (और पढने) का तरीका आने वाले समय का बहुत कुछ निर्धारित करता है ! ... वैसे हम भी पश्चिमी इतिहासकारों का लिखा इतिहास ही पढ़ते हैं. खैर हम अभी इतिहास के इस कोने में भी नहीं जा रहे.

इतिहास जानने से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. जो जगह आज जैसी है वैसी क्यों है. वहां के लोग, उनकी सोच और उनकी मान्याताएं। जगहों के चरित्र उनके इतिहास से बनते हैं. क्यों जगहों के हजारों सालों के इतिहास में 'वो भी क्या ज़माना था'वाले कुछेक साल ही बस हर जगह देखने को मिलते हैं. बाकी जगहों की कोई चर्चा ही नहीं मिलती। अगर ज्यादा नहीं सोचना है तो किसी शहर में बिकने वाला सूवनिर किस काल से आता है देखकर समझ लीजिये वो उस शहर का गौरवशाली काल था - एथेंस में एक्रोपोलिस, रोम में कोलोसियम, फ्लोरेंस में डेविड, वेनिस में मास्क, न्यू यॉर्क में एम्पायर स्टेट और लिबर्टी।

एथेंसऔर डेल्फीके खंडहर की बात करने से पहले  बात करते हैं एक कम प्रसिद्द जगह की. एथेंस में सुकरात की जेल के नाम से जानी जाने वाली एक लगभग अज्ञात सी जगह है. एक पहाड़ी पर गुफा जैसी. विश्वप्रसिद्ध एक्रोपोलिस से थोड़ी ही दूर. पेंड़ों के बीच - उपेक्षित. स्वाभाविक उत्सुकता थी उस जगह पर जाने की. थोड़ी मुश्किल से ढूंढते ढूंढते मिली. वहां जाकर पता चला कि - ये स्थानीय लोगों की बस एक मान्यता है कि सुकरात को यहाँ स्थित एक जेल में रखा गया होगा. पर ऐतिहासिक प्रमाण कुछ नहीं है... जितना है वो उल्टा ये है कि ये जगह सुकरात की जेल नहीं रही होगी. भूले भटके कुछ लोग पंहुच जाते हैं. हम ये सोचते लौट आये कि.... यहाँ ऐसी कोई बात नहीं लिखी होती तो हम थोडा ज्यादा सोचते और खुश होते। इस बोर्ड को यहाँ से हटा देना चाहिए. सुकरात ने ही कहा था - “The only true wisdom is in knowing you know nothing.”. खैर इस जगह से एक्रोपोलिस का अच्छाव्यू दीखता है.

एक्रोपोलिस - देख कर लगता है. क्या अद्भुत मंदिर रहा होगा ! वास्तुकला, इतिहास, इंजीनियरिंग. देखने के पहले हम काल्पनिक मॉडल देख आये थे म्यूजियम में - आलिशान. पर वहां जाते हुए अब कहीं से मंदिर जाने वाली अनुभूति नहीं आती. अब सिर्फ खंडहर है. कितना कुछ बदल देता है वक़्त. हमें कभी महसूस नहीं हो सकता जैसा यहाँ आने वालों को कभी हुआ करता होगा. ना उन दिनों किसी ने सोचा होगा कि कभी एक दिन ऐसी हालत होगी उस आलिशान मंदिर की. अब मंदिर वाली भावना की जगह ये ध्यान आता है कि बनाया कैसे होगा. बिना विकसित गणित-कंप्यूटर के सिविल इंजिनियर काम कैसे करते होंगे? वगैरह वगैरह. और ये कि कैसे एक सभ्यता ने दूसरे का बेरहमी से विनाश किया। वैसे कुछ चीजों को पुनर्जीवित करने के प्रयास अच्छे लगे. जैसे एक थियेटरहैं जिसे फिर से इस हालत में लाया गया है जहाँ अब भी वहां कलाकार परफॉर्मकरते हैं.

एथेंस - एथेना देवी के नाम पर बना शहर है. उल्लू प्रतीक-विजय-ज्ञान-बुद्धि की देवी यानि सरस्वती-लक्ष्मी-काली जैसी देवी। अनगिनत समानताएं।

एथेंस का ज्ञात इतिहास सिर्फ २५०० सालों में बिखरा है. अगर एक पैराग्राफ में नाप लेना हो तो कुछ यूँ होगा -

एथेंस २५०० साल पहले एक साधारण महाजनपद (शहर-राज्य) था. जिसे ईपू ५००-४८० में फारसी बादशाह ने ध्वस्त किया. पर उसके बाद फारस के खिलाफ युद्ध में एथेंस कई ग्रीक महाजनपदों का नेता बना.  ईपू ४५०-४०० का काल - स्वर्णिम काल. फारसियों पर विजय के बाद एक्रोपोलिस बना. वहां एथेना देवी की विशाल मूर्ति बनी. हम जो भी पढ़ते हैं वो अधिकतर इसी काल से आता है. कला-थियेटर-वास्तु-सुकरात-प्लेटो-एक्रोपोलिस-पार्थेनन-गणित-दर्शन-वगैरह. उसके बाद ईपू ३३८ में सिकंदर ने जीता. ईपू १४६ में रोमन साम्राज्य ने. पर जीतकर वो यहाँ की संस्कृति से प्रभावित ही हुए, उसे अपनाया और बाकी दुनिया में फैलाया भी. रोमन साम्राट कॉन्सटेंटाइन ने जब ईसाई धर्म को मान्यता दी और खुद भी धर्म परिवर्तन कर लिया। उसके बाद पेगन के नाम पर उस समय तक के सारे मंदिर या तो चर्च बन गए या तोड़ ताड़ दिए गए. पार्थेनन चर्च बन गया. सारे पेगनप्रतीक मिटा दिए गए. उधर रोमन साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हुआ और इधर एथेंस पर 'बारबेरियन' हमले. एथेंस ४७६ ई के बाद एक हजार साल तक बीजान्टिन साम्राज्य के अधीन रहा (इसी काल में इस्टर्न ऑर्थोडॉक्सी यहाँ हमेशा के लिए जम गयी). बीजान्टिन यानी पूर्वी रोमन साम्राज्य जिसकी राजधानी थी कुस्तुन्तुनिया (आज का इस्ताम्बुल). १४५३ में जब कुस्तुन्तुनिया का पतनहुआ तब अगले ४०० सालों के लिए एथेंस तुर्कों (ओटोमन साम्राज्य) के अधीन रहा. कुस्तुन्तुनिया का पतन (बीजान्टिन के लिए) कहिये या कुस्तुन्तुनिया विजय (ओटोमन के लिए). ...स्कूल में कुछ चीजें ऐसी थी जिन्हें पढ़ कर या सुनकर बहुत मजा आया. जैसे पंद्रह का पहाडा ! आपने पढ़ा है तभी जान सकते हैं क्या स्पेशलहोता है उसके बारे में - पंद्रह दूनी तीस तियान पैतालिस... वैसे ही था 'कुस्तुन्तुनिया का पतन'. नौवी के इतिहास में था. Fall of Constantinople पढ़ के भी क्या पढ़े होते ! 'कुस्तुन्तुनिया का पतन'सुन कर लगता था कुछ भारी भरकम बढ़िया सी चीज पढ़ रहे हैं ! खैर... तो यही था मोटा-मोटी एथेंस का इतिहास. एक्रोपोलिस पर एक के बाद दूसरी सभ्यता ने अपना कब्ज़ा किया. पार्थेनन पैगन मंदिर से मिटाकर चर्च, चर्च मिटाकर मस्जिद, उसे मिटाकर संग्रहालय और यूनेस्को हेरिटेज बना. वहां की सबसे अच्छी मूर्तियाँ और पत्थर कोहिनूर गति को प्राप्त हुए. यानी अब ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में पड़े हुए हैं. ग्रीक जिसपर अपना हक़ और वापस लाने की बात करते रहते हैं. [ब्रेक्जिट नहीं हुआ होता तो कुछ उम्मीद भी होती :)]. १८२१ में ग्रीक में आजादी आन्दोलन/क्रांति हुआ.. वैसे इस आजादी के बाद लोकतंत्र नहीं आया. लम्बे समय तक राजशाही रही. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नाज़ी कब्ज़ा... फिर मार्शल प्लान.  (मुझे नहीं पता बाकी लोगों को कितना अच्छा या पकाऊ लगा होगा ये पढ़ना. तो एक पैराग्राफ में बात ख़त्म.)


अब एथेंस का केंद्र है सिंतागमा स्क्वायर.जो एक साथ ग्रीस का संसद, धरना के लिए जंतर मंतर और अमर जवान तीनो है. नो डिसृस्पेक्टपर वहां जैसे ड्रेस में गार्ड खड़े होते हैं - फैंसी ड्रेस लगता है (अगर मैं नौटंकी कहने से अपने को रोकूँ तो). वैसे वो बहुत ही अच्छी मद्धम चाल और भाव भंगिमा में अपनी जगहें बदलते हैं. माने बहुत ही अच्छा. एक और जानकारी - उनके ड्रेस में ४०० चुन्नट होते हैं. तुर्कों के हर एक साल की गुलामी के लिए एक चुन्नट.

डेल्फी... खुबसूरत जगह पर है. पहाड़ों में बसा. अच्छी चढ़ाई होती है. ऐसा लगा जैसे ओरेकल (पुजारन कह लीजिये) ने जान बुझ कर बनाया होगा ऐसी जगह कि कठिन चढ़ाई कर वही आ सकें जिन्हें सच में श्रद्धा/उत्सुकता हो. फिर वहां खड़े खड़े एक बार को जरूर ये ख़याल आता है कि कैसे घोड़े पर या पैदल थके-हाँफते एथेंस, स्पार्टा, ओलंपिया वगैरह से लोग पहाड़-घाटियां पार करते आते होंगे अपना भविष्य जानने. बहुत मुश्किल होता होगा तब आना.

लिखते लिखते लगता है बहुत इतिहास लिखा गया... डेल्फी में अपोलोका मंदिर था. और साथ में उन दिनों पूजे जाने वाले कई देवताओं के मंदिर. एक थियेटर और खेलों का एक प्रसिद्द स्टेडियम. (ओलंपिक की तरह यहाँ पिथियन  गेम्सहोते थे). रोमन जमाने में एक रोमन अगोरा। पर इस जगह को सबसे अधिक प्रसिद्धि दिलाई ओरेकल और अपोलो  के मंदिर ने. ओरेकल यहाँ की पुजारन होती थी. मंदिर प्रांगण में एक जगह धुंआ जैसा कुछ निकलता जहाँ बैठकर वो भविष्यवाणी करती. माने साधारण भाषा में कहें तो गांजा जैसे कुछ फूंक के बता देते रहे होंगे। एक समय ऐसा था कि कोई भी राजा बिना ओरेकल से सलाह लिए बिना फैसला नहीं करता था. क्या और कैसे इस पर बहुत कहानियाँ और थियरिस  हैं.

पुराने जमाने में ग्रीक ये भी मानते थे कि डेल्फी दुनिया का केंद्र है. इसीलिए वहां पर अपोलो का मंदिर बना. कहते हैं कि दुनिया का केंद्र पता करने के लिए जीयसने दुनिया के दो छोरों से दो बाज उडाये. एक ही समय पर, विपरीत दिशा में, एक ही गति से. [अपने युग का विज्ञान !] दोनों बाज जहाँ मिले वहां से जीयस ने एक पत्थर फेंका. वो पत्थर जहाँ गिरा वही हुआ संसार का केंद्र और वहां बना अपोलो का मंदिर !

खैर... पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हुई. लिखने के पहले लगता है क्या लिखें... लिखना शुरू करो तो जो बात लिखनी थी उसके पहले ही पोस्ट पूरी हो जाती है. ना ना करते इतना इतिहास ही लिख गए. अपोलो के मंदिर के स्थान पर जो वर्णन लिखा हुआ है उसमें लंबी सी कहानी के अंत में ये भी लिखा हुआ है कि पत्थरो पर सात ऋषियों के ज्ञान का सार लिखा हुआ था - γνῶθι σεαυτὸν - "know thyself". और μηδὲν ἄγαν- 'Nothing in excess'. बात तो सुनी हुई लगी. सप्तर्षि  एक ही रहे होंगे?


एक बात कुलबुला रही थी दिमाग में. ग्रीस में हमें लोग समझाते कि वॉलेट सामने की जेब में रखना. मैं अभी कहीं और गया था वहां भी लोगों ने यही कहा. मैं सोच रहा था पश्चिम के पॉकेटमार बिलकुल ही पगलेट होते हैं क्या? सलाह देने वाले सबको पता है सिर्फ उन्हें नहीं पता कि आजकल लोग वॉलेट कहाँ रखते है? गया-मुगलसराय जाके ट्रेनिंग लेनी चाहिए उन्हें !

लोगों से की गयी बातों वाली पोस्ट ज्यादा रोचक होती है. इतिहास सुनाने की चीज है तभी अगर कोई सुनने वाला हो. लिखते हुए बार बार लगता है कौन पढ़ेगा? ! पोस्ट लिखने में न्याय नहीं हो पाता। सुनाने में पता होता है सुनने वाला कितने चाव से सुन रहा है... सुनाने में फिर वही चाव आ जाता है.

और... आप जो करते हैं वो नहीं कर रहे होते तो क्या करतेके जवाब में बहुत कुछ आता है दिमाग में. उन्हीं में से एक 'टूर गाइड'बनना भी बहुत दिलचस्प लगता है. पर फतेहपुर-सिकरी, आगरा में शेर सुनाने वाले टूर गाइड याद आते हैं तो लगता है हममें ना तो वो हुनर है न वो करना चाहते ! आपने झेला है तो आप जानते हैं :)

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~Abhishek Ojha~


न चोरहार्यं न च राजहार्यंन...

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मैं लगभग कैशलेसइंसान हूँ. मुद्राहीन - चैन से रहने वाला !*
(*शर्ते लागू)

पिछले कई सालों से कभी मेरे जेब में नोट या सिक्के रहे हो... और वो भी एक दिन से ज्यादा के लिए - मुझे याद नहीं. यात्राएं अपवाद रही. इस अपवाद के दिनों में नोट को लेकर कई अनुभव हुए (जिंदगी में लोग हो या घटनाएं अपवादों का बहुत महत्त्व है - इस पर फिर कभी). कुछ अनुभव सामान्य लेकिन याद रह गए. वैसे तो मुझे बहुत कुछ याद नहीं रहता लेकिन कुछबातों में कुछ बातहोती है जो याद रह जाती है. 'नोट'सामयिक बात है तो ऐसी ही कुछ याद रह गयी बातों से कुछ नोट्स

दृश्य १: (पटना)

उन दिनों मैं एटीम से पांच हजार रुपये निकालता, जब-जब जेब में पांच सौ से कम हो जाते.* जिस दिन की बात है उस दिन मेरे पास छुट्टे नहीं थे और मुझे अपने कपडे वापस लेने थे. दुकानदार ने कहा - "अरे ले जाइए. आपका कौन सा एक दिन का है. फिर त ऐबे करियेगा. तब दे दीजियेगा. कहाँ रहते हैं? नया आये हैं इधर?"मैंने कभी खाता नहीं लिखवाया. पर ये बात कभी भूल नहीं पाया. पहली बार मैंने कपडे दिए थे उस दूकान पर. कुल ढाई महीने के लिए था मैं उस शहर में, रोज का जाना नहीं था मेरा. और कोई मुझे बिना मांगे उधार देने को राजी हो गया था.

जो कह रहे हैं कि... नोट की कमी से किसानों की बुवाई नहीं होगी मुझे नहीं समझ उन्होंने किस तरह के भारत को देखा है ! एक तो किसान की बुवाई में लाखों रुपये नहीं लगते. फिर बीज बेचने वाला, ट्रैकर वाला... ट्रैक्टर का तेल बेचने वाला. सबको एक दुसरे के साथ ही उठना बैठना होता है. सब एक दुसरे के यहाँ खाते हैं और सबके यहां सबके खाते चलते हैं. अगर आपको लगता है कि विमुद्रीकरण से किसी का खेत बंजर रह गया होगा तो पता नहीं आप किस हिन्दुस्तान में पले बढे हैं ! शायद आपको लगता है कि खेती और फैक्ट्री का प्रोडक्शनएक ही बात है. और जिन्हें लग रहा है कि कुछ दिन ५०० और १००० के नोट नहीं रहने से बार्टर सिस्टमहो गया है. उन्हें एक बात बता दें... दुनिया में कभी भी शुद्ध वस्तु-विनिमय (बार्टर सिस्टम) रहा ही नहीं. भरोसा रहा. उधार रहा. और वो हमेशा मुद्रा से ज्यादा चलन में रहा. आज  भी है. सालभर कोई आपको आपकी जरुरत का सामान दे और साल में एक बार या दो बार जो आपके पास है वो आप उसे दे दें- इसे वस्तु विनिमय नहीं कहते. भरोसा कहते हैं या उधार (डेट). ये दुनिया में मुद्रा के आने के बहुत पहले से है. पर बाते ये है कि जिन्होंने कभी गाँव देखा ही नहीं वो गाँव वालो की समस्या से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.

*दो लाइने लग रहा है कंप्यूटर प्रोग्राम है. :)
इफ (मनी_इन_जेब < ₹५००){
विदड्रा ₹५०००
}


दृश्य २: (बलिया)

मेरे हाथ में ₹५०० के कुछ नोट थे. किसी ने मुझसे कहा  - "क्यों लहरा रहे हो? ढेर पैसा हो गया है? रुपया दिखाने का चीज नहीं होता है. कोई ठाएँ से मार देगा तो आज ही सब काम हो जाएगा. गंगाजी भी बगले में हैं".
"इतने से रुपये के लिए?"
"इतने से? पैसठ रूपया का कारतूस आता है. सौ रूपया के लिए भी कोई मारेगा तो पैंतीस रूपया का शुद्ध मुनाफा. जोड़-घटाव आता है कि नहीं?"

इस पर कोई टिप्पणी नहीं.

दृश्य ३: (स्विट्ज़रलैंड)

आपको लगेगा कि जरूर कोई राजनितिक बात करने जा रहा है. सारी बातें बना कर बोल रहा है, ज़माना ही वही है. तो २००५ में घटी एक घटना, जो २००८ में पोस्ट की गयी थी - ब्लॉग्गिंग वाले दिनों की पोस्ट है - यहाँ जाकर बांचा जाय - वो लोग ही कुछ और होते हैं ... (भाग II)

दृश्य ४: (रोम)

कॉफ़ी का बिल और साथ में रखा नोट उठाकर  पुनः वापस रखते हुए वेट्रेसबोली  - "इत इज ब्यूयूयूऊऊतीफुल ! बट नोत यूरो माय फ्रेंड"मुझे कुछ समझ नहीं आया कि बोला क्या उसने. और मैं वैसे हँसा जैसे... कुछ ढंग से नहीं सुनाई देने पर या समझ में न आने पर हम फर्जी ही ही करते हुए मुस्कुराते हैं. और वैसे ही मुस्कुराते हुए मैंने धीरे से हिंदी में पूछा - 'क्या बोल रही है? ले क्यों नहीं गयी? बीस का नोट ही तो रखा है'
"ये बोल रही है कि यूरो नहीं है. फिर से देखो तुमने क्या रखा है".

 
हमारे पास एक छोटा सा बैग है. पासपोर्ट रखने भर का. उसमें बची खुची विदेशी मुद्रा पड़ी रहती है. वो तभी निकलता है जब कहीं पासपोर्ट लेकर जाना होता है - माने अंतरराष्ट्रीय. वापस आकर फिर वैसे ही रख दिया जाता है. भूले भटके, मज़बूरी में जिन नोट और सिक्को को देखना हो... क्या समझ में आएगा किस देश की चवन्नी-किसकी अठन्नी, क्या यूरो-क्या फ्रैंक !. हमने यूरो की जगह स्विस फ्रैंक रख दिया था. गांधीजी पहचान में आते हैं और वाशिंगटन, हैमिल्टन, लिंकन धीरे धीरे आ गए है. बाकी सब बिन पढ़े थोड़े पता चलेगा. एक रुपये के नोट का बॉम्बे हाई या पांच रूपये के नोट वाली ट्रैक्टर थोड़े न है कि जीवन भर के लिए छप जाएगा दिमाग पर. (वैसे नोटों की खूबसूरती/डिजाइन और जारी करने वाले देश के विकसित होने में क्या संबंध है ये भी एक रिसर्च की बात हो सकती है. लेकिन खूबसूरती आते ही परिभाषित करने की समस्या आ खड़ी होती है. खूबसूरती न सिर्फ देखने वाले इंसान की आँखों में होती है वक़्त के साथ उन आखों का नंबर भी बदलता रहता है!).

दृश्य ५: (सेंटोरिनी)

एक और पुरानी पोस्ट पढ़ा जाए. वैसे कैशइतना बुरा भी नहीं है. देखिये कैसी कैसी बातें हो जाती हैं छुट्टा न होने से. - ग्रीक म्यूजिक.

दृश्य ६: (न्यू यॉर्क)

बात उन दिनों की है जब हम नए नए अमेरिका में आये थे. बिल था $८.२५. मैंने दस डॉलर का नोट दिया और साथ में २५ सेंट का सिक्का. मतलब अब आदत थी तो थी. और ये तो फर्ज बनता है कि छुट्टा आपके पास है तो सामने वाले का काम आसान बनाइये. ₹४१० देना है तो सामने वाले को ₹५०० की जगह ₹५१० दीजिये. इतना गणित तो सबको आता है. पर यहाँ न टॉफ़ी पकडाते हैं न उन्हें छुट्टे का खेल समझ आता है -
काउंटर पर खड़ी लड़की ने ऐसे देखा जैसे... किसी महामूर्ख अजूबे को देख रही हो. "व्हाई वुड यू गिव मी दिस?"अमरीकी चवन्नी दिखाते हुए उसने मुझसे पूछा.
"आई थोट.... हम्म.. सॉरी"मुझे लगा अब इसको समझाने का क्या फायदा कि व्हाट आई थोटऔर कैसे करना होता है लेन देन. न ही वो ज्ञान इस देश में किसी के काम आता. लम्बी कहानी अलग होती. अजीब भी लगा कि इस देश में इतनी साधारण बात नहीं पता लोगों को ! उसने मुझे वापस एक मुट्ठी सिक्का पकड़ा दिया. एक एकसेंट लौटा देते हैं लोग ! और हर चीज की कीमत डेसीमल में ही रखेंगे. शुरू के दिनों में इतने सिक्के जमा हो जाते और सिक्के किसी को देने में गिनने का झंझट. ये झंझट मेरे कैशलेस होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण था.

..आजकल अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का हवाला देकर जो कुछ भी किसी के मन में आये लिख दे रहे हैं वे सारे सिद्धांत ऐसी ही मूलभूत बातों पर आधारित है. जिनमें से कई भारतीय परिवेश में लागू नहीं होते. उनके तर्क आपको सही लगेंगे पर... जिन बातों को आधार बनाकर वो तर्क देना चालु कर पूरा लेख लिख मारते हैं. जिसे पढ़कर आपको लगता है अरे इतना बड़ा आदमी इतने बड़े बड़े सिद्धांतों की बात कर रहा है.. उसकी बात अगर आप ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा सिर्फ राजनितिक कचरा है ! किसी का भी  लिखा हो उसे दिमाग लगाकर पढ़िए - हाल फिलहाल में जितना पढ़ा ये बात और दृढ होती गयी. इतनी गलत बातें ! अखबार में लिखने और टीवी पर एक्सपर्ट बने सभी विशेषज्ञ निष्पक्ष नहीं होते. विशेषज्ञ तो खैर शायद ही होते हैं. उनके पूर्वाग्राह आपसे बड़े हैं. उनका एजेंडाभी. आँखे खोल कर दुनिया देखना सीखिए. आप किसी को ८.२५ की जगह १०.२५ देकर गलत नहीं कर रहे. ज्यादातर तथाकथित बुद्धिजीवी विशेषज्ञों को पता ही नहीं ये कैसे काम करता है और वो आपको मुर्ख कह दे रहे हैं !

दृश्य ७: (राँची)

"आपको सुखी कहते हैं? आपको ज्यादा पता है कि हमको? अमीर कहते हैं सेठ-मारवाड़ी को ! आप जैसे लोगों को नहीं. आपके कहने से हम आपको अमीर कह देंगे और मान लेंगे कि आपको कोई तकलीफ नहीं है?"

सड़क के किनारे हाथ देखने वाले और साथ में अंगूठी बेचने वाले ज्योतिषी ने एक आदमी को बिल्कुल डांटने वाले अंदाज में कहा था. उस आदमी का गुनाह ये था कि... अंगूठी बेचने वाले की बतायी गयी बात "आप तकलीफ में तो हैं..., आपकी आमदनी से ज्यादा खर्चा हो रहा है. और आप दिल के तो बहुत अच्छे हैं लेकिन लोग आपको समझ नहीं पाते हैं. गरीबी आपको परेशान कर रही है"के जवाब में उसने कह दिया - "नहीं, ऐसा तो नहीं है. हम तो बहुत सुखी हैं. भगवान का दिया सब कुछ है". मैं तब ग्यारहवीं में पढता था. और ये बात मैंने इतने लोगों को सुनाई है कि मैं क्या मुझे जानने वाले कई लोग भी ये बात नहीं भूलेंगे. वे दिन थे कि पैदल चलते चलते कहीं रुक कर ऐसी बाते सुन लेते. कभी भटकिये ऐसे... बहुत मजेदार बातें सीखने को मिलेंगी :)

तो.. ये विशेषज्ञ ऐसे ही हैं. अगर आप कहेंगे कि आपको तकलीफ नहीं है तो वो आपके मुंह में ठूस कर उगलवा लेंगे कि आपको तकलीफ है. वो विशेषज्ञ हैं कि आप? आप कौन होते हैं फैसला करने वाले कि आपको तकलीफ है या नहीं? आप कैसे बता सकते हैं कि आपके लिए क्या अच्छा है? बस यही हो रहा है और कुछ नहीं. आप खुद सोचिये और फैसला लीजिये. क्यों अंगूठी बेचने वाले के चक्कर में पड़े हैं. अखबार वाला भी अंगूठी ही बेच रहा है. टीवी वाला भी. चलिए वो तो कुछ बेंच रहे हैं... पर वो जो उनके कहे को ब्रह्मसत्य मान तर्क पर तर्क दिए जा रहे हैं. व्हाट्सऐप पर फॉरवर्डकिये जा रहे हैं उनका क्या?

गाइड सिनेमा में जब राजू के पास एक व्यक्ति रोजी के हस्ताक्षर लेने आता है... वो सीन याद है आपको?
राजू: 'तो मार्को रोजी के जेवरात हडपना चाहता है?'
'जी नहीं, बल्कि वो तो चाहते हैं कि... सारे गहने रोजी को ही दे दिये जाएँ.'
राजू: 'तो मार्को ये दिखाना चाहता है कि वो बहुत अमीर है" (संवाद अक्षरशः नहीं है, बात याद रह गयी संवाद भूल गया)

दोनों ही निष्कर्षों में गलत तो कुछ नहीं है! पर उदहारण का मतलब ये है कि विशेषज्ञ ऐसे ही देखने लगे हैं दुनिया. वो फैसला कर के बैठे हैं मुद्दा जो भी हो. सामाजिक विज्ञान के बारे में हमारे एक सांख्यिकी के प्रोफ़ेसर कहा करते कि - "सोसिओलोजीके हेड ऑफ़ डिपार्टमेंटआकर बोलते हैं. सर, एक बहुत अच्छा पेपरलिखा है. कोई अच्छा सा मॉडलबताइये जो उस पर फिटहो जाए. डाटा है बस एक अच्छा मॉडलचाहिए.क्वांटिटेटिवहो जाएगा तो आराम से छप जाएगा और थोडा वजन भी आ जाएगा."खैर इस बात को कहने से जो बात आपके दिमाग में आई वो तो आप समझ ही गए होंगे? आप बोलिये किस बात पर किस पक्ष में लिखना है. हम लिख देते हैं - आंकड़ा, सिद्धांत सब फिटकरके।

बात चली थी कैशलेसहोने के फायदे से और कहीं और निकल गयी. खैर शीर्षक से याद आया - कोई भी और धन विद्याधन तो कभी नहीं हो सकता. लेकिन... कैशलेस होने से.. वो क्या है कि..  विद्या के कुछ गुण तो उसमें आ ही जाते हैं जैसे विदेश में इन्सान की बंधु - न एक्सचेंज रेटकी समस्या न कमीशनकी, न ही अनजान मुद्रा पहचानने-गिनने की (वैसे आपके पास अच्छे वाले कार्डन हो तो बैंक कमीशन  लेते हैं), धन जिसे कोई चुरा नहीं सकता, राजा नहीं ले सकता, उसका भार नहीं होता और उसका कभी नाश नहीं होता... विद्याधन पर ये सारे श्लोक तो आपने पढ़े ही होंगे?. डिजिटलधनके लिए भी सही है.*

दिमाग अच्छे कामों में लगाइए...अन्यत्रहमने कहा कि दिमागी व्यायाम होना जरूरी है सोच अच्छी रहती है.
बाकी तो भावना अच्छी हो तो दुनिया खुबसूरत ही खुबसूरत है. जाकी रही भावना जैसी -

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~Abhishek Ojha~

पुनश्चःएक और बात - आजकल लोग लिखना शुरू करते हैं - मेरी काम वाली बाई, मेरा  ड्राइवर, मेरा दोस्त, मजदूर, मेरा पलम्बर, किसान फिर बताते हैं कि उसे विमुद्रीकरण से कितनी तकलीफ है. पढ़े लिखे लोग आजकल ऐसे ही बात करते हैं. संभवतः ऐसे लोगों को खुद कभी कोई परेशानी नहीं होती, खासकर जब पैसे की बात हो. काम करने वाले और गरीब लोगों को क्या आप इंसान नहीं समझते? वो क्या बेवकूफ हैं? अशिष्ट हैं. हमें लगता था दासप्रथा अंत हुए कुछ साल हो चुके हैं - आपकेड्राइवर? खैर हमें व्यक्तिगत रूप से न तो ड्राइवर रखने का अनुभव है न काम वाली बाई का. पर जो शुरू ही ऐसे करते हैं उनकी बात आगे क्या पढ़ी जाए ! आप बताएंगे कि उनको तकलीफ है क्योंकि उन्हें खुद नहीं पता? और आपको कोई तकलीफ नहीं?... उनके पास इफरात में ५०० और १००० के नोट हैं जो ख़त्म ही नहीं हो रहे, ये कह कर आप गरीब का अपमान नहीं कर रहे? और आपके पास तो कुछ था नहीं? और उनको तकलीफ है तो मदद करने की जगह आप उसे ट्वीट करते हैं? अंगूठी बेचने वाले विशेषज्ञ! - जो कह रहा है मुझे कोई तकलीफ नहीं उसे तो जीने दो. मेरी मानो तो गया चले जाओ - बहुत स्कोपहै. वहां मुर्दे को भी तकलीफ में दिखा देने वाले लोग होते हैं :)

सैंयाजी के मालूम (पटना २१)

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शनिवार की शाम ऑफ़िस कॉम्प्लेक्स लगभग खाली हो चुका था. दिन भर चहल पहल से भरी रहने वाली सीढ़ियों से उतरते हुए सन्नाटा अजीब सा लगा. बाहर निकल कर मैं सड़क के किनारे टहलने लगा. मेरे पास वक़्त इसीलिए था क्योंकि बीरेंदर ने कहा था कि वो मुझे बाइक से छोड़ देगा और मुझे ऐसे मिली फ़ुरसत में इस तरह घूमना अच्छा लगता इसलिए मैंने उसे फ़ोन नहीं किया.

चाय की दुकान अभी भी खुली थी पर चाय का मैं उतना शौकीन नहीं कि अकेले चाय की दुकान पर जाता। वैसे लत हो जाने वाला कभी कोई शौक मुझे हुआ नहीं. फिर मुझे आजतक ये भी समझ नहीं आया कि कुछ लोग अपने शौक को लेकर इतने स्पष्ट कैसे होते हैं कि चाय भी ये वाली, शक्कर इतना ही, फेवरेट कलर, फेवरेट मिठाई, फेवरेट इंसान… चाय के शौक़ीन तो ऐसे होते हैं कि गलती से किसी दिन चाय नहीं पी तो उस दिन सूरज नहीं ढलने देंगे लोग. यहाँ चाय लोगे या कॉफी हमारे लिए कठिन सवाल हो जाता है.

खैर… ऑफिस काम्प्लेक्स वाली बिल्डिंग से थोड़ी ही दूर बहुत चहल पहल थी. ठेले वाले, चाउमिन, गोल गप्पे, रिक्शा, बस, टेम्पो, गाड़ियाँ। इतनी चहल पहल कि मैं टकराने से बचते बचाते जा रहा था. आसपास की दुकाने देखते. हार्डवेयर स्टोर, पान की दुकान, सुपर स्टोर, सिंगार गृह, फैशन ही फैशन, सत्तू ठेला, फ्रेस जूस, बोर्ड पर दुकानदार के नाम के आगे लिखा प्रो., बोर्ड के नीचे स्टाइल में लिखा कलाकार का साइन - नीरज आर्ट. जिसमें न के ऊपर बड़ी ई की मात्रा मंदिर के ऊपर ध्वज सी लग रही थी. और आर्ट का र्ट क्षैतिज दिल. मैं चलता चलता मौर्य लोक पंहुच गया. लोग ही लोग. मैं अकेला भटक रहा था पर इतने विभिन्न तरह के रंग बिरंगे लोग दिख रहे थे कि बोर होने की गुंजाईश नहीं थी.

बीरेंदर का फ़ोन आया तो मैंने कहा कि मौर्य लोक आ जाओ.

‘पहिले बताये होते हम उधरे से आये. सनीचर है त मंदिर चले गए थे’
बीरेंदर आया तो मैंने पूछा - ‘तुम मंदिर-वंदिर भी जाते हो? पता नहीं था.’

‘लीजिये, सनीचर के दिन मंदिर नहीं जाएंगे? माने अब भक्ति है या संस्कार उ हमको नहीं पता लेकिन कभी सोचबे नहीं किये कि काहे जाते हैं. आदत है. बैठिये एक ठो काम है उधरे से आप के छोर भी देंगे। एक ठो चिट्ठी बांचने जाना है”

‘चिट्ठी बाँचने? किसे पढ़ना नहीं आता? और चिट्ठी कौन लिखता है आजकल?’

‘आरे नहीं भैया, कोई सरकारी कागज होगा। चिट्ठी कहाँ आएगा अब किसी को. बैठिये बैठिये’

बीरेंदर ने बाइक आगे बढ़ाई और मंदिर की बात पर वापस लौटा जैसे चिट्ठी की बात आ जाने से अधूरी रह गयी बात को पूरा करना हो. बाइक पर लगने वाली तेज हवा से बीच में आवाज़ सुनाई नहीं देती पर मैं यूँ हुंकारी भरता और हँसता जा रहा था जैसे सब सुन रहा हूँ...

‘उ का है भईया कि हमको पता ही नहीं कब से मंदिर जाते हैं त कभी सोचे भी नहीं कि काहे जा रहे हैं या जाना चाहिए कि नहीं. आदत जैसा हो गया है. केतना न चीज देखिये ऐसे ही हो जाता है. जैसे हम एतना न मंतर सुने हैं बचपन में कि सुनिए के केतना याद हो गया. कुछ पिताजी के पढ़ते सुनते थे आ बाकी पड़ोस के कन्हैया चचा भोरे भोर चालु हो जाते थे. न मतलब पता न ई कि उ का बोल रहे हैं. बस सुनते सुनते रटा गया. जो देखे-सुने उ सीख गए. केतना चौपाई को मुहावरा का तरह इस्तेमाल करने लगे बिना जाने कि किस ग्रन्थ का है आ कौन लिखा है. दो चार ठो सीख गए त कभी बाहर कोई नया चौपाई सुनते त आके घर पर पूछते.. आ कई बार नहीं पता होता तो ढूंढा जाता. अब लगता है कि भुला गए सब. मजेदार बात बताएं आपको एक ठो... केतना त कुछ का कुछ सोचते रहे हम बहुत दिन तक. ‘हरी ॐ तत्सत्’ का जगह ‘हरी ओम चकचक’ समझते थे. आ सान्ताकारम बुचक सेनम. बहुत बाद में पता चला कि बुचक सेना नहीं है. आ एक दू ठो तो आज तक पता नहीं चल पाया कि क्या था.’ बीरेंदर ने एक दुकान के सामने बाइक लगाई. पता नहीं मैंने हरी ॐ चकचक सही सुना या बीरेंदर ने कुछ और कहा पर बात समझ आ गयी.

‘आ जानते हैं.. पिताजी जिस सुर में पढ़ते हमको लगता वइसही पढ़ा जाता है. अब कहीं सुन लेते हैं आ धुन अलग हो त लगता है कि गलत गा दिया. - बिलोल बीच बल्लरी बिराजमान मुर्धनि. जैसे उ गाना नहीं है दिल से में 'पुंजिरीथंजी कोंजिकों मुन्थिरी मुंथोलि जिंधिकों वंजरी वर्ना चुंधरी वावे'माने वैसे ही. हमको थोड़े न सब बुझाता था. लेकिन उसी ओज में गा देंगे दो चार शब्द इधर उधर करके अगर कोई शुरू कर दिया तो.’

‘सही है. तुम्हे तो बहुत आता है फिर. बचपन की बातें याद रह भी जाती है. कुछ कविताएं मुझे भी वैसे ही याद है. बचपन का रटा दो और पंद्रह के पहाड़े की तरह याद रह जाता है. बाद का पढ़ा समझ भले आ जाये उन्नीस के पहाड़े की तरह होता है’.

‘ई त एकदम सही बोले आप. पंद्रह दूनी तीस तिया… बनिकपुत्रं कभी न मित्रं, मित्रम भी त दगा दगी. ‘कहाँ गए हैं रे बनिकपुत्रं? बुलाओ त जरा’ पहाड़ा छोड़ प्रणाम की मुद्रा में आकर बीरेंदर ने वहां बैठे लड़के से पूछा.

‘ऐसे थोड़े न बोलते हैं बुरा लग जाएगा।’

‘इसको बुरा लग जाएगा? ई बनिया थोड़े है इसके मालिक को बोले हैं. आ उ तो गर्वे करते हैं’ बीरेंदर ने हँसते हुए कहा.

‘आ भैया उ आप याद रखने वाला बात एकदम सही बोले’ बीरेंदर फिर पिछली बात पर ऐसे गया जैसे कोई मजेदार बात न छूट जाए.

‘कविता से क्या याद दिलाये दिए आप भी. ई सब बात छेड़ दीजिये त कोई ऐसा नहीं होगा जिसके चेहरे पर मुस्कान नहीं आ जाएगा. अब बात चला है त एगो और मजेदार बात बताते हैं आपको. छोटे थे हमलोग त रोज रात को लालटेन घेर के गोला में बैठ के पर्हते थे. कभी कभी तीन चार भाई-बहन. माने मौसी-मामा सब भी आते रहते थे. उसके बाद माने जे न नींद आता था. दम भर खेल के आते थे त नींद त एबे करेगा. नींद का काट एक्के था - ले में चिल्ला चिल्ला के कविता. आओ बेटा. आ जे न बड़ाई होता था. अरोस परोस का सब आदमी माने ऐसे बोलता था कि बीरेंदर केतना तेज लड़का है. केतना जोर जोर से पढता है. मेरा फेवरेट था - हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ. हम पालथी मार के अपना मुंडी गोल गोल घुमा के पढ़ते थे. ओहिमे नींद आ जाता था. मुंडी घूमते घूमते लुढ़क भी जाते थे.

... ढिमलाते…   आ गर्दन झटक के फिर गाने लगते - चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया; गिरी धम्म SSS से फिर, चढ़ी आम ऊपर, उसे भी झकोरा', सोते सोते उसी में कैसेट फंसने जैसा आवाज भी होने लगता.. त उधर से पिताजी चिल्लाते. ऐ बिरेंदर सो रहा है का रे? त हम कुछ बोलने का जगह  और जोर से पढ़ते  - सुनो बात मेरी -  अनोखी हवा हूँ।  बड़ी बावली हूँ,  बड़ी मस्तमौला। हवा हूँ हवा… मैं बसंती हवा हूँ.  जे न बसंती हवा होता था आपको का बताएं. जब तक खाने का टाइम नहीं होता इहे चलता रहता. उ एक ठो अलगे टाइम था’

बीरेंदर ने ऐसे भाव और मुद्रा से सुनाया जैसे पूरा दृश्य सजीव हो गया हो. ये बातें सुन लगा कि हमें खुद कहाँ पता होता है कि ऐसी बचकानी बातों ने भी हमें वो बनाया होता है जो हम हैं.

बनिकपुत्रं (पता नहीं उनका असली नाम क्या था !) लिफाफा लेकर आये - ‘क्या महफ़िल छेड़े हो बीरेंदर? तनी देखो त ई का आया है’

‘बीरेंदर ने लिफाफा खोल कर पढ़ा - कुछ काम का नहीं है. प्रचार में भेजा है कंपनी वाला।’

‘फिर त बेकारे है. अंग्रेजी में था त हमको लगा कुछ जरूरी होगा।’
‘अब वापस काहे ला रख रहे हैं? लाइए इधर फेंकिए. माने ई सब बटोर के घर भर के का करेंगे?’
‘कागज कभी फेंकना नहीं चाहिए। कुछ कभी जरुरत पड़ गया’
‘अरे महाराज बटोरिये।लाटरी का टिकट है जो जरुरत पड़ जाएगा।ना आपका सीसी भरी गुलाब की पत्थर पे तोड़ दूं वाला परेम पत्र है. संभाल के रखना होता है ! रखिये मर्हवा के ’ बीरेंदर ने हाथ जोड़कर कहा।

‘भैया आप कभी चिठ्ठी लिखे हैं? माने किसी और के लिए? कोई बोल रहा हो और आपको लिखना हो. माने हम जैसे अभी बांचे वइसही लिखने का भी खूब काम किये हैं. उ एक ठो अलगे ज़माना था. चिट्ठी लिखे नहीं होते त ना तो हमको लिखना आया होता न पढ़ना। माने… मगही, भोजपुरी में सुनते आ हिंदी में अनुवाद करके लिखते।’

'चिट्ठियां तो बहुत लिखी पर किसी और के लिए तो नहीं लिखा'मैंने कहा.

'हम पहिला बार चौथा पांचवे क्लास में पढ़ते थे तब कोई बोला था चिट्ठी पढ़ने. आ हम जो न पढ़े हरहरा के. उ हमको बोले बौआ तनी धीरे धीरे बांचो. नंबर नहीं मिलेगा तेज बांचने का. माने हमको त तेजे पर्हने में लगता था बड़ाई होगा. आज भी हम कुछ पर्ह्ते हैं त उहे बात याद आता है कि धीरे धीरे पर्हो नंबर नहीं मिलेगा तेज पर्हने का. तेज भी हर जगह  काम नहीं आता है. माने बताइये कोई आपको कहे कि नींद नहीं आ रहा त उल्टा गिनती गिनो सोते समय. आप फटाक से गिन दिए तेजी में… आ उठ के बैठ गए कि नींद तो आया नहीं हम त सबसे तेज गिन दिए ! धीरे धीरे गिनने वाला कैसे सूत गया.'

‘तुम्हें उस उम्र की बातें याद है?’

‘ई सब भूलने वाला बात है ? माने जब कोई अपने कलकत्ता वाले सैंयाजी के चिट्ठी लिखवाने बुलाती. लिख दो बौवा कि बाद सलाम के सैंयाजी के मालूम हो कि… शुरू में त बुझाया ही नहीं हमको ‘बाद सलाम के’ क्या?  ये ‘मालूम कि’ और ‘मालूम हो’ वाले डायलॉग... पर्हे लिखे हो न हो ये सबको आता था. जैसे आजकल फ़ोन उठाते ही हेलो बोलना होता है. काहे बोलना होता है पूछियेगा त किसी को नहीं पता होगा। वैसे ही एक शब्दावलिये थे चिट्ठी का. शुरू शुरू में हमें लिखना आता लेकिन ये शब्दावली नहीं। एक बार त जे न हुआ कि हमको एक ठो नयी नवेली दुल्हन का चिट्ठी लिखना था. दस साल का रहे होंगे हम. बच्चे से चिट्ठी लिखवाना उनके लिये भी बढ़िया था. बोली कि बउवा लिख दे - सैंयाजी के मालूम कि उँहा खइह ईहां अंचSईह. हम को बुझाया ही नहीं कि लिखना क्या है. हम लिख दिया - वहां खाना यहाँ अंचाना। अंचाना माने हाथ धोना हमको पते नहीं था'

'हा हा. पढ़ने वाला भी कंफ्यूज ही हो गया होगा'

'नहीं भैया कंफ्यूज क्या होगा। मुहावरा है. किताब से पहिले मुहावरा हम ऐसे ही सीखे। अनुवाद करना भी समझिये यहीं सीखे. एक ठो चिट्ठी होती जो सबके सामने बांचते घर भर के लोग बैठ के सुनते। और कभी कभी सीक्रेट बला भी बांचे हैं. लेकिन हम बिना सोचे पर्हते थे १०-१२ साल का उम्र में का बुझायेगा। छोटो को प्यार बड़ो को प्रणाम। सकुशल। आपकी कुशलता की ईश्वर से प्रार्थना। पूज्य, पूजनीय, सप्रेम। इति शुभम. … हम एक से पढ़ते दूसरे में लिखते. फेंट फेंट के चिट्टी का एक्सपर्ट बन गए थे.

हमलोग बरा बर्हिया टाइम में पले बर्हे।कलकत्ता जाने वाली चिट्ठी में समझ लीजिये कि माताजी क्या लिखवाती, पिताजी क्या लिखवाते आ पत्नी क्या धीरे धीरे हमको बुझाने लगा था रिश्ता उस्ता भी. अब कहाँ चिट्ठी और कहाँ पर्हने लिखने वाले. माने इतना तेजी से हमेशा बदलाव आता है कि हमीं लोग इतना कुछ देख लिए? पंद्रह पैसा के पोस्ट कार्ड से व्हाट्सऐप तक !  हमको लगता है पहिले ज़माना धीरे धीरे अपडेट होता था. ई फ़ोन के देखिये पता नहीं भीतरे भीतर दिन भर का अपडेट करते रहता है. हमारे खाने पीने के फ्रिकवेंसी से जादे इसका अपडेट होता है. ओहि गति से दुनिया भी अपडेट हो रही है.

खैर… हमरा नाम था चिट्ठी लिखने में. एक ठो नया दुल्हन का चिट्ठी लिखने गए थे. उसके ससुर बोले कि ‘ऐसा मत लिख देना कि उ पढ़ते ही चला आये. पता नहीं ऐसा क्या लिख देता है. अपना दिमाग भी लगाना होता है थोड़ा। समझे कि नहीं?’

हम पता नहीं उस समय हम क्या समझे पर लिखने का तरीका धीरे धीरे बदला और जब समझ आने की उम्र होने लगी त चिट्ठी लिखना बन्दे हो गया. चिट्ठी को फोन खा गया. आ पोस्टकार्ड, अंतरदेसी, टिकट के कुरियर.

‘सही कह रहे हो, वैसी चिट्ठी देखे तो एक ज़माना हो गया’  - मैंने धरा प्रवाह में बोल रहे बीरेंदर के बीच में बोला जैसे ये दिखाना हो कि मैं भी समझ रहा हूँ.

‘हाँ हम बटोर के रखे हैं कुछ. हमको त बहुत लगाव रहा चिट्ठी से. कैथी लिपि का पुस्तैनी चिट्ठी भी रखे हैं हम. बाबूजी दिए थे हमको. ईस्ट इंडिया कंपनी का स्टैम्प वाला। वैसे अब उ संग्रहलाय आइटम हो गया है.’

‘फिर तो सही में देखने लायक होगा. वो होगा मढ़वा के रखने का चीज’

‘वैसे कभी कभी लगता है कि सहेज के रखने से बर्हिया आजे का ज़माना है. डिलीट मार दिए ख़तम. नहीं त खुशबू में बसे खत गंगा में बहाने का जद्दोजहद हो जाता था शायर सब के.’

हम वापस चलने लगे तो बीरेंदर ने बाइक स्टार्ट करते हुए कहा - ‘आ एक ठो सबसे मजेदार बात तो बताना ही भूल गए. पाता कई लोग बड़ा संभाल के रखते थे जैसे कोई खजाना हो. गाँठ खोल के निकालते - कलकत्ता, सूरत, लुधियाना, बम्बई का पता. चुमड़ाया  हुआ कागज. कभी पुराना लिफाफा जिसमें प्रेषक लिखा होता, कभी किसी ठोंगे पर लिखा हुआ, दफ़्ती पर लिखा हुआ. साक्षरता थी नहीं और ऊपर से अभाव ! चिट्ठी लिखने अपना कागज कलम लेकर जाना पड़ता। कई बार पता हम पते को नए कागज पर उतार कर दे देते. लोग बड़ा आशीर्वाद देते। और एक बार पता बोल कर लिखा रही थी एक चाची। गाम, पोस्ट, जिला सब लिखाने के बाद बोली - हुहें पान के गुमटिया प दिन भर बैठे रहते हैं.

हम भी लिफाफा पर पता के साथ लिख के आ गए - पान के गुमटिया पर दिन भर बैठे रहते हैं.

बहुत दिन तक ये बात सोच कर लगता कि हम भी क्या बकलोल थे… और आज देखिये कैसे चाव से सुना रहे हैं. यही है नोस्टाल्जियाने का ...   आ ऐसा नहीं है कि लोग दूर थे उस जुग में अब भले व्हाट्सऐप वाले नहीं सोच सकते कि कैसा रहा होगा। चिट्ठी और मोबाइल में माने वही अंतर है जो फेसबुक और कॉफ़ी हाउस आ चौपाल में मिलने में ! व्हाट्सऐप आ इन्टरनेट टूल है. टूल से थोड़े दिल जुड़ता है. पहिले चुमड़ाये कागज में लोग पता संभाल के रख लेते थे अब फ़ोन में नंबर रह के भी नहीं बतिया पाते हैं एक दूसरे से. का कीजियेगा यही सब है. '

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~Abhishek Ojha~

लिखावट

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कुछ दिनों पहले एक मीटिंग में किसी को फाउंटेन पेन से लिखते देखा। हरे रंग की स्याही। घुमावदार लिखावट - कैलीग्राफी जैसी । मुझे ठीक ठीक याद नहीं इससे पहले मैंने ऐसी लिखावट कब देखा था। बहुत अच्छा सा लगा। कई पुरानी बातें याद आयी। सालों पुरानी। खूबसूरत बातें।

सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची  - ग्यारहवीं कक्षा। केमिस्ट्री के एक प्रोफ़ेसर मोल कॉन्सेप्ट पढ़ाते थे। उनसे जुडी दो बातें याद हैं - उनकी बंधी हुई चुटिया और लिखावट। ब्लैक बोर्ड पर जब वो लिखते तो उनके हाथों में एक थिरक  होती. 'Avogadro'लिखते तो 'g'के दो गोले बिना चॉक उठाये लिखने के बाद उसके ऊपर की फुनगी बनाने के लिए वो चॉक उठाकर एक झटके से हाथ घुमाते. उनका चॉक ऐसे चलता किअक्षरों के वक्र मोटे-पतले-लचकते हुए ब्लैकबोर्ड पर सौंदर्य बना देते।

रसायन  उनसे कितना सीखा वो याद नहीं पर हम उनके बारे में दो बातें बोलते और दोनों में उनकी लिखावट का जिक्र आता - 'ये किसी जमाने में महारानी विक्टोरिया का शाही फरमान लिखते थे गलती से केमिस्ट्री पढाने लगे'. और दूसरी ये कि लिखते समय उनके हाथ और उनके चुटिया के हार्मोनिक मोशनकी फ्रीक्वेंसी सामान होती है. किसी स्प्रिंग से जुड़े की तरह दोनों एक लय में घूमते.

मुझे नहीं याद मैंने उससे अच्छी अंग्रेजी की लिखावट कभी देखा हो वो भी ब्लैक बोर्ड पर  - लाइव ! उनका लिखा हुआ मिटते देख ऐसे लगता जैसे किसी ने खूबसूरतरेत मंडल बनाकर मिटा दिया हो (यहाँ रूककर रेत मंडल के बारे में पढ़ लीजिये। कभी मौका मिले तो उसका बनना बिगड़ना जरूर देखिये और महसूस कीजिये - संसार चक्र।) हमें ऐसी लिखावट अच्छी तो बहुत लगती पर ये उम्र हमने अंको, समीकरणों और ढलान पर गेंद लुढ़कने की गति को समझने जैसी बातों में गुजार दी। ये शब्दों से साथ छूटने की उम्र थी. लिखावट की जगह घसीट कर कम से कम लिखने और ज्यादा से ज्यादा समझने के दिन थे. कागज पर अक्षर की जगह तीर, गोलाई और रेखा चित्रों की खिंचाई होती। कर्व अक्षरों की जगह इक्वेशनों के बनने लगे. हिंदी और अंग्रेजी की कक्षायें सिर्फ जरुरत की हाजिरी भर के लिए गए. ...हमारी लिखावट बुरी नहीं तो कैलीग्राफीजैसी भी नहीं हो पायी.

कलम से याद आया। हमारी पीढ़ी ने घोर परिवर्तन देखा है। पीढ़ी का पता नहीं पर मैंने देखा है। गाँव के स्कूल में जहाँ मैंने पढ़ना-लिखना सीखा। गुरुकुल के जमाने और उसमें कुछ ख़ास अंतर नहीं आ पाया था। लकड़ी की पटरी (तख्ती) और खड़िया  पर मैंने लिखना सीखा - स्लेट और चॉक-पेन्सिल नहीं ढेले सी खड़िया और पटरी। पटरी को शीशे की दवात की पेंदी से घिस कर चमकाना फिर खड़िया का घोल कर धागे से लाइनें बना कर उस पर सरकंडे की कलम से लिखा है मैंने। (घर पर पड़े किसी जमाने के मिट्टी  के दवात भी देखे हैं लेकिन वो कभी इस्तेमाल नहीं किया) लिख लेने के बाद मिटा कर फिर से लिखने को तैयार हो  जाती पटरी। रेत मंडल  की तरह - नो अटैचमेंट्स। लिखने के बाद वाह वाही मिली और बात वहीँ ख़त्म - मिटा कर आगे बढ़ो. सहेज कर रखने का हिसाब नहीं था. इन्वायरमेंट फ्रेंडली ! एक पटरी पीढ़ियों चलती। पटरी और दवात का भी योगदान कम नहीं होता पढ़ाई में -  'फलाने की पटरी है मत लिखो इस पर. दिमाग के भोथर थे पाँचवी पास भी नहीं कर पाए. अपना लिखा खुदे नहीं पढ़ पाते हैं'.

पटरी पर लाइन बनाने के लिए एक धागे को खड़िया के घोल में डूबा कर पटरी के दोनों छोरों पर रख खींच कर छोड़ा जाता. छींटे से लाइन बनती। यज्ञ वेदी पर लाइन बन रही हो जैसे. ज्यादा घोल हो तो लाइन मोटी और भद्दी हो जाती. कम हो जाती तो लाइन दिखती ही नहीं. कम-ज्यादा के संतुलन का अनुमान वहीँ से लगने लगता. लिखने के बाद बचे हिस्से में डिजाइन भी बना देते। शब्द लिखने के लिए सीधी लाइने और गिनती लिखने के लिए ग्रिड. पटरी नहीं कैनवस !

पटरी चमकाना एक झंझट होता। हरे पत्ते लगाकर घिसना। उसी में तेज लड़के पुरानी बैटरी से निकले कालिख को कपडे में लपेट कर पटरी को काला करने का जुगाड़ बनाते. और स्कूल में खड़िया और छोटी मोटी खेलने की चीजों के बदले पटरी काली कर देते. उसी उम्र से व्यापर-धंधे की समझ होती कुछ बच्चों में।

स्याही से परिचय हुआ पुड़िआ घोल कर स्याही बनाने से. हर कपडे की जेब में स्याही लगती। स्कूल ले जाने वाले थैले में भी स्याही लगती। कलम सरकंडे से बनती, तेज धार वाले चाकू से छील कर कैलीग्राफी के निब जैसी। निब  काटना कला था अच्छा नहीं कटा तो बेकार - भोथर. कलम को दवात में डूबा-डूबा कर लिखा जाता । ज्यादा स्याही आ गयी तो फिर भोथर अक्षर. हमने ऐसे लिखना सीखा। -ऑर्गेनिक तरीके से. खड़िया, पटरी, स्लेट, पेन्सिल (स्लेट पर लिखने वाली). फिर रुलदार और चार लाइन वाली कॉपी. लिखने और छपाई के मिलाकर चार तरीके से अंग्रेजी के अक्षर लिखने सीखा था हमने. फाउंटेन पेन  बहुत बाद में हाथ लगी। इन दिनों फाउंटेन पेन के साथ होल्डर और निब से भी कुछ दिन लिखा.  निब भी हिंदी के लिए अलग, अंग्रेजी के लिए अलग. कक्षा छः में ताँबे के जी मार्का पिन को होल्डर में लगाना और लिखना सीखना शुरू ही किया था कि एक झटके से दूसरी दुनिया में ट्रांसपोर्ट हो गया. - टाट से बेंच. हरे रंग के शीशे के बोर्ड ! पढ़ाने वाले सर और हम एक पीढ़ी फाँदकर बॉल पॉइंट पेन पर आ गए. जैसे बचपन में तेज होने पर मास्टर साहब क्लास फँदा देते थे।

फाउंटेन पेन से लिखना शुरू होते ही बंद हो गया. शौक होकर रह गया. उन दिनों फाउंटेन पेन आते जिनमें रबर की ट्यूब होती जिसे पिचकारी की तरह दबा कर दवात में निब डुबोकर स्याही भरी जाती. सालों बाद मुझे किसी ने इतनी महँगी पेन दी जितने में पूरे मोहल्ले की दो चार साल की स्टेशनरी आ गयी होती। वो मैंने वैसे ही सहेज कर रखा है. फिर किसी ने पंख लगा हुआ होल्डर और खूबसूरत दवात भी दिया. इतना खूबसूरत की मुझे खोलने की हिम्मत नहीं हुई. सजा कर रखा हुआ है वैसे ही एक खूबसूरत डायरी के साथ - अटैचमेंट !

मेरी पीढ़ी ही नहीं मुझसे पहले की पीढ़ी के भी कई लोगों ने संभवतः ऐसे नहीं पढ़ा होगा. कई चीजें थी जो अब लुप्त हो गयी. स्याही की पुड़िया, सोखता कागज, स्याही से रंगे कपडे-चेहरे-थैले (फाउंटेन पेन की स्याही को सर में पोंछते रहते और हाथ जब जुल्फों से होते हुए चेहरे पर भी चल जाता...  तो चेहरा रंगीन हो जाता !), गर्म पानी से फाउंटेन पेन की सफाई. अब तो स्याही न्यूज में सिर्फ तभी आती है जब किसी के चेहरे पर पोती जाती है !

कई ऐसे अद्भुत 'बेकार'काम हैं जिसके लिए लोग कई बार पूछ लेते हैं ये कहाँ से सीखा - गांठे बनाना। जूट से रस्सी बनाना। कैसे बताया जाय कहाँ से कहाँ और कब क्या सीखा.


लिखावट एक प्राचीन और मरती हुई कला है.  ये वो कला है जिसके आर्टिस्ट और आप में सिर्फ इतना फर्क होता है कि वो आर्ट बना देते हैं और आप देख कर सोचते तो हैं कि ये तो मैं भी बना सकता हूँ पर आप कभी बनाते नहीं।

आपको लिखना आता है तो लिखिए. कभी कभार ही सही. कोशिश कीजिये आप निराश नहीं होंगे. मैंने अपने फाउंटेन पेन में स्याही कार्टरेज भरा. 'कैंट टॉक व्हाट्सऐप ओनली'के जमाने में लिखना क्या बोलना भी हमारे ही जीवनकाल में खत्म हो जाये  तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ! जैसे चिट्ठियां ख़त्म हो गयी... चिट्ठियों से याद आया. कुछ लोगों की लिखावट गोल-मोती जैसी इतनी अच्छी होती जैसे लिखा नहीं पेंटिंग की हो. - लिखते नहीं छाप देते थे लोग! वैसे अक्षरों का फॉण्ट बनाना चाहिये. ये फॉण्ट हम जिसमें टाइप कर रहे हैं ये भी कोई फॉण्ट है !

...लेकिन हम भी देखिये टाइप करके कह रहे हैं कि - लिखना चाहिए :)

~Abhishek Ojha~


सीट नं ६३

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बनारस से बलिया जितना पास है जाने के पहले उतना ही ज्यादा सोचना पड़ता है  - व्युत्क्रमानुपात में. इतनी कम दुरी है कि यात्रा तो सड़क से ही करनी चाहिए। ..पर सड़क से की गयी यात्राओं का इतिहास कुछ ऐसा विकट घनघोर रहा होगा कि कोई उसकी बात भी नहीं करता - जाना तो दूर की बात है. और रेल यात्रा का तो ऐसा है कि आपको भी पता ही होगा - सिंगल लाइन,  टाइमिंग , क्रॉसिंग नहीं होनी चाहिए. चेन पूलिंग। यानि बनारस से बलिया जाने वाले प्रॉब्लमकी बॉउंड्री कंडीशंस ही इतनी है कि फीजिबल सोल्यूशन बहुत कम हो जाता हैं. (ऑप्टिमाईज़ेशन  की भाषा में उपमा कितनी सरल है). जिस दिन अमेरिका से दिल्ली तक आने के लिए जितना सोचना पड़ता है उससे कम या उतना बनारस से बलिया जाने के लिए सोचना पड़े उस दिन मैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश को विकसित घोषित कर दूंगा. भूमिका ख़त्म.

भूमिकोपरांत ब्लॉग के पाठक को मालूम हो कि पिछले दिनों हमें बनारस से बलिया जाना था. शुभचिंतकों से पता चला कि एक नयी-नयी बहुत अच्छी ट्रेन चली है. सुबह सुबह मिल जाए तो तीन घंटा में बलिया लगा देती है. शोध करने के बाद एक ही बचे विकल्प में से उसे ही चुन लिया गया। उसके बाद अनुभवी लोगों की सीख - 'बनारस से बलिया के लिए रिजर्वेशन कौन कराता है? - बौराह'को न मानते हुए (या मानते हुए भी हो सकता है - बौराहवाला पार्ट) हम वो भी करा लिए.

ट्रेन उस दिन एकदम से राइट टाइम थी सो आधे घंटे की देरी से प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयी. असुविधा से होने वाले खेद की नौबत भी नहीं आयी। आती तो हमारी योजना बाहर जाकर चाय पीने की। एक बार बनारस में कुल्हड़ में चाय पीए थे वो 'मोमेंट'दोहरा आते। ख़ैर... हम अंदर गए तो कोच में घमासान मचा था. एक लड़का सीट नंबर ६३ पर पहले से सो रहा था. एक सज्जन बोल रहे थे कि उनका रिजर्वेशन है लेकिन लग रहा है कि बैठने को जगह भी नहीं मिलेगी. एक अन्य सज्जन पर्ची पर नीले रंग की स्याही (स्याही को स्याही मत समझना, रिफ़िल वाली - बॉल पॉइंट पेन से  लिखे थे) से एक के नीचे एक पाँच लिखे नंबर (जैसे बनिए के दूकान से सामान लाने के लिए लिस्ट लिखी गयी हो) देखकर बोल रहे थे - 'पांड़ेजी बैठिये न हटा के. तिरसठ, चौसठ, इक्यावन, बावन और पचपन अपना बर्थ है'. पर्ची लहराते हुए पांडे जी के मित्र युद्ध स्तर पर सीटों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे।

हम सोच में पड़े थे कि ६३ नम्बर सीट तो ईमेल, एसेमेस वग़ैरह के हिसाब से रेलवे ने हमको भी ऐलॉटकिया है  तभी एक नौजवान आया और सीट पर लेटे हुए लड़के से बोला - 'हम  नीचे गए थे पानी पीने तो आप लेट गए ? हमारा रिजर्वेशन है। उठिए'.

लड़का लेटे लेटे बोला - 'हम जौनपुर से सोते हुए आ रहे हैं और आपका रिजर्वेशन है? कम झूठ बोला कीजिए महाराज'
मुझे  देखकर पैर मोड़ते हुए बोला - 'बैठ जाइए। सबके पास चालुए टिकटहै'. या तो लड़के को लगा कि एक यही है जिसने अभी तक सीट पर दावा नहीं ठोका। या समझ आ गया होगा कि ज़रूर इसी के पास टिकट है। मिला लेने में ही फ़ायदा है - अनुभव भी तो कोई चीज़ होती है!

ऐसा नहीं है कि हमने ये सब कभी देखा नहीं है। पर ये पर्ची वाला नया कॉन्सेप्ट था। बिलकुल नया।

हम एहसान में मिली जगह पर बैठ गए. जो पानी लेने उतरे थे वो भी खिसका के बैठ लिए। पर्ची वाले सज्जन को अभी भी एक सीट कम पड़ रही थी। उनका फ़रमान था 'हमारा सीट है कम से कम बैठने तो दीजिए'.
लड़के ने बोला - 'आपका सीट  कैसे हो गया? टिकट दिखाइए हम हट जाएंगे.'
'टिकट हम आपको क्यों दिखाएं ? टीटी आएगा तो दिखाएँगे'.
'टीटी आएगा और बोलेगा तो हम भी हट जाएंगे ! टीटीये लिख के दिया है क्या आपको सीट नम्बर? या ख़ुद ही लिख लिए हैं? पर्ची पर लिख लेने से सीट आपका हो जाएगा?'पर्ची की महिमा से वो अपने मित्र पांडेजी को सपरिवार तो बैठा चुके थे लेकिन इस तर्क पर अंतिम सीट उन्होंने छोड़ दिया। उन्हें लगा होगा कि कट लेने में ही भलाई है। 'क्या मुँह लगा जाय'वाला लूक देकर वो कट लिए। फ़िलहाल हम भीअपनेसीट पर बैठ ही गए थे। जौनपुर से लेटकर आ रहा लड़का भी उठकर बैठ गया और जो पानी लेने उतरे थे उनका भी सीट पर दूसरी तरफ़ क़ब्ज़ा हो ही गया था। क़ब्ज़े के अवैध होने की बात नहीं थी क्योंकि जब हमने अंततः दिखाया कि टिकट हमारे पास है तो बात ये हो गयी कि दिन का रिज़र्वेशन होता ही नहीं है !लेकिन मत ये भी था कि भाई जिसने नासमझी में दिन का रिज़र्वेशन करा लिया है तो उसको बैठने को तो मिलना चाहिए ...और वो हमें मिल ही गया था। तो सब कुछ जैसा होना चाहिए वैसा ही हो गया था। आगे कुछ कहने सुनने को बचा नहीं था।


इन सबके परे हमें एक चीज़ बहुत अच्छी लगी। इस रूट (की सभी लाइनें व्यस्त होने वाली बात नहीं है बिना पूरी बात पढ़े कंक्लूड मत कीजिए) पर मैं उस उम्र से चल रहा हूँ जब इस इलाक़े में बहुत अभाव था। ग़रीबी थी। घनघोर। (अभी भी है पर... ) तब लोग झोले-बोरे में समान लेकर चलते। कपड़े इतने झकाझक साफ़ नहीं पहनते। अब सबके हाथ में स्मार्ट फ़ोन और सबके पास बैग। खिड़की से बाहर देखने पर साइकिल की जगह मोटरसाइकिलें। जीवन स्तर में  परिवर्तन के लिए किसी इंडेक्सको देखने की ज़रूरत नहीं होती। (इसे राजनीति से जोड़कर मत पढ़िए, व्यक्तिगत अनुभव है। और वो इलाक़ा वैसे ही धीमी गति का है। फ़टाक से कुछ भी कंक्लूड मत कीजिए)। वैसे ये भी है कि स्वच्छ भारत में सरकार ने जब शौचालय बनवा के दिया तो लोगों ने अपने घरों के सामने स्ट्रेटजिक लोकेशनपर बनवाया ताकि उसमें गोईंठा वग़ैरह रखा जा सके!

खैर... हमारे पास बात करने की कमी तो होती नहीं है तो बातों बातों में पता चला युसुफ़पुर (ज़िला ग़ाज़ीपुर) आ रहा है. कहने का मतलब कि ट्रेन युसुफपुर पहुँच रही थी युसुफपुर तो जहाँ है वहीँ रहेगा. आये तो टीटी साहब. बहुत कम सीटें थी जिनपर टिकट वाले लोग थे तो स्ट्रेटजिक लोकेशन देखकर बैठ गए सीट नंबर ६३ पर ...एडजस्ट कर-करा के.

'टिकट बनवाएंगे कि किराया देंगे?'उद्घोषणा के साथ. किसी से टिकट मांगने की जरुरत नहीं समझी उन्होंने. उनका तो ये सब रोज का था. केवल कहने को नहीं। ...सच में रोज का. चोरी अकेले की हो तो चोरी होती होगी - सामूहिक थी तो मामला ध्वनिमत से ही पारित होना था. जैसा अक्सर होता है यहाँ भी चोरी चोरी नहीं मज़बूरी थी. पर्ची वाले सज्जन ने कहा - 'देखिये अब जनरल में जाना तो संभव ही नहीं था ऊपर से परिवार साथ है तो कुछ कर नहीं सकते थे.'

'सही बात है. उसकी तो गुंजाइस ही नहीं है. चलिए कुछ दे दीजिये।'  टीटी  ने सहमत होते हुए कहा। मुझे लगा ये कुछ दे दीजिये क्या होता है? एकदम लूजूर-पुजूर टीटी। ये भी नया ही था थोड़ा. ऐसे थोड़े कोई मांगता है - माने श्रद्धा से कुछ दे दीजिये ! खैर.. रेल मंत्रालय ने अटेंडेंटको तो 'नो टिप प्लीज' की वर्दी पहना दी पहले टीटी को ही पहना देते ! जौनपुर से आ रहा होनहार लड़का अपना बैग ठीक करते हुए खड़ा हुआ - 'हमारा तो स्टेशन आ गया... बाकी आप लोग तो पढ़े लिखे लोग हैं. समझदार हैं. देख लीजिये. कुछ न कुछ हिसाब बैठ ही जाएगा.'

'पढ़े लिखे होने'की ऐसे याद दिला गया जैसे चिंतामग्न बानरों से जामवंत के रोल में कह रहा हो- 'स्टेशन अयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार'और निकल लिया।

इसी बीच किसी के फ़ोन पर 'कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया'बजा तो कन्फर्म हुआ गाड़ी  सही रूट पर ही है। श्रद्धानुसार बिना किसी झंझट कुछ कुछ लोगों ने टीटीजी को चढ़ावा दिया। ट्रेन रुकी - युसुफ़पुर।

चाय-गरम चाय वाले से मैंने पूछा तो बोला - 'दस रुपए'। खुदा क़सम एक बात झूठ नहीं लिख रहे हैं ...दस रुपया सुनकर हमें लगा महँगाई बहुत बढ़ गयी है (खुदा क़सम का ऐसा है कि एक दोस्त बचपन में झट से 'खुदा क़सम'बोल देता। एक दिन अकेले में राज की बात बताया कि बहुत सोच समझ के उसने फ़ाइनलाइजकिया था कि झूठ बोलने में विद्या क़सम खाने का रिस्क नहीं ले सकते, माँ क़सम का भी नहीं। भगवान क़सम में भी रिस्क तो है ही। खुदा कसम में कोई रिस्क नहीं।) दस रुपया? युसुफ़पुर में? हमने चाय नहीं पी। जीवन स्तर-वस्त्र सब तो ठीक है लेकिन युसुफ़पुर में दस रुपए की चाय? वैसे युसुफ़पुर अगर कोई इंसान होता तो लड़ पड़ता - क्यों भाई ? हमारे यहाँ की चाय दस रूपये की क्यों नहीं हो सकती ! डिस्क्रिमिनेशनका इल्जाम लग जाता सो अलग ! खैर... चाय के तो हम वैसे भी बहुत शौक़ीन नहीं पर कुछ बातें समझ सी आ गयी। ...कि कैसे जब सुना था किसी को कहते हुए कि 'चार आना पौवा, पेट भरौवा’ जलेबी मिला करती थी। बात याद रह गयी थी बात का मर्म थोड़ा सा ही सही ..समझ अब आया। या कि कैसे कोई सब्ज़ी लेकर आता और उनके बूढ़े पिताजी पूछते कि सब्ज़ी कितने की मिली तो २० रुपए किलो के लिए भी कहते 'बाबूजी २ रुपए किलो’. या फिर अभी हाल में पढ़ा ये ट्वीट। दो रुपए तक की चाय तो हमने भी इस रूट पर बिकते देखा है।

हरे भरे खेतों के बीच से गुज़रते हुए एक जगह रेलवे लाइन के समांतर एक कतार में खड़े कई ट्रक दिखे। ड्राइवर-खलासी खाना बनाने की तैयारी कर रहे थे। आटा गुँथते, सब्ज़ी काटते, एक अरसे बाद किसी को स्टोव (जिसे एक उम्र तक हम 'स्टोप'सुना करते) में हवा भरते देखा! एक ट्रक पर पूनम, सोनी, अजय समेत पाँच नाम लिखे थे। लगा जैसे 'ट्रान्स्पोर्ट कम्पनी' (जैसा हर ट्रक पर लिखा हुआ था - यादव ट्रान्सपोर्ट कम्पनी वग़ैरह) के मालिक को एक ही ट्रक पर पाँच नाम किसी मजबूरी में ज़बरन घुसाने पड़ गए थे। एक ट्रक पर तुलसी बाबा की चौपाई लिखी थी - 'चलत बिमान कोलाहल होई, जय रघुबीर कहई सबु कोई'। ड्राइवर के बैठने की जगह पायलट लिखने से बहुत ऊँचे स्तर की चीज़ थी ये। कुछ चीज़ें देखकर बिना किसी कारण ही अच्छा लगता है। चलती ट्रेन से ये एक झलक भी वैसा ही था। तुलसी बाबा की उड़ते हुए विमान में कोलाहल होने की दृष्टि भी और उसका ट्रक पर लिखा होना दोनों - स्वीट.


वैसे तो हमें थोड़ा और आगे तक जाना था लेकिन बलिया स्टेशन आया तो हम उतर गए। एक्सप्रेस ट्रेन छोटे स्टेशनों पर रूकती नहीं और ऊपर से रविवार का दिन। ..नहीं तो 'पढ़ने वाले लड़के'ट्रेन रोक ही देते। इस इलाक़े में पढ़ने वाले लड़के आज भी गुणी होते हैं - 'बलिया ज़िला घर बा त कौन बात के डर बा’ परम्परा के वाहक । चेन, वैक्यूम वग़ैरह खींच-काट के ट्रेन रोकने में सिद्धहस्त। (वैक्यूमकैसे कट जाता है पता नहीं  - बस सुना है) लेकिन ऐसा नहीं होता तो छपरा तक चले जाने का ‘रिक्स’ था तो ‘हम तो कहेंगे कि चलिए बीच में कहीं ना कहीं तो ज़रूर रुकेगी’ के आश्वासन के बाद भी हम उतर गए।

 स्टेशन से बाहर निकलते ही एक लड़का आया - 'भैया, गाड़ी होगा?'

हमने बात करने में रूचि दिखाई तो दो और आ गए। मैंने मन में जोड़ घटाव किया और बताया कि किलोमीटर के हिसाब से पैसे कुछ ज़्यादा हैं। मैं भोजपुरी में बात कर रहा था लड़का हिंदी में !

'हाँ भैया, ओला उबर सब किलोमीटर का हिसाब कर दिया है शहर में लेकिन यहाँ हमलोग को पोसातानहीं है'। गाड़ी की बात छोड़कर मैंने पहले एक गम्भीर सवाल पूछ लिया - 'ए भाई, बलियो में हिंदी बोलाए लागी त भोजपुरिया कहाँ बोलायी?'लड़का झेंप गया पर बात हिंदी में ही करता रहा। इसी बीच एक दूसरा राज़ी हो गया चलिए हम ले चलेंगे। कॉम्पटिशनका फ़ायदा ! ये दुनिया में हर जगह काम कर जाता है। मोर्गन स्टैन्ली और गोल्ड्मन सैक्सके इग्ज़ेक्युटिव्ज़से मीटिंग में कह दीजिए कि 'योर रेट ईज़ नॉट कम्पेटिटिव। कंपटिटर्स आर गिविंग अस बेटर रेट'या ज़िला बलिया के गाड़ी वाले हों। मामला कम्पेटिटिव रेट की बात हो जाने पर अपने आप सही रेट परकन्वर्जकर जाता है। सामने वाला का टोन ही बदल जाता है. जय हो कम्पटीशन देवता।  थोड़ी दूर खड़ा एक और गाड़ी वाला हमारी बात सुन रहा था। फ़ाइनल होने के बाद वो आया और बोला कि 'भैया हमारी वाली एसी गाड़ी है लेकिन उसमें थोड़ा ज़्यादा लगेगा'। मैंने उसे बताया मैं भीआइपी तो हूँ नहीं, बात नहीं बनती तो बस से जाने का प्लान था। तो बोला -'भैया, भीआइपी के कौनो बात नइखे। एसिया में तनी ख़र्चा ढेर लागेला'। हमें उसकी ईमानदार बात पसंद आयी। गाड़ी यानी एम्बेसडर। अभी भी हिंद मोटर में काम किए लोगों के नाती-पोतों को नोस्टालज़ियानेका काम बख़ूबी कर रही हैं खंडहर हो चुकी अंबेसडर कारें।

निर्माणाधीन सड़क अपना नाम सार्थक कर रही थी। सड़क के दोनों तरफ़ हर चीज पर धूल की इतनी गहरी परत थी कि - चढ़ै न दूजो रंग. क्या पेड़, पत्ते और क्या दूकान-घर. घुटन के स्तर की धूल। पर पैड़ल रिक्शा की जगह बैटरी रिक्शा देखना उम्मीद से ज्यादा सुखद था. और ये धूल-धक्कड, पीं-पाँ से भरा 'बलिया शहर' (शहर ही कहते हैं लोग! इस बात पर पटना की याद आयी जब बैरीकूल ने कहा था - भैया, जैसे न्यू यॉर्क को एनवायीसी कहते हैं वैसे ही पटना को भी पटना सिटी कहते हैं।) ५ मिनट में निकल गया तब हवा भी मन को चकाचक करने वाली मिली और हरे भरे खेत भी। बीच बीच में इलाक़े का फलता फूलता उद्योग - प्राइवेट स्कूल और ईंट भट्ठे। यहाँ फिर एक बार लगा जैसे भी हुआ हो बदलाव तो हुआ है। जींस पहने, स्कूटी चलाते लड़कियाँ भी दिखी।

लेकिन असली मन वाली बात हुई जब गाना बजा। और जो मुस्कान मेरे चेहरे पर आयी वो खुदा क़सम झूठ नहीं बोल रहे हैं (फिर से !) वैसी मुस्कान पहली बार इश्क़ में बौराए इंसान के चेहरे पर भी नहीं आती। जब हम पढ़ने वाले लड़के (गुणी नहीं थे, ट्रेन व्रेन का चेन नहीं खींचे है) हुआ करते थे उन दिनों टेम्पो, विक्रम, बस वग़ैरह में एक ख़ास क़िस्म के गाने बजते। और उन दिनों दिमाग़ में मेमोरी भी बहुत होती अंट-शंट बातें याद रखने की ...तो हमें कुछ ऐसे धाँसू गानों की प्ले लिस्ट याद हो गयी थी (गाड़ियों में सुन सुन के घर में वो कैसेट नहीं थे)। ए-साइड में किस गाने के बाद कौन गाना बजेगा, बी-साइड में कौन सा। टी-सिरीज़ के गिने चुने तो लोकप्रिय कैसेट थे इस धाँसू श्रेणी के। यूँ तो कैसेट से और बाद में सीडी से भी बजने वाले गानों की आवाज़, सुर और गति का एक अलग ही स्तर होता - टेम्पो के बाजे में जो मोटर जैसा कुछ होता वो कुछ ज्यादा ही गति से चलते । जिसने वो सुना है वही ये वाली बात समझ सकता है! बिन अनुभव किए वो बात नहीं समझ आनी। तो हम आगे लिखने की कोशिश भी नहीं करने जा रहे। पेन ड्राइव से बज रहे गानों को सुन के लगा ... बदलते ज़माने में कुछ तो है जो बचा हुआ है। - वही प्लेलिस्ट. हमारी ना छुप सकने वाली मुस्कान पर लड़के ने गाने का वोल्यूमबढ़ा दिया और उसके बाद अगला गाना मुहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में जो न गूंजा -

 .... मितवाआSS भुउउउउल न जाना मुझSकोओओ...।


~Abhishek Ojha~

तीन सामयिक बातें

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तीन बातें का मतलब तीन ही नहीं, अब शीर्षक कुछ तो रखना पड़ेगा न ...बातें निकलेगी तो एक दुसरे से लिंकित होते दूर तलक जाए या आस-पास ही मंडराती रहे ...तीन पर तो नहीं ही रुकने वाली। पढ़ते हुए जहाँ भी लिंक मिले लपक के (क्लिक कर के) पढ़ आइयेगा क्योंकि असली बात वहीँ है. -


१. जेएनयू

आधी बात तो आपको जेएनयू सुनते ही समझ आ गयी होगी. अब ये कहने को तो यूनिवर्सिटी ही है पर न्यूज में हर बात के लिए आता है केवल पढाई-लिखाई से जुड़ी बातों को छोड़कर. किसी नाम को एक विचारधारा विशेष का पर्याय बन जाने के लिए प्रयास तो बहुत करना पडा होगा, नहीं ?

मेरी आदत है वहां टांग नहीं घुसाने की जहाँ का कोई आईडिया नहीं पर यहाँ आइडिया था तो... एक व्हाट्सऐप ग्रुप पर जब जेएनयू के प्रोफ़ेसरों के लिखे कुछ आर्टिकल आये तो हमें लगा लोग कुछ भी लिख दे रहे हैं ! अखबार में छपे और टीवी पर दिखने वाले विद्वताझाड़कों (शब्द सोर्स) से हम प्रभावित होना बहुत पहले छोड़ चुके। उसके कई कारण है. एक कारण ये भी है कि खुद भी थोड़ा बहुत तथाकथित विशेषज्ञ की हैसियत से छप चुके हैं (अब बताइये आज से तीन साल पहले जो बिटकॉइन पर लिखता था उसे तो भर-भर के पैसे बना लेने चाहिए थे, नहीं? ☺) और हार्वर्ड, स्टेंफर्ड, एमआईटी जैसे भारी-भारी डिग्री और प्रोफाइल वाले लोगों के साथ उठाना बैठना कुछ यूँ है कि (बैरीकूल की भाषा में कहें तो -) घंटा हम उससे अब इम्प्रेस नहीं होते  ☺ ... प्रोफ़ेसरी का भी आईडिया है. और फिर ‘धन्य धन्य ट्विट्टर कुमारा, तुम समान नहि कोउ उपकारा’. ट्विट्टर न होता तो हम बहुत से बे सिर पैर के बात करने वाले विद्वताझाड़कों को सीरियसली ही लेते रह जाते.


तो कुल मिला के हमें लगा कि आर्टिकल लिखने वालों की बात में टांग घुसाने भर का आईडिया हमें है. और ये लिखने वाले लोग कोई तोप-तमंचा नहीं है. तो हमने एक बड़ा संयमित सा जवाब लिखा. कॉलेज के दोस्तों ने कहा ‘चापे हो’ (माने अच्छा है). लेकिन ऐसा है कि विचारधारा विशेष के लोग अपनी बात कह के निकल लेते हैं. आपके तर्क सुनते हैं या नहीं ये आप सोचिये. खैर... तो वो बात यूँ थी. पढ़ा जाय - JNU Attendance row (वैसे हम बोरिंग बात तो नहीं करते पर पढ़ते-पढ़ते आप पर अगर बोरियत माता सवार हो जाएँ तो अगली बात पर चले जाएँ, शायद उसमें कुछ मजे की बात मिल जाए. फिर से वापस आकर पढ़ने का ऑप्शन कहीं गया थोड़े है). सोचा हिंदी में अनुवाद किया जाय पर अंग्रेजी में ही पढ़ आइये.


२. आँख मारने वाली लड़की


वायरल, एपिडेमिक, मारक सब हो चूका तो ऐसा तो नहीं है कि आपने क्लिप नहीं देखा होगा. और मौसम भी है फगुआ का तो वैसे भी भूगोल, कर्व, तरंग, एपिडेमिक सबका मतलब और इक्वेशन बदल जाता है. सब कुछ ऐसे पढ़ा जाता है -

तन्वी श्यामा शिखरि दशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी. मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभि।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां. या तत्रा स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः।

इसका अर्थ गूगल करके पढ़िए. (मघापर लिखने का साइड इफ़ेक्ट है).

पर सच बताएं तो हमें इस क्लिप में कुछ अलौकिक सा नहीं नहीं लगा (अपना अपना स्टैण्डर्ड है भाई ☺). ये जरूर लगा कि लोग फ़ोन, फ़िल्टर और स्क्रीन में कुछ यूँ घुसे होते हैं कि भूलने लगे हैं अदाहोती क्या है ! नैन नक्श, चाल-ढाल, मुस्कुराना, शर्माना ...? धीरे-धीरे साधारण बातें भी अद्भुत हो ही जानी है. जैसे फसलें कौन पहचान पाता है? आलू, टमाटर, गेंहू, बैगन, चना इन्हीं को खेत में लगा दिखा दो... कितने लोग पहचान पायेंगे? और एवोल्युशनरी बायोलॉजीकी मानें तो इन्हें पहचानना तो हमारे जींस (पहनने वाला नहीं गुणसूत्र वाला) में हो जाना चाहिए था अब तक. वैसे ही... फेसबुक पर फ़िल्टर के पीछे के चेहरे लाइक करते करते हम भूल ही गए हैं कि ‘अदा’, हाव भाव, एक्सप्रेशन होता क्या है ! ज्यादा छोड़िये पिछली बार आपने किसी को सुकून से सोते हुए कब देखा था? किसी को प्यार से कब जगाया था? धुप्प अँधेरी रात में आकशगंगा कब देखा था? किसी के साथ सुकून से बैठ के बात के अलावा और कुछ भी नहीं किया हो... ऐसा कितना समय बिताया.? कभी किसी के साथ बैठकर आकाश में सप्तर्षि और ध्रुव तारा के साथ मृग-लुब्धक-व्याध देखते हुए दिशा और समय का अनुमान लगाया? (एक उम्र में मैंने घडी के साथ साथ इनसे भी देखा है कि रात को पढ़ते पढ़ते कितना समय हो गया!) कितने काम हैं जी जो आपने कभी नहीं किया? या अब नहीं करते? खाली पैर चले किसी के साथ? किसी की धड़कन सुने हैं क्या कभी? भारी काम नहीं है ये सब. विशेषज्ञता नहीं चाहिए. लेकिन पता नहीं क्यों मुझे चेतावनी दी जाती है कि तुम रोजमर्रा का काम लिख दो तो “रोमांटिक होने के १००१ तरीके” की किताब हो जायेगी. पर उसके बाद लड़के सब मिले के तुम्हें कूट देंगे और लडकियां तो वैसे ही पीछे पड़ी रहती हैं तुम्हारे”.

हमको नहीं पता था कि ये सब पुरातन काम भी रोमांटिक होना है – बताया गया तो लगा होता होगा. शायद नेचुरले रोमांटिकहोते हैं कुछ लोग. जो कर दें वही रोमांटिक हो जाता है. वैसे क्लिपपर लौटें तो। ...हमको कुछ भी समझना-समझाना-पढ़ाना बहुत अच्छा लगता है और जब भी किसी लड़की को फिजिक्स और गणित का ‘तत्व’ समझाने की कोशिश किये... खुदा कसम (खुदा कसम की व्याख्या सीट नंबर ६३वाली पोस्ट में है) उसके बाद वो हमें जिस नजर से देखी ...उसके सामने ये क्लिप कुछ नहीं है! किसी ने दुनिया में सोचा होगा कि ये भी रोमांटिक होता है? – स्ट्रिंग थ्योरी?! खैर अब और नहीं... बहुत लोग मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं ईमेज का बंटाधार हो जाएगा. अब श्री श्री १००८ तरीके में ही लिखा जाएगा डिटेल में. ये सब इसलिए भी कि वायरल होने में तो अदा वगैरह जो था सो तो था ही... पता चला एक फतवा भी आ गया (सही न्यूज़ है न?. नहीं भी है तो ये क्या कम है कि पढ़ के लगा जरूर ऐसा हो सकता है !). फतवा के ऊपर एक लतवा भी जारी होना चाहिए. फतवा जारी करने वाले को देखते ही लतिया देने का. ऐसा फतवा वही जारी कर सकता है जिसने कभी “चकित-हरिणी-काम-कमान” जैसा कुछ देखा ही नहीं. या फिर जिसे कभी किसी ने उस नजर से नहीं देखा जैसे बिल्ली कबूतर को देखती है (ये वाला मेरा अपना ओरिजिनल है). नैन तो बुरखे (ख होता है कि क?), हिजाब में भी दीखते हैं, माने अब क्या? ! खैर... सौंदर्य रस पर कभी और लिखा जाएगा. और वैलेंटाइन से इस पोस्ट का कोई लेना देना नहीं है. वो क्या है कि - सदा भलेनटाईन प्रेमी का, बारह मास वसंत.पर पोस्ट लिखने का मुहूर्त आज ही बन गया. आप वैलेंटाइन की पोस्ट मानकर पढ़ रहे हैं तो भी हमें कोई आपत्ति नहीं. जो बारह मास वसंत वाले नहीं नही उनके लिए एक दिन ही सही ☺


३. पकौड़े बेचना

पकौड़े बेचने का बड़ा हौव्वा रहा आजकल. मेरा एक गुजराती दोस्त है. सिविल इंजिनियर. वो पिछले पांच साल से कह रहा है – “बाबा, बहुत हुई नौकरी. अब एक फ़ूड जॉइंट खोलते हैं. डॉलर छापेंगे। देख दीप फ़ूड वाले को”. वो बस इसीलिए नहीं खुल पा रहा क्योंकि सारी रेसिपी मेरी है. और भगवान ने गिने-चुने लोगों के भाग्य में लिखा मुझ जैसे आलसी के हाथ का खाना ! नौकरी की इतनी तौहीन और पराठा बेचने की ऐसी इज्जत उससे ज्यादा कोई और नहीं कर सकता. पर लोग साधारण सी बात को भी अपनी विचारधारा में लपेट के उलझा देते है. एक लाइन की बात है – मज़बूरी और शौक का फर्क. मैकडोनाल्ड्स भी अमरीकी वडा पाव बेचने वाला रहा होगा कभी. दीप फ़ूड वगैरह वगैरह तो खैर पकौड़ा ही बेचते थे. अगर आपको रूचि हो तो पूछियेगा हम सुनायेंगे दो चार सक्स्सेस स्टोरी.

हमको जिंदगी में सबसे अधिक प्रभावित करने वाली बातों में से एक सीख मिली थी – ‘जो काम करो अच्छे से करो, घास ही छिलो तो ऐसे कि उधर से जाने वाला देख के कह उठे ...कौन है जो ऐसा काट के गया है? ! (प्लीज नोट दैट घास काटने की बात है कुछ और नहीं.)’ कालान्तर में हमने उसे थोड़ामॉडिफाई कर दिया कि ‘जिंदगी में घास ही छिलो तो ऐसे कि कम से कम दो चार गोल्फ कोर्स का कॉन्ट्रेक्ट तो मिले ही!’ काम छोटा बड़ा नहीं होता. मैं जहाँ भी रहा वहां किसी न किसी चाय वाले की आमदनी जरूर जोड़ा और हमेशा लगा कि उसकी आमदनी ज्यादा है.मार्जिन-रेवेन्यु-प्रॉफिट हम जोड़ते ही रह गए वो आगे बढ़ते चले गए. दुनिया-जहाँ के तर्क-कुतर्क पढ़े. चिदंबरम साहब को कहते सुना कि मैं आपको देता हूँ ४५,००० रुपये - करके दिखाओ बिजनेस.

इससे पता चलता है कि किस दुनिया में जी रहे हैं लोग ! जब लोग कहते हैं कि पचास हजार महीने में बहुत मुश्किल है आज के टाइम मेंसरवाइवकरना. सरवाइवल शब्द की बेइज्जती लगती है मुझे. मुझे पचास हजार वाली मुद्रा योजना का कुछ नहीं पता. उससे किस किस ने क्या किया वो भी मुझे नहीं पता. कितना सफल होगा... नहीं पता.

दो बातें जो पता हैं –

पहली ये कि मैं जानता हूँ ऐसे व्यक्ति को जिन्होंने किसान क्रेडिट के लोन से गाडी खरीद लिया एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी. लोन माफ़ होता गया... ये करप्शन है? - हाँ. इससे किसी को फायदा हुआ – हाँ. जैसे होना था हुआ - नहीं. पर वो क्या है कि चीजें इतनी साधारण नहीं होती कि जिसे भी ५०,००० रुपये मिलेंगे वो बिजनेस ही खड़ा कर देगा. वो उससे अपनी बेटी की शादी भी कर सकता है. करेगा भी. गरीबी के उस स्तर पर विचारधारा और अर्थशास्त्र नहीं चलता. और आपको लगता है कि पचास हजार में बेटी की शादी नहीं होती तो.. पचास हजार में पाँच भी होती है. आपने बस वो भारत देखा नहीं. जिसने देखा है वो जानता है. योजना की बात है तो स्वच्छ भारत योजना में बने टॉयलेट में गोईठा रखाएगा। हमने देखा है. लेकिन... कोई तो जाना चालु करेगा. आपका तर्क वैसे ही है जैसे... मनी कैन’ट बाई हैप्पीनेस सो तो ठीक है लेकिन व्हाट द हेल कैन पॉवर्टी बाई?

क्या ५०,००० से बिजनेस खड़ा हो सकता है?

इस पर दूसरी बात. स्वयं का अनुभव –

ये २०१० की बात है. इस लिंक पर इस नाचीज का लिखा. पेज नंबर ५. पढ़िए इसमें कितने रुपये के लोन की बात है और कितने रुपये के रिचार्ज कूपन का. किराए पर लेकर रिक्शा चलाने वाले के लिए ५०,००० नहीं... सिर्फ उतना जो वो रोज किराए के लिए देता है वो अपने खुद के रिक्शे के लिए क़िस्त में भरने लगता है तो उसकी जिंदगी बदल जाती है. जब मैंने माइक्रोफाइनांस में काम किया था.. लोन ५०००, १०००० के होते थे. ५०,००० के तो सबसे बड़े लोन थे. किश्तें ... २०, ५०,१००... आश्चर्य है कहाँ रहते हैं लोग? किस दुनिया में? जब किरोसिन को सोलर से रिप्लेस करने के प्रोजेक्ट पर काम किया था तो आईडिया था कि जितना एक परिवार किरोसिन के लिए महीने में खर्च करता है अधिक से अधिक उतनी क़िस्त होनी चाहिए सोलर लैम्प की.

क्या ये जो भी मुद्रा योजना है उसी तरह काम करेगी जैसे माइक्रोफाईनांस? –संभवतः नहीं. माइक्रोफिनांस में ब्याज दर सुन कर आपके होश उड़ जायेंगे. पर वहां स्वार्थ (इन्सेन्टिव) होता है पैसे देने वाले का कि वो सही बिजनेस में लगे. ताकि पैसे वसूल हो सके... सरकारी बाबुओं के पास ऐसा कोई इन्सेन्टिव नहीं. पर बिल्कुल ही बेकार, व्यर्थ या ये कह देने वाले कि ४०-५०,००० रुपये में कुछ हो नहीं सकता ! बिडम्बना है कि आपने कभी देखा ही नहीं भारत ढंग से. खाए पीये अघाए लोग कुछ भी लिखते-कहते हैं. और उसी तरह के लोग फिर बिना सोचे समझे जो दीखता है बिना पढ़े, सोचे फॉरवर्ड कर देते हैं. कम से कम सिर पैर तो देख लेना चाहिए ! आपके लिए पचास हजार कुछ नहीं. लेकिन आपके एक कॉफ़ी के पैसे से कम में दिन भर का खर्चा चल जाता है किसी का !

चलिए अब जाइए मौज कीजिये.

वैलेंटाइन हैं आज. तो अमेरिका में प्यार ‘सेल’ पर होता है – सुपर मार्किट, रेस्टोरेंट – हर जगह. और फ्लावर की तो खैर महिमा अपरम्पार है ही.  बाकी १००८ वाली किताब कभी आयी तो पढियेगा जरूर :)

~Abhishek Ojha~


फगुआ

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- फगुआक्यों बोल रहे हो. कैसा तो लगता है सुनने में. चीप. होली बोलो.

- चीप? 'चीप'भी  कैसा तो चीप लगता है सुनने में फूहड़ बोलो. फगुआ इसलिए क्योंकि बात फगुआकी हो रही हो तो उसे होली कैसे कहें?
- दोनों एक ही तो होता है?
- एक  ही कैसे होता है? माने गुझिया और पुआ एक ही होता है? अगर होता है तो फिर फगुआ और होली भी एक ही होता है. वो बात अलग है कि गुझिया ने पुआ को पीछे ठेल कब्ज़ा कर लिया है इस त्यौहार पर.
- मतलब?
- अरे पुआ माने पुआ. गुझिया.. नाम से ही शर्माती इठलाती. सोफिस्टिकेटेड.
- पर उससे क्या फर्क पड़ता है? दोनों ही मिठाई है जिसको जो मन बनाए.

- कैसे फर्क नहीं पड़ता ! अब पहसुल और चाक़ू भी तो दोनों काटते ही है. एक से काटने वाला दुसरे से काटे तो हाथ उतर जाए ! फगुआ पहसुल है. होली शेफ'स नाइफ. झुलनी (ईअर रिंग - कर्णफूल ) लगा वाला पहसुल देखी हो कभी? उस पर काटने वाले अलीबाबा की कहानी के मुस्तफा दरजी की तरह अँधेरे में  भी काट के धर दे.  और तुम्हे तो उन्हें काटते देख के ही गर्मी छुट जाए - ओ माई गोड इट्स सो डेंजरस ! चाक़ू से क्यों नहीं काटते ये लोग ! (पहसुल तो पता है न ?)

-  लेकिन फगुआ और होली का उससे क्या लेना देना?

- अरे वही जैसे सब्जी और तरकारी. सिलबट्टा और मिक्सी।
- कहाँ की बात कहाँ ले जा रहे हो? सब्जी और तरकारी कहाँ से आ गयी?.
- अरे.. उनमें भी वही अंतर है जो होली और फगुआ में है.

- व्हाट्? दोनों एक ही तो होता है.

- वही तो .. एक ही होता है. तरकारी माने... भरपूर. फ़ेंक-फ़ेंक के खाने जैसा. घर का. मन उब जाने तक. और सब्जी माने बाजार से ठोंगे में लाया गया. तरकारी माने घर की मुंडेर और खेत में से तौला के लाया गया बोरा नहीं तो कम से कम झोला भर - आलू टमाटर, धनिया... खेत में लगा धनिया देखा है कभी? बोझा में से तोड़ने को इफरात में मटर की छेमी. सब्जी माने प्लास्टिक के झिल्ली में लाया गया एक पौउवा आलू- एक मुट्ठी धनिया, फ्रीका दो मिर्ची औरफ्रोजेनमटर. एक टोकरा-बोरा में रखाता है दूसरा रेफ्रिजेरेटरमें.

- लेकिन बात तो वही है? अब बावन बीघा पुदीना जैसी बात मत करो.

- बावन बीघा वाली बात में दम है. पर अब भी क्लियरनहीं हुआ ? उस रंग को क्या जानेवाला मामला हो रहा है. फगुआ और होली में वही अंतर है जो चिट्टी और व्हाट्सऐपमें. पुरे मौसम बाल्टी भर के जामुन खाने वाले में और साल में एक बार ठोंगा का दो जामुन खा के 'इट इज वैरी गुड टू कण्ट्रोल डायबिटीज'कहने वाले में. फगुआ अभाव में भी इफरात का पर्व है. जो बाल्टी में जामुन खाता है उसको पता ही नहीं डायबिटीजक्या होता है ! बेपरवाह. मस्तमौला. जामुन पेंड पर होता है, खाने में अच्छा लगता है इसलिए खाता है. उसमें कितना कैलोरी है और कितने विटामिन इससे उसको क्या ! तो बस वही फर्क है - रगड़ के रंग खेलने और सिर्फ अबीर का टीका लगा लेने का फर्क जैसा. इ ब्लैके पीते हैं वो भी डीप वाला और मलाई मार के घोट के बनायी गयी चाय का फर्क. बैठ के वाटरलेसऔर रंग से हार्म हो जाएगा सोचने बनाम उन्मुक्त प्रवाह का फर्क है.

- व्हाटेवर !

- होली का नेशनल एंथम रंग बरसे फ़ोन पर देखने और भांग चढ़ाए ढोल-जाँझ लेकर फाग-चैता गाने वालों में घुल  जाने का अंतर है. अंतर है ... हुडदंग का और 'ओ माय गॉड ! हाउ कैन..'का. अंतर है उन्मुक्त प्रवाह में शामिल होने का और दूर से उसमें मीन-मेख करने का.

[ट्विटर पर पता चला होली को महिला विरोधी और पता नहीं क्या क्या विरोधी करार दिया गया ! फेमिनिस्ट तो खैर वैसे हीएक स्तर के बाद दिमाग से वैर पाल लेते हैं. फेमिनिस्ट ही नहीं किसी भी 'वाद'वाले. पिछले दिनों एक महिला मित्र ने हार्वर्ड क्लब में एक फेमिनिस्ट समूह में कह दिया कि मेरा पति तो... तो बात सुन कर ही सबका मुंह लाल हो गया. उनके गले ही नहीं उतरा कि एक तो पुरुष ऊपर से पति अच्छा हो कैसे सकता है ? ! ऐसा भी होता है क्या !  क्योंकि ये तो फेमिनिस्ट-वाद की मूल धारणा के खिलाफ ही बात हो गयी ! खैर. अपनी अपनी  सोच। अपने अपने संस्कार! ये सब बात नहीं करनी चाहिए देखिये असली बात ही डीरेलहो गयी इनके चक्कर में]

- फगुआ माने मदमस्त मादक (ये भी चीप?) और होली माने.. सेक्सी कह लो अगर वो चीप नहीं लग रहा तो. निराला का प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक पढ़ा है? वैसे ...घुमा फिरा के दोनों एक्के है.

- मतलब दोनों एक ही है?.

- अब जो है सो है. अब कहो कि आम पर फूल लगे हैं और कहो कि आम बौरा गये हैं तो एक ही बात तो नहीं होगी ? कुछ तो कारण है कि उसे बौराना कहते हैं ?

- तुम बौरा गए हो.

- अब तो बात ही ख़त्म !  हद हो ली.


~Abhishek Ojha~

मेंटल (पटना २२)

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चाय की दुकान पर आना जाना होने से धीरे-धीरे दो चार अजनबी लोग भी चेहरे से जानने लगे थे और उन्हीं में से एक सज्जन ने एक दिन हमें निमंत्रण दे दिया - 'आप भी आईयेगा'। यूँ तो मैं जानने वालों के यहाँ भी निमंत्रण पर नहीं जाता पर जिन लोगों के साथ ‘ज्वाइंट निमंत्रण’मिला था वो खीँच कर ले गए. जॉइंट निमंत्रण जैसे स्विस जर्मन में अनजान लोग मिलें तो उन्हें ‘ग्रुएत्सी’ कहकर अभिवादन करते हैं और एक से ज्यादा हों तो सामूहिक ‘ग्रुएत्सी मितेनांत’कहते हैं. वैसे ही ‘निमंत्रण मितेनांत’ जैसा कुछ था ये. तो ‘मितेनांत’ लोगों के साथ मैं भी चला गया। अवसर था बड्डे पार्टी-कम-सत्यनारायण कथा. और आप समझ ही गए होंगे कि साथ जाने वाले चार लोगों में एक बीरेंदर उर्फ़ बैरीकूल भी था।

 हम पहुंचे पौ बंद होने के समय (पौ फटने के विपरीत वाले समय) - गोधुली का समय। मेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा लोग आए थे. महानगर का टैग होने के बाद भी है तो पटना ही. बच्चो को डिस्काउंटन करें तो कुल पचास से अधिक प्राणी तो होंगे ही. फूल-झालर भी लगा था. कुल मिलाकर व्यवस्था टंचथी. हम जहाँ खड़े थे वहां थोड़ी देर पहले ही पानी छिड़का गया था जिससे धुल की सोंधी गंध अभी भी उठ रही थी और बच्चे उछल कूद कर रहे थे. ऐसे अवसर पर मुझे जैसे लगभग असामाजिक व्यक्ति की थोड़ी देर इधर उधर मुस्कुराने के बाद 'अब क्या करें'की अवस्था हो जाती है पर ‘मितेनांत’ समूह के दो चार लोग थे तो माहौल इस स्तर पर नहीं जा पाया। इसी बीच किसी को कहते सुना कि जेनेरेटर किये तो थे पर आया नहीं और लाइन का क्या भरोसा? रहा तो रहियो जाएगा और गया तो कोई भरोसा नहीं ! सिलेन्डर में गैस तो है लेकिन ‘मेंटल’ नहीं है। किसी को भेज कर ‘मेंटल’ मंगा लेने की बात हुई। किसी ने अपनी मोटर साइकिल ऑफर की और एक लड़का लपक के तैयार हो गया। ‘मेंटल’ माने वही पंचलाईट में लगने वाली जाली जो जल कर गोल हो जाने के बाद दुधिया रौशनी करती थी. किरोसिन वाले पंचलैट की जगह अब एलपीजी से चलने वाले गैस पर मेंटल बाँधा जाता है. किरोसीन वाला पंचलाईट जलाना एक कला थी पिन, पम्प से हवा भरना और फूंक फूंक कर रौशनी लाना (पंचलाईट रेणुजी की प्रसिद्ध कहानी है आपने नहीं पढ़ी तो ‘पिलिच’ यहीं से क्लिक-टर्न लेकर पढ़ आइये! वही जिसमें गोधन मुनरी को देखकर सलम-सलम वाला सलीमा का गीत गाता था.)


 हड़बड़ी में जा रहे उस लड़के को बीरेंदर ने बुलाया - 'अबे, इधर आ। किधर? इतना जोश में? सिंघासन खाली करो वाला पोज में?'

'अरे भईया. सब कामे अइसा कर देता है। रुकिए लेके आने दीजिये त बतियाते हैं लाइन कट गया त अंधेरा हो जाएगा। मेंटल लाने जा रहे हैं' - बाइक की चाबी हाथ में थी इसलिए ज्यादा उत्सुक था या सच में उसे चिंता थी ये समझना थोड़ा मुश्किल था। उम्र से १४-१५ साल, हाई-स्कूल का विद्यार्थी रहा होगा. पर बाइक चलाने की कोई उम्र-लायसेंस वगैरह तो होती नहीं. उसके नाटकीय भाव से ज़िम्मेदारी जरूर ऐसे टपक रही थी जैसे एक्सट्रा चीज– फ़ालतू। एक हाथ से कपार खुजाते और दुसरे में चाभी फंसाए... मुद्रा उसके उम्र से कहीं ज्यादा गंभीर थी। ( ‘एक्स्ट्रा चीज’ से एक और बात याद आई – बीरेंदर बोला था – ‘अरे महाराज पिज्जा के पागलपन का क्या कहियेगा. मोटा लिट्टा सेंक के उसके ऊपर पियाज छिड़क देता है – लिट्टा भी अधपका आ उसके ऊपर का पियाज भी. आ आदमी सब पांच सौ – हजार रुपया देके लूट लूट के खाता है?! आ जिसको अच्छा नहीं लगता है वो भी बोले कैसे? गंवार घोषित होने का रिक्स है तो सब यही बोलता है कि मजा आ गया! माने अब क्या कहियेगा रोटला के ऊपर रबड़ जैसा चीज और आधा भूंजा पियाज ! ऊपर से अच्छा नहीं लगे तब भी आदमी पैसा देकर भी अच्छा कहता है.’)

'मेंटल? मेंटल तो हमरे पास ही है एक ठो। केतना चाहिए?'बीरेंदर ने पूछा। 'आ स्टाइल थोड़ा कम कर। कुल वजन मात्र एक पौवा के हिसाब से ढेर भारी लग रहा है तोर सीरियसनेस'

'आप भी न भईया, दीजिये न है त... हमको कौन सा सौकहै जाने का'लड़के ने झिझकते हुए कहा।

'एक मिनट रुक बुलाते हैं, इधरे त थी अभी।'

'का भैया आप भी ! ई मज़ाक का टाइम है?'

'अरे मेंटले न चाहिए था तुमको? दिलाते हैं।'

वो लड़का झिड़क कर निकल गया। ये 'मेंटल'तब समझ आया जब बीरेंदर ने अपनी दोस्त का परिचय कराया - 'भईया मिलिये हमारी दोस्त से - मेंटल !'

“जानते हैं भैया हुआ क्या? हम भगवान से मांगे थे मानसिक शांति। आ उ का हुआ कि अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी का चक्कर में थोड़ा गरबरा गया। हमारा उच्चारन भी तो वही है तो भगवानजी हमको ‘मेंटल पीस’ का जगह एक ठो 'मेंटल पीस'दे दिये।"

 मेंटल बोली - 'मारेंगे न रे तुमको चोट्टा। हम केतनों त चोट्टा से ठीके है।'

'चलो ठीक है लेकिन ये ठेप्पी-ड्रेसकाहे पहनी हो तुम?’ बीरेंदर ने मेंटल से पूछा. मेंटल का ड्रेस दोनों कंधो पर गोल कटा हुआ था.

‘ठेप्पी?’ मैंने और मेंटल दोनों ने एक साथ बीरेंदर को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा.

‘अरे ठेप्पी माने... नहीं समझे? कहाँ से सब अंग्रेज हो गया है मेरा दोस्त सब भी. ठेप्पी माने - सैम्पल. कभी तरबूज खरीदे हैं कि नहीं? माने ऐसे घुर रहे है जैसे लैटिन-उयटिन का कोई शब्द बोल दिए हम. तरबूज बेचने वाला सब ठेप्पी मार के एक ठो छोटा सा पीस निकाल के दिखाता है. वैसा ही लग रहा है कि दरजी यहाँ काट के ठेप्पी निकाल दिया है. माने पूरे कटा हुआ होता तो बात अलग था. पूरा होता तब भी. ये बीच में ठेप्पी मारा हुआ ही तो है. ये आईडिया हम बता रहे हैं वहीँ से आया है दरजी को.’

‘तुमको फैशन का समझ तो है नहीं. तो तुम चुप्पे रहो. दरजी से कौन सिलवाता है कपडा आजकल’ मेंटल ने बुरा नहीं मानते हुए कहा.

‘अरे वही फैसन डिजाइनर भी दर्जिये तो हुआ. और अब हमको फैसन का समझ कहाँ से होगा... हमारे लिए तो फैसन ये था कि होली, दिवाली पर सारा भाई बैंड पार्टीलगते थे. एक्के थान में से काट के सबका शर्ट सिलाता था. हमको फैसन से वही याद आता है. और नया सिलाता भी था होली-दिवाली पर एक्के दिन एक्के साथ सब भाई पहन लेते. क्या बताएं बाहर निकलने में भी सरम आता था’ बीरेंदर ने अपने बचपन के फैशन में शर्मिंदा होने की बात की और बात घुमा फिरा के पार्टी पर आ गयी.

मैंने कहा – ‘बहुत लोग आये हैं बड्डे के हिसाब से.’

‘हाँ तो आयेंगे ही. लड़के का जन्मदिन है. अन्तिमा नाम की बहन के बाद वाले भाई का’ बीरेंदर बोला और मेंटल थोड़ी गंभीर हुई.
‘मतलब?’
‘मतलब ये कि... शो स्टोपर.’
‘अब तो कौन ही फर्क कर्ता है लड़का-लड़की में’
‘लड़का-लड़की में फर्क नहीं करता है मत कहिये. डायलोगमारने में फर्क नहीं करता है कहिये. यहाँ सब डैलोगे मारते हैं कि हम अपनी बेटियों को बेटों की तरह ही रखे हैं लेकिन कभी बेटियों से बात कीजिये तो पता चलेगा. पर भईया उसीमें लड़ के, डूब के करने वाली जुझारू लडकियां हैं तो.. मेंटले को देखिये. हमेशा से तेज ! कोलम्बिया गयी थी अभी. हमको तो नक्सा में भी नहीं मालूम था कि कौन देस है !’

‘बस-बस और कुछ बोला न रे चोट्टा तो यही मारेंगे.’ मेंटल बोली.

‘देखिये भईया वो क्या है कि मेंटल दिमाग की तेज. भर-भर के इसको नंबर आता था. आ हमलोग का क्या है कि जेतना मेहनत कर सकते थे किये. जरुरत भर का आ जाता था.’

‘ये गलत बात है तुम खुद का मेहनत करते थे और उसके लिए दिमाग ही तेज था. अरे उसने भी मेहनत किया होगा. और नंबर से सब कुछ थोड़े होता है’

‘आप धर लिए हमको. नहीं... सही बात है.  पर नंबर से कुछ नहीं होता है ये हम कहेंगे तो सोभानहीं देगा काहेकी हमको उतना नंबर कभी आया नहीं. मेंटल कह सकती है काहे कि उ लायी है तो वो कहे. मेहनत तो बहुत की ही. और आजकल जो एक नया फैसन चला है कि ‘स्क्रू योर मार्क्स’. माने सब खोज खोज के एक्जाम्पलदेता है कि फलाने अनपढ़ थे आड्राप आउटथे और आज तीरंदाज हैं... अबे तो एक तीरंदाज हैं तो एक लाख ड्राप आउट पंचर भी तो साटता है? अरे तुमको नहीं पढना है कोई बात नहीं लेकिन पढाई को ही खराब नहीं कहना चहिये. और सब साला जेतना लफुआ सब है... उ जूस वाले मिसिर चाचा बताते हैं कि फेल होने के बाद उ सबेरे से ही दिन भर पता लगाने निकल जाते थे कि और कौन कौन फेल हुआ है. वही आजकल इन्टरनेट पर होने लगा है सब ड्राप आउट का फोटो ढूंढ के सब कोट लगाता है कि स्क्रू योर मार्क्स. अरे भाई जो मेहनत करके ला रहा है उसकी बेइज्जती तो मत करो. नंबर नहीं आया तो नंबरे को बुरा कह दो ? हम ये काम कम से कम नहीं करते हैं भईया. इ सब साला आतंकवादी जमात हो गया है आजकल नंबर नहीं आया तो पूरा दुनिए को दोष दे देगा खाली अपने को छोड़कर कि खुद पढाई नहीं किया. खैर... सही भी है आंकड़ा भी तो बनना चाहिए. ये नहीं गया अभी मेंटल लाने उ आंकड़े परसाद है. ५ प्रतिशत का सिलेक्शन होता है त ९०% आंकड़ा बनने के लिए भी तो कोई चाहिए न. आंकड़ा परसाद लोगों का भी महत्तव्कम नहीं है'


'तुम्हे स्क्रू योर मार्क्स वाले से दिक्कत है कि मेंटल का बड़ाई कर रहे हो’ मैंने पूछा.

‘अरे भईया, आप भी न. हम तो स्क्रूशब्द का मतलब भी स्क्रू-पिलास-नट-बोल्टही समझते थे तो ये सब मन्त्र बोलते भी क्या! थप्पडिया और दिए जाते थे बात बिना बात. स्क्रू से याद आया एक बार सुने थे एक चाचा को बोलते हुए कि गुप्ताजी के लड़का अंग्रेजी मीडियम में पढता है उसके पास जो जेस्चरहै ! क्या अंग्रेजी बोलता है गुड मार्निंग, गुड इवनिंग करता है.. हम सुने त अपने लंगोटिया यार सब का मंडली में अलगे दिन बोले कि बेट्टा कहीं से जुगाड़ लगाओ जेस्चरका. जब तक जेस्चर नहीं मिलेगा ऐसे ही थुराते रहेंगे हम लोग. हमको पता लगा है कि गुप्तवा के पास है जेस्चर. बहुत दिन तक फेरा में रहे कि कहीं से जेस्चर मिल जाए. किस दुकान में मिलता है पकड़ नहीं पाए ! हमको इतना त अंग्रेजी आता था. हम क्या स्क्रू, फक और शिट वाला मंतर पढ़ते. वैसे अच्छा था थप्पडियाए गए तभी त सीखे कि जो हर बात में दुसरे को ही गलत घोषित कर दे उ आदमी एक दम फर्जी उससे दुई लट्ठा का दूरी बना के चलना चाहिए !’

‘अरे चलिए शंख बज रहा है चलते हैं नहीं तो सब कहेगा कि खाली खाने आये थे. परसाद बटेंगा अब. केक उक भी कटाएगा लगता है. हमलोग का तो ऐसा था कि पूड़ी-खीर और सीजन में पड़ता है जन्म दिन त आम मिलता था बड्डे पर.’

‘केक के बिना बड्डे कैसे होता है?’ मेंटल ने पूछा.

‘देखिये अब यहीं मार खा गया न पटना. माने केक नहीं काटेंगे तो बड्डे क्या कहेगा कि हम नहीं होंगे?  कैसे होता है मतलब क्या ! हो जाता है बस. नहीं होता तो हम आज तक एक्के बरस के होते? माने गजब है अब कैसे समझायें कि कैसे हो जाएगा बड्डे बिना केक के’ बीरंदर ने कहा. ‘किसी वैज्ञानिक से पूछना पड़ेगा.’

‘बस बस हो गया’ मैंने बीच बचाव किया. प्लेट में परसाद मिला और साथ में छोटे से प्लास्टिक के कप में चरणामृत.

‘संतृप्त घोल बना दिया है’ बीरेंदर ने बोला.

‘अब इसमें कौन सा खुराफात सुझा तुमको? जब देखो बकर-बकर. चैन नहीं रहता है तुमको नहीं? जीभ में चक्कर है तुम्हारा हम बता रहे हैं’ मेंटल ने कहा.

‘अरे माने इतना न मीठा है. हमलोग हिंदी में केमेस्ट्री पढ़े थे त उसमें मिश्रण वाला अध्याय में एक ठो होता था कुछ संतृप्त घोल. माने पानी में इतना चीनी हो जाए कि उसके बाद और घुलने का जगह नहीं बचे. तो ये ‘चनैमृत’ वही वाला चीज है – संतृप्त घोल.’

 चरणामृत प्लास्टिक के कम में मिला था तो उसके लिए भी बीरेंदर बोल उठा – ‘इ बढ़िया हिसाब है हाथ नहीं धोना पड़ेगा. हम जो पूजा देखे हैं उसका तो पूरा बजटवे कप का खर्चा भर का होता है’

थोड़ी देर बाद हमने निर्णय लिया कि अब शकल तो दिखा ही दी है... अब वहां से निकल लिया जाय और बिस्कोमान भवन पहुँच के डोसा दबाया जाय.

जब चलने लगे तो बीरेंदर बोला – ऐ मेंटल, तुम्हारा ड्रेस तो ठेप्पी से प्रेरित था. वो देखो उ जो पहनी है उ बला ड्रेस बनाने के लिए मच्छरदानी से प्रेरित हुआ होगा फैसन डिजाइनर.’

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~Abhishek Ojha~

किस्सा-ए-बागवानी

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[सत्य घटनाओं पर आधारित. इस पोस्ट के सभी पात्र और घटनाए लगभग वास्तविक हैं. यदि किसी भी व्यक्ति से इसकी समानता होती है तो ये और कुछ भी हो संयोग तो नहीं ही है. वैसे हमें कौन सा फर्क पड़ता है ! 😊]


कुछ दिनों पहले हमसे किसी ने कहा – ‘थोड़ा गार्डनिंग पर ज्ञान दो. तुम तो कितना कुछ लगाते हो. लकीहो, तुम्हारे हाथ से पौधे लग जाते हैं’.

पहले तो सवाल ही गलत था अपार्टमेंटमें रहने वाला व्यक्ति क्या जाने गार्डेनका हाल ! फिर भी हमने बहुत कोशिश की कि अपने को और अपने हाथ को श्रेय दे ही लूं. पर हो नहीं पाया क्योंकि... इस बात को समझने के लिए...

पहले एक कथा -
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 बात बहुत पहले की है. जब लोग पैदल यात्रा किया करते थे. सड़कों के किनारे छायादार और फलदार वृक्ष हुआ करते थे जिनकी छाँव में पानी पीने की व्यवस्था होती थी. एक सज्जन यात्रा पर निकले... सुदूर किसी देश में कहीं एक दिन उन्हें एक फुलवारी दिखी। फल-फूलों के भार से झुके पेंड़-पौधे जिनपर भौरें मड़रा रहे थे... वगैरह वगैरह. माने भीषण मनोरम - इतनी मनोरम की यात्री ठहर गया. फुलवारी की सुन्दरता का अनुमान आप इस बात से लगाइए कि न तो उस जमाने में फेसबुकथा. न इन्स्टाग्राम .न स्नैपचैट (ट्विट्टर भी नहीं !) फिर भी यात्री ठहर गया !

फुलवारी का मालिक दिखा तो यात्री ने मंत्रमुग्ध होने वाला एक्सप्रेशन देते हुए कहा – ‘भाई ! क्या अद्भुत बगिया है आपकी। मैं कितने ही नगर-राज्य-महाजनपद-देश घूम आया पर ऐसी खुबसूरत बगिया मैंने नहीं देखी !’

लहलहाती फुलवारी के मालिक अति प्रसन्न हुए और गर्व से बोले – ‘भाई, आखिर क्यों नहीं होगी ! इतनी मेहनत करता हूँ. खून-पसीना एक कर रखा है. ऊपर से... देखिये उन्नत किस्म के बीज और सिंचाई और.. ये और वो... जिंदगी लगा रखी है इसमें. ऐसे ही नहीं हो गयी!’.

वो इतना बोल गए जितने में बागवानी का मैनुअलछप जाता. विद्वानों की इसमें एक राय है कि मीडियाका युग होता तो वो जरूर पैनल एक्सपर्टबने होते. चुनावी एक्सपर्टतो बन ही गए होते जो परिणाम आने के बाद तुरत ही उसका कारण बता देते हैं ! (पत्रकार भी हो सकते थे पर संभवतः उतने भी हांकने वाले नहीं थे... पत्रकारिता के लिए तो धान के खेत में खड़े होकर उसे गेंहू कह देना भी विशिष्ट ओवरक्वालिफिकेशनहोता है.) खैर ... कुछ महीने या हो सकता है वर्ष बाद... (अब समय तो लगता था पैदल आने-जाने में) वही सज्जन यात्री वापस आ रहे थे (अब देखिये प्रूफतो नहीं है कि सज्जन ही थे लेकिन ऐसा ही कहने का चलन है). इस बार उन्होंने देखा कि बगिया उजाड़ पड़ी है. उन्हें बड़ी निराशा हुई. अब सेल्फी वगैरह का युग तो था नहीं लेकिन बगिया की खूबसूरती देखकर हो सकता है यात्री के दिमाग में आया हो कि आते समय एक चित्र ही बना लूँगा ! या उस जमाने में हो सकता है लोग सच में खूबसूरती आँखों से देखते हों और आनंदित होते हों. जो भी कारण रहा हो उन्हीं लगभग बंजर पड़ी जमीन और सूखे पौधे देख बड़ी निराशा हुई. संयोग से बगिया के मालिक फिर दिख गए.

यात्री ने इस बार दुःख प्रकट करते हुए पूछा – ‘भाई, हुआ क्या? मतलब कैसे? आप तो इतनी मेहनत ?’

एक जमाने में लम्बी लम्बी हांकने वाले बगिया के मालिक बोले – ‘भाई, क्या बताएं अब. सब भगवान की लीला है. जैसी प्रभु की इच्छा.’

 कथा समाप्त.
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अरे रुकिए अभी आगे और पढना है. केवल कथा समाप्त हुई है बात नहीं.

तो ... कथा से शिक्षा वगैरह जो मिली वो तो आप समझ ही गए होंगे. उसे बताने का पांच नंबर तो मिलना नहीं जो उसे सोदाहरण लिखा जाय और शिक्षा भी थोड़ी गहरी है जितना सोचेंगे उतनी खुलेगी. तो हम क्या लिखें अपनी समझ ! पर ऐसा है कि... बचपन में कहानियाँ लाखों में नहीं तो हजारों में तो सुनी ही हमने... लेकिन उनमें से कुछ ऐसी रहीं जिनका उदाहरण जिंदगी में हर मोड़ पर मिला. ये कहानी भी वैसी ही कहानियों में से एक है. छोटी, गंभीर और सटीक.

 अब फ़ास्ट फॉरवर्डकरके आ जाते हैं वर्तमान में. अपनी बात. लोग कहते हैं कि हमारा अपार्टमेंट ‘बोटैनिकल गार्डन’ लगता है. लोगों को अजूबा इसलिए लगता है कि पचास तल्ले की बिल्डिंगके कबूतर खाने जैसे अपार्टमेंट में - कैसे इतने पौधे ! देशी-विदेशी जो भी आते हैं वो पूछते जरूर हैं पौधों के बारे में. लेकिन अब ये कथा तो बचपन से ही वायर्डहैं दिमाग में तो हम क्या बोलेंगे.. मुस्कुरा भर देते हैं. कुछ हांकने से पहले ही कथा दिमाग में कौंध जाती है. वैसे हम करेंगे भी क्या. गमले, मिट्टी, बीज सब कुछ तो मिलता है बस हम इतना करते हैं कि लगा देते हैं. और सर्दियों में जब हिमपात का मौसम होता है. सूर्य दक्षिणायन होते हैं जब कुछ नहीं उगने का समय होता है तब मिट्टी में कोई भी बीज दबा देते हैं. कुछ दिनों में हरा-भरा निकल आता है – आलू, चना, सरसों, मुंग, उड़द. उसमें भी फूल लगता है. खुबसूरत भी दीखता है. और जब मौसम हो तब तो बीज मिलते ही हैं बाजार में.

पर लोग तो लोग - एक मित्र पहले तो दुखी हुए कि उन्होंने बहुत कोशिश की पर लगता ही नहीं. - कैसे लगाते हो? हमारे तो दिमाग के बैकग्राउंडमें कथा तो हम क्या कहते माहौल में स्माइली बना देने के सिवा. पर कुछ देर के बाद वो पलटी मार कर खुद ही ज्ञान देने लगे - ‘अभिषेक एक गड़बड़ है. ये दो पौधों को तो तू प्रूनकर दे. छंटाई करने से और फनफना के बढ़ेंगे.'दो में से एक तुलसी. हम अपने पौधों के पत्तों को कभी हाथ नहीं लगाते और वो काट-पीट के धर दिए. ‘अभिषेक, तू बेकार मोह कर रहा है ऐसे ही बढ़ते हैं! देखना.’ हम तिलमिला कर रह गए लेकिन थोडा तो समझ में आ गया कि उनके पौधे क्यों नहीं लगते ! लहलहाती फुलवारी वाले जब एक्सपर्टई करने लगे तब ‘भगवान की लीला’ हो जाती है और यहाँ तो बिना कुछ लगाये भी ..एक तो एक्सपर्टऊपर से बिना मोह दया - पौधे कहाँ से लगेंगे !

 हमारा पौधे लगाने का सिलसिला शुरू हुआ था तुलसी लगाने के प्रयास से. उसके पहले लगे लगाए रेडीमेडगमले ही लाते थे. कृष्ण-तुलसी के बीज ऑनलाइनमिल गए तो गमले और मिट्टी सुपर मार्केटमें. उसके बाद तो एक से दो होते हुए दर्जन भर गमले हो गये. मन बढ़ा तो और भी पौधे लगते गए... एक दक्षिण भारतीय मित्र से ओमवल्ली (कर्पुरावल्ली) का डंठल मिला और फिर... बैम्बू, मनी प्लांट, गेंदे के फूल, सूरजमुखी, आलू, टमाटर, पुदीना... हमारे अपार्टमेंट में फर्श से लेकर छत तक खिड़की है और वो भी दक्षिण-पूर्व दिशा में तो सर्दियों में दिन भर धुप रहती है. जो इस देश के लिए ग्लास-हाउसकी तरह काम कर देती है और पौधे लहलहा उठते हैं – बाकी आगे कहने को तो बहुत मन हो रहा है लेकिन – कहानी !. वैसे कभी-कभी गड़बड़ भी हो जाती है जैसे टमाटर ! हमने बचपन में जो देखा था वो टमाटर का पौधा छोटा ही होता है. लगाने के बाद पता चला कहने को चेरी टोमेटोआठ फीट का हो गया. धागे और खिड़की के शीशे पर टेप से किसी तरह उसे सहारा मिल पाया !


 एक अन्य मित्र हमारे घर आ चुके थे और उन्होंने अपने एक अन्य मित्र को हमारे पौधों के बारे में बताया. ये मित्र के मित्र एक बार मिले तो कहने लगे (फेक अमेरिकी एक्सेंटमें पढियेगा) – ‘आई हर्डआप तो सब्जीएंड आलभी उगा लेते हैं अपने अपार्टमेंट में ! आपको तो खरीदना भी नहीं पड़ता होगा. कैसे लग जाता है यार.. मैं तो... कितने प्लांट्सलेकर आया. दे जस्ट डाई ! मैं तो मिनरल वाटर डालता था एंड यू नो प्लांट फ़ूड  वो भी खरीद के लाया. आप बताओ कुछ.’

 ...हम तो सही में कुछ नहीं करते हैं तो क्या बताते. लेकिन हमें पहले तो ये लगा कि इसके तो एक्सेंटसुन कर ही पौधे मर जाते होंगे ! दूसरी ये कि जिसे लगता है कि गमले में उगा कर खाने लायक हो जाएगा उसको कैसे समझाया जाय. हमें समझ ये नहीं आया कि ये लड़का चार साल से अमेरिका आया है और इतना एक्सेंट !वो भी हाथ मुंह टेढ़ा कर कर के ! देखिये हम जजमेंटलतो नहीं हैं लेकिन अब ऐसा भी नहीं हैं कि राजस्थान में पला बढ़ा व्यक्ति इतने एक्सेंटमें अंग्रेजी बोलने लगे. बहुत से राजस्थानी दोस्त हैं अपने भी. और हम ठहरे फैन उन बनारसी के जो बीस साल से रह रहे हैं अमेरिका में. उनकी बीवी रसियन. (८०% फैनता तो यहीं हो जाती है वो ठेठ बनारसी और उनकी पत्नी .. खैर !) और आज भी जब वीजा को भ पर जोर लगाकर भीजा कहते है तो लगता है दुनिया में इंसानियत अभी ख़त्म नहीं हुई. वो चार महीने की गर्मी में लौकी नेनुआ उगा लेते हैं - उगा ही लेंगे ! खैर मिलने को  तो ऐसे लोगों से भी मिल चुका हूँ जो कह देते हैं कि वो भूल ही गए अपनी भाषा ! मुझे अभी तक ये बात समझ नहीं आई कि कोई अपनी भाषा कैसे भूल सकता है !

 खैर... इसी बात पर एक और प्रसंग –

ये उन दिनों की बात है जब खलिहान में कटी फसल पर बैलों से रौंदवाकर दवनी होती थी. एक व्यक्ति दो साल के बाद कलकत्ता से लौटकर अपने गाँव आया था. खलिहान पहुंचा तो मसूर की दवनी चल रही थी. एक तरफ अनाज ओसाकर रखा हुआ था. उसने स्टाइल (अर्थात उस जमाने का कलकत्ता रिटर्न एक्सेंट) में पूछा – ‘इत्ते इत्ते दाना क्या है?’

खलिहान में सन्नाटा पसर गया. बैल तक ठहर गए ! ऐसी विचित्र बात ही हुई थी. दो साल कलकत्ता में रह कर आया व्यक्ति मसूर भूल गया ! खलिहान में ही गाँव के एक चटकवाह (तेज तर्रार) बुजुर्ग भी बैठे थे – अनुभवी. छाया में बाल सफ़ेद किये हुए (मतलब वही कि बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये थे). उन्हें ये वाला भूत भगाना बखूबी आता था. बैठे बैठे दो नौजवानों को उन्होंने इशारा किया. दोनों नौजवान लठ्ठ लेकर टूट पड़े. जब दो चार लट्ठ सही से पड़े गए तब व्यक्ति चिल्लाया – ‘अरे मसूर है मसूर. याद आ गया.’ !

प्रसंग समाप्त.

 मन तो हमें भी वही हुआ लेकिन... हम ऐसी हिंसा के बस सैद्द्धान्तिक समर्थक है. इस विषय में मेरे पास लालू की सुपुत्री मिसा भारती वाली डिग्री है... प्रैक्टिकलका कोई अनुभव नहीं - फेल पास तो तब होते जब कभी कोशिश किये होते. अब हम क्या बताते इस मित्र के मित्र को, सोचें कि इसको इसीकी भाषा में समझाना ठीक रहेगा तो हमने कहा – ‘तुम्हारे प्लांट्स ओबेसिटीसे मर रहे हैं. वो ठहरे.. जंगल में रहने वाले जीव. वाइल्ड.यु नो. उन्हें मिनरल वाटरऔर प्लांट फ़ूड खिलाओगे तो फिटकैसे रहेंगे’.

 उन्हें ये बात तुरत समझ आ गई. पर ‘जीव’ वो सुन नहीं पाए. पौधे जीव हैं. जीवन - पूरा जीवन चक्र होता है पौधों का. अगर कुछ दिन पानी न दीजिये तो देखिये वो कैसे जीने के लिए छटपटा कर परिवर्तत होते हैं. जीजिविषा से भरपूर ! सूर्य की तरफ झुके... और यदि टमाटर के पौधे को कुछ दिन पानी नहीं मिला तो फटाफट फल लगा कर पक जाता है. धीरे धीरे होने वाली प्रक्रिया त्वरित हो जाती है क्योंकि उन्हें लगता है कि अब जीवन समाप्त होने वाला है अपने गुणसूत्र संचित करते चलें – वनस्पति शास्त्र ! यदि पौधे सूखने लगें तो थोडा तो सोचो कि क्या कारण हो सकता है. पानी ज्यादा है तो कम डालो. अगर जडें ज्यादा हो गयी हो तो बड़े गमले में ट्रांसफर कर दो. मत्स्यावतार की तरह बढाते जाओ गमलों का आकार.

पर यदि आप ऐसे व्यक्ति है जो कुछ खुद ठीक करने के पहले कस्टमर केयरको फ़ोन करता है तो आपसे पौधे क्या ही लगेंगे. हम उस वर्ग के जो यहाँ टूलबॉक्सखरीद के ले आये और निराशा होती है कि इस देश में कुछ खराब होने जैसा है ही नहीं जिसे खोल खाल के थोडा कसा जाता! कहानी का असर नहीं होता तो कह देते कि बावन बीघा में पुदीना उगता है हमारे घर ये गमलों में उगाना कौन सी बड़ी बात है लेकिन हम ऐसा कभी नहीं कहेंगे. 😊


 पौधे जीव हैं. और जीव के प्रति ...पौधों को जीव समझिये बस लग जायेंगे.

 किसी ने कह दिया ‘ये तो बात करता है अपने पौधों से.. प्यार से रखता है.’ कथा दिमाग में आई और मैंने तुरत रोका बस-बस. यदि आपको शौक है तो लगाइए. हाथ अच्छा-बुरा नहीं होता.. पौधों में जीजिविषा होती है वो खुद लगते हैं. (नहीं लगे तो उस कथा का पांच बार जाप कीजिये.)

 हमारे घर के पास ही सप्ताहांत पर किसी ने मुफ्त में ढेर सारी किताबें रखी थी (होते हैं भले लोग) उनमें से एक उठाकर ले आया. पूरी किताब में जीने की कला जैसी कुछ बात थी. पर हाय रे फर्स्ट वर्ल्ड. उसमें जो बातें लिखी थी... ऐसी थी - एक दिन गाना गाओ, एक दिन दूर तक पैदल चलो, एक दिन एकांत में जाकर चिल्लाओ, पौधे लगाओ, किसी मशीन को खोलो और उसे वापस कस दो, मिटटी खोदो और उसमें लेट जाओ... माने कुल मिला के उसमें ये था कि आदमी इतना न सुकून की जिंदगी जीने लगा है कि जीना ही छोड़ दिया है. लेकिन पढ़ते हुए ये भी लगा कि ये सब तो वैसे ही होता है रोज जिंदगी में.. और जो ऐसा नहीं है या जिसे ये सब भी सिखाना पड़ रहा है... वो यदि ये सब करने भी लगे तो वो पगलेट जैसा ही तो दिखेगा. उसे इन बातों में जो आनंद आता है वो करने से भी न मिले शायद. किताब ‘पीड़ित रे अति सुख से !’ लोगों के लिए थी. उन्हें ये याद दिलाने के लिए कि जिंदगी ऐसी ही होती है ...जैसी होती है.  वैसे मत बन जाइये.

 जीवन अपना रास्ता खोज लेता है... वही जीवन , वही जीजिविषा जो आपमें है ! वही पौधों में भी होती है... या कोई भी काम कीजिये. मन से कीजिये. लहलहाएंगे पौधों की तरह ही. आपको आनंद आएगा हर उस काम में. लेकिन कथा जरूर ध्यान में रखियेगा नहीं तो...

और  अंत में कुछ तस्वीरें. ये कैसे लगे मत पूछियेगा.  वैसे उत्तर तो आपको पता ही है – प्रभु की इच्छा !

हरी ॐ तत्सत ! 😊





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~Abhishek Ojha~

कंठस्थ

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पिछले दिनों उड़ीसा में तूफ़ान आने के बाद हिंदी की ख़बरों में भी 'मिलियन'शब्द कई बार दिखा। फिर आजकल सोशल मीडिया के युग में फ़ालोअर, व्यूइत्यादि की गणना भी मिलियनमें ही होती हैं। ये एक छोटा उदहारण है कि पिछले कुछ सालों में भाषा कैसे बदली है। मुझे कॉलेज के दिनों में मिलियन, बिलियनअसहज लगता। सुनते ही दिमाग़ में गणना चलती - कितने लाख? कितने शून्य?  दिन भर मिलियन, बिलियन करने वाले व्यवसाय में आने के बाद भी धीरे-धीरे ही तीन अंकों के बाद अल्पविराम लगाने वाली ये पद्धति सहज लगने लगी।

हमने गिनती पढ़ा था एक साँस में - इकाई-दहाई-सैकड़ा-हजार-दस हजार-लाख-दस लाख-करोड़-दस करोड़-अरब-दस अरब-खरब-दस खरब-नील-दस नील-पद्म-दस पद्म-शंख-दस शंख-महाशंख! कंठस्थ.

अब सोचना भीउसी प्रणाली में होगा! सोचना भला कभी दूसरी भाषा में हो सकता है? जोड़ घटाव हम आज भी गिनती-पहाड़ा से ही करते हैं। उंगुलियों के इस्तेमाल से।  पहाड़े की बात हो तो पंद्रह का पहाड़ा कंठस्थ होने की कतार में सबसे पहले आता है। दो एकम दो, दुदुनी के चार से भी पहले - पंद्रह दूनी तीस तियाँ पैंतालीस चौका साठ पाँचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बीसा नौ पैंतीसा. झमक झमक्का डेढ़ सौ।

फिर अंकों के लिखने का अभ्यास ऐसे होता था - 'लिखो  तो!पांच अरब बीस करोड़ पैतीस हजार दो सौ एकासी.'रैंडम विशाल अंक लिखते और शाबाशी पाते. एकासी से याद आया नौ के पहाड़े में रटते-रटते -नानावा एकासी, नाना गइले फाँसी। छोडाव ऐ नाती ! 

ये लय में कंठस्थ करने के दिन थे। समझ कर आप ऐसे कंठस्थ नहीं कर सकते। कंठस्थ यानि विशुद्ध रट्टा - मतलब पता हो ना हो एक साँस और लय में फिट। बिना सोचे समझे। आजीवन। एक बार रटा गया था तो देर सावेर समझ में आयेगा ही कभी न कभी।

ऐसी कितनी बातें याद है। बिन पढ़े। केवल सुनकर। जो कभी पढ़नी नहीं पड़ी वो भी। पाठ्यक्रम के बाहर के  श्लोक। चौपाई। दोहा। कहावतें। मानस की अनेकों चौपाइयां जो किसी पाठ्यक्रम में नहीं थी। और दैनिक पूजा में सुने श्लोक -

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे 
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चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि। 
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कंदर्प अगणित अमित छबि, नव नील नीरज सुन्दरम्। पटपीत मानहुं तड़ित रूचि-शुची, नौमि जनक सुतावरम्
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मजेदार ये है कि कंठस्थ हो गया बिना शब्दों का पता हुए. वैसे ही याद हुआ जैसे सुना. उसी धुन में. गलत उच्चारण सुना तो गलत ही याद रहा. उनमें से भी कुछ ज्यादा अच्छे लगते। शायद वो जिनके उच्चारण में ज्यादा उतार चढ़ाव होता - कारण सिर्फ उच्चारण ही था।  अर्थ तो क्या ये भी नहीं पता होता कि ये है क्या !  बहुत कुछ ऐसा भी है जिसका अभी भी पूरी तरह नहीं पता - नाचै गोविन्द फनिंद के ऊपर तत्थक-तत्थक-न्हैया। पता नहीं पूरी कविता क्या थी या किसने लिखा.

कितनी कविताएं जो पाठ्यक्रम में नहीं थी... या पुस्तक देखने के पहले से ही याद होता। किताब में देखकर लगता ... अरे ये तो मुझे याद है !

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था। 
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था। 
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था। 
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था। 
जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था।

और ये सब पूछने वाले बड़े-बूढ़े लोग भी मजेदार होते - प्रेडिक्टेबल - "कई नवा एक सौ बासठ?"

"अब एक बुझौव्व्ल बताओ। अजा सहेली ता रिपु ता जननी भरतार ताके सुत के मीत को बारम्बार प्रणाम".

पहली बार नहीं आया ये हो सकता था, उसके बाद ऐसा कैसे होता कि पता न हो। तेज होनेके ऐसे ही टेस्ट होते थे तो गहराई में जाकर हम उत्तर भी इन्हीं बातों का निकालते। कहीं चौपाई सुनी तो प्रसंग और स्रोत का पता लगाया जाता। और एक तो ये राम को आम इतना प्रिय था कि वो आम ही खाते रहता... और हमें वो अंग्रेजी में अनुवाद करके बताना होता -

'राम आम खाता है'.
'राम आम खा रहा है'.
'राम आम खा रहा था'
'राम आम खा चूका है.'
'यद्यपि राम ने आम खाया फिर भी उसे भूख लगी थी'  वगैरह, वगैरह.

ये सब अंग्रेजी में बता दिया तो सिद्ध हो गया चलो लड़का बहुत तेज है !   शाबाश !

एक दो बार के बाद समझ आ गया था कि अब अगला सवाल ये होने वाला है - 'राम के आम खाने के पहले रेल गाडी जा चुकी थी'. (इसका जवाब ये क्यों नहीं कि - अब आमे खाये में नशा रही उनकर त गाड़ी छुटबे करी!).

वो चीजें भी सुन कर याद हुई जो हमारे बचपन में समाप्त हो गयी थी -

मन-सेर-छटाक।
रत्ती-माशा-तोला।
रुपया-आना-पैसा-पाई।

यदि किसी बड़े-बूढ़े ने भी कभी पढ़ा हो और हमने सुन लिया किसी चर्चा में तो भी याद हो गया। इन प्रणालियों के बारे में बस इतना ही सुना। एक से दूसरे में परिवर्तित करना रटा नहीं तो आज तक पता भी नहीं। श्रुति परम्परा मज़ेदार थी। आगे भी ये आदत बनी रही। पिरीआडिक टेबलतो मुझे लगता है सबने ही ऐसे रटा होता है - हली नाक रब कस फर ! बीमज कासर बारा...

पढ़ाने वाले लोग भी मजेदार थे। गणित के एक शिक्षक ठेठ बिहारी । उन्होंने जैसे कहा था - बहिष्कोण सुदूर अन्तः कोणों के योग के बराबर होता है। सुदूर माने ? - सटलका से दूर ! 

अब इसके बाद जीवन भर कोई कुछ भी भूल जाए सुदूर का अर्थ कैसे भूल सकता है?  - and now you can't un-listen this - सुदूर माने - सटलका से दूर !

एक दो बातें हो तो लिखी जाएँ... ऐसी कितनी बातें हैं।  त्रिकोणमिति में उन्होंने पहले क्लास में लिखा - 'पंडित भोले प्रसाद बोले हरे हरे'.  इसका कभी इस्तेमाल नहीं करना पड़ा पर देखिये याद अब भी है !

संस्कृत में तो कितनी बातें याद रही. यण संधि - इकोऽयणचि - इई का य उऊ का व ऋ का र तथा लृ का ल हो जाता है। अयादि संधि - एचोऽयवायाव: ये बोलते समय मास्टर साब लटपटा जाते। लगता उनके मुंह में रसगुल्ला अटक गया और अब घुल रहा है। और याद भी वैसे ही है। संधि-विच्छेद से नाता इसलिए भी रहा कि हमारे शिक्षक हर अध्याय के शुरू में ही पहला काम यही कराते - एक एक शब्द का विच्छेद, जहाँ भी संभव हो।  बोलते हर शब्द के संधि को पहचान उसका विच्छेद कर दो फिर विभक्ति। बस ८०% अर्थ समझ में आ जाएगा।  बाकी जो बचा वो प्रत्यय-उपसर्ग इत्यादि से समझ आ जाएगा। संधि दीखते ही विच्छेद करा देते ! पढ़ते समय भी बोलते कि विच्छेद करके पढ़ो। हम उन्हेंएंटी-संधिव्यक्तित्व वाले कहते और अब लगता है इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था संस्कृत पढ़ाने का।

याद तो शम्भू के बापभी हैं। हिंदी में एक अध्याय था जिसके लेखक थे अजित कुमार। हमसे दो साल सीनियर थे - शम्भू कुमार जो अजित कुमार के पुत्र थे। लेखक अजित कुमार और शम्भू के बाप अजित कुमार दो विभिन्न लोग थे। लेकिन किसी शरारती लड़के ने स्कूल में सफर के वापसी के लेखक का नाम बता दिया -  'शम्भू के बाप'. और ये प्रसिद्द हो गया। अब भले ये भूल जाएँ की तोड़ती पत्थर के लेखक निराला थे लेकिन सफर से वापसी - शम्भू के बाप भला भूल सकते हैं?

भूगोल के शिक्षक ग्लोब पर हाथ फिराते - स्वीडन-फिनलैंड-इंग्लैंड-आइसलैंड... संभवतः अपने जमाने के रटे क्रम में हाथ फिराते दुनिया पर। लगता रैप कर रहे हैं।

वैसे कंठस्थ करने और कंठस्थ रह जाने में संस्कृत ही एक नंबर रही -

शैले शैले न माणिक्यं. मौक्तिकं न गजे गजे. साधवे ना ही सर्वत्रं चन्दनं न वने वने।
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अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् | परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्। वगैरह वगैरह.

और सबसे अधिक मजा आता निबंध में ये सब ठेलते हुए. कहीं से अपने हाई स्कूल के दिनों के परीक्षा में लिखे निबंध पढ़ने को मिल जाते तो खुदा कसम मजा आ जाता. (खुदा कसम वाला प्रसंग इस पोस्ट में है).

संस्कृत मुझे पसंद भी थी । गणित-भौतिकी-संस्कृत के बाद ही कुछ था। मुझे लगता है इसका सबसे बड़ा कारण थे शिक्षक और उनका प्रोत्साहन। एक अच्छे शिक्षक पर बहुत कुछ निर्भर करता है। किसी विषय में रूचि पैदा करने में। नीरस लगने वाला विषय कोई अच्छा शिक्षक पढ़ा दे तो वही रुचिकर हो जाए। और कितनी भी रुचि हो तो बेकार लगने लगे।

तृतीया विभक्ति पढ़ाते हुए संस्कृत के शिक्षक एक दिव्यांग शिक्षक का उदाहरण देते। वो भी अक्सर उनको सुनाते हुए - स: पादेन खंज: ! (स: की जगह उदाहरण में वो उन शिक्षक का नाम लिखा देते) . अब लगता है ऐसा करना अत्यंत असंवेदनशील था। पर स्वाभाविक है उनका मजे लेकर लिखवाना वैसे के वैसे ही याद है।

किसी ने कहा - 'सर ऐसे नहीं बोलना चाहिए आपको. फलाने सर को बुरा लगता होगा'

तो उन्होंने कहा था - 'अरे वो मित्र हैं हमारे। वैसे हैं भी तो पुरे अष्टावक्र ! पादेन खंज: तो सम्मान हुआ।

बताइये !


 वे भी दिन थे. लगता है हमने मजे-मजे में पढाई कर ली !

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~Abhishek Ojha~

कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क

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सामाजिक विज्ञान को विज्ञान की उपाधि जरूर किसी ऐसे व्यक्ति ने दी होगी जिसे लगा होगा कि विज्ञान को विज्ञान कहना डिस्क्रिमिनेशनहो चला है। विज्ञान और तार्किकता बूर्जुआ बन गए हैं। अतार्किकता को क्रांति कर देनी चाहिए! क्योंकि भाव तो अतार्किकता को भी मिलना चाहिए और फिर किसी ने लेख लिखा होगा - इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्कके अंतर्गत ऐसे कहा जा सकता है कि अतर्किकता भी विज्ञान है।

इसका मतलब मत पूछियेगा क्योंकि मैं ठहरा गणित का आदमी जहाँ १+ १ दो और केवल दो होते हैं। १+१ की बात आ ही गयी है तो पहले एक जोकबाकी बाद बात में करेंगे। [बात प्रवचन जैसी लगने लगे तो बीच में जोकठेलने की बड़ी महिमा बतायी गयी है.]

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एक साक्षात्कार में तीन लोग गए। पहला गणितज्ञ। उससे पूछा गया १+१ क्या होता है?
बोला २.
२? कुछ और नहीं हो सकता?
और कुछ? पगलेट हो क्या?

दूसरा आया.  उससे भी वही सवाल।
उसने बोला १.९० से २.१० के बीच कुछ भी हो सकता है।  आंकड़े में गड़बड़ी हुई हो तो १०% त्रुटि की संभावना लगती है।
सांख्यिकी पढ़ी थी उसने और इसका रौब झाड़ना जरूरी लगा उसे।

तीसरा. सामाजिक विज्ञानी. बुद्धिजीवी. उससे भी वही सवाल। गणित-तर्क १, २, जोड़-घटाव का उसे कुछ नहीं पता था।
उसने पहले उठ कर दरवाजा बंद किया. इधर उधर देखा. और धीरे से बोला - आपको कितना चाहिए? एक कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क बना के उतना साबित कर देंगे

जोकसमाप्त.
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आजकल आंकड़ों के नाम पर कई बार अपनी बात कहने के लिए जो लोग करते हैं उसे विज्ञान में फर्जीवाड़ा कहा जाता है.

बात करनी थी कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्ककी। एक वर्ग है जो बिना (बहुधा अतार्किक) फ्रेमवर्क के नहीं सोच सकता। और अतार्किक फ्रेमवर्ककी व्याकपता अनंत होती है। तार्किकता व्यक्ति में एक प्रकार से लाज-शर्म की उपज भी करता है।  तार्किक व्यक्ति को अतार्किक बात करते हुए शर्म आती है। एक बार गलत हो जाने पर अगली बार उसे बोलने से पहले और अधिक सोचना पड़ता है। अतार्किक के साथ इसका उल्टा होता है। जितनी बार गलत हुए अगली बार उतने ही अधिक विश्वास से गलत बोलते हैं।  जैसे हर चुनाव में उनका विशेषज्ञ अनुमान और असली परिणाम एक दूसरे को अपना वही दिखाते हैं जो ३६ में ३ और ६। लेकिन वो ठहरे विशेषज्ञ फिर झाड़ेंगे ही अपनी बात। उन्हें ये नहीं समझ आता कि फिर उठ खड़े हो चल पड़ने का ज्ञान पुनः पुनः वही पगलेटी करते रहने के लिए नहीं होता है :)

मैंने जीवन में कुल मिलाकर कुछ घंटे टीवी समाचार देखा होगा। उसमें भी आजकल सोशल मीडिया पर दिख जाने वाले क्लिप्स मिलाकर। आखिरी बार किसी चुनाव का लाइवपरिणाम टीवी पर देखा था वो बिहार के चुनाव थे। और वो पहली और आखिरी बार था। जो अपने आप को और एक दूसरे को सबसे बड़े चुनावी विशेषज्ञ कहते हैं उन्हें लाइव देख रहा था। यादव-गुप्ता-रॉय  - एनडीटीवी पर। हुआ यूँ था कि उनके रुझानों की फीडगलत थी। विशेषज्ञ बोल रहे थे ..but you should realize that only industry Nitish developed in Bihar was brick kilns. He can not win elections again and again with that. थोड़ी देर में उन्हें पता लगा कि असल में नितीश कुमार चुनाव जीत रहे हैं तो...  बिना शर्म, पलक तक ना झपकी बोलने लगे  -Nitish is the man who built Bihar brick by brick. He is true people's leader. The results are a reflection of that. ऐसी मोती चमड़ी ! ये है विशेषज्ञों की असली विशेषज्ञता। वो जो भी बोल रहे हों, हो जो भी रहा हो - अपने ईंट भट्ठे के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क  में झोंक देते हैं।  और आप अपनी सोच यदि इन विशेषज्ञों के कहे से बनाते हैं ! तो ... ये वही लोग हैं जो अंतिम समय तक नहीं जानते थे कि मंत्रिमंडल में किसे क्या मिलेगा। और पता चलने के पांच मिनट में लेख लिख देते हैं कि क्यों किसे कौन सा मंत्रालय मिला !


औद्योगिक संसार में आजकल बहुत कुछ आउटसोर्सकिया जाता है इनमें से एक प्रमुख है - प्रेज़ेंटेशन या पिच बुक की डिजाइन। जिन्हें आउटसोर्स किया जाता है वो कंपनी कुछ रेडीमेड टेम्पलेट रखती हैं। एक पसंद नहीं आया तो दूसरा भेज देते हैं। कुछ सालों बाद जब लोग ऊब कर नया डिज़ाइन चाहते हैं और वापस नया डिज़ाइन मांगते हैं तो वो फिर से पिछला वाला भेज देते हैं। ये नहीं तो वो पसंद तो आयेगा ही। वैसे ही ये विशेषज्ञ टेम्पलेटरखते हैं। ये फिट बैठा तो ठीक नहीं तो दूसरा वाला। नया कुछ है नहीं इनके पास। युग बदल गया - चुनाव देखने का तरीका वही।  फॉर्मूलेवही।  वोटर के लिए जाति-धर्म ख़त्म हो जाए पर इनके दिमाग में उसके अलावा कुछ है ही नहीं तो उसके बाहर कैसे सोच सकते हैं ! टेम्पलेटही वही है दूकान भी एक ही टेम्पलेटबेच कर चलाना है।

 बचपन में एक जान पहचान के थे जिनके किराने की दुकान थी। किराने की दूकान यानी जिसमें जरुरत का सब कुछ मिल जाए। वो एक ही प्रकार का चावल रखते - कोई यदि कहता कि थोड़ा महीन दीजिये तो अंदर जाकर वही चावल दोनों मुट्ठी में लाकर दे देते। कोई कहता थोड़ा साफ़ दीजिये तो भी वही करते।  कोई कहता पुराना दिखाइए तो भी वही। और लोग दोनों मुट्ठियों के चावल देख एक वाले को चुनकर कहते हाँ ये वाला बढ़िया है। वो दो रुपया अधिक लगाकर वही चावल तौल देते। वैसे ही ये विशेषज्ञ हैं - चावल इनके पास एक ही है। आपको यदि ये समझ आ गया हो  तो समय है दुकान बदलने का। या जमाना पी२पी का है तो दुकानदार को दलाली ही क्यों देना। अपनी सोच इन्हें आउटसोर्स करने की जगह खुद सोच लीजिये ! जिसे ये विशेषज्ञ थिंकिंग, एनालिसिसवगैरह का नाम देते हैं उसे उन्होंने खुद आउटसोर्सकर रखा है अपने पूर्वाग्रहों को, उस कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्कको जिसे वो संसार की धुरी समझते हैं। ऐसे लोग संसार में हर जगह बहुतायत में पाए जाते हैं। हो सकता है उन्हें स्वयं नहीं पता वो ऐसे होते हैं। संभवतः वो अपने को समझते तो कलिकाल सर्वज्ञ हैं ठीक वैसे ही जैसे भर्तृहरि परिभाषित मुर्ख !  

 - अर्थात एक अधूरे ज्ञान से भरा व्यक्ति जिसे ब्रम्हा भी नहीं समझा सकते। जो तर्क के प्रति अँधा है.पर जिसे घमंड भी है कि उससे बुद्धिमान कोई नहीं. आप चाहे तो मगरमच्छ के दांतों में फँसा मोती निकाल सकते हैं, समुद्र को भी पार कर सकते हैं,  गुस्सैल सर्प को भी फूलों की माला तरह अपने गले में पहन सकते हैं...  लेकिन इनको को प्रत्यक्ष सही बात समझाना असम्भव। संभव है रेत से भी तेल निकल जाये  या मृग मरीचिका से भी जल मिल जाए। खरगोशों के सींग उग आये; गुलाब की पंखुड़ी से हीरा काटना हलवा हो जाए लेकिन एक पूर्वाग्रही मुर्ख को सही बात का बोध? भ्रम और घमंड का कम्बाइंड इक्वेशननॉविएर स्टोक्ससे भी खतरनाक इक्वेशनहोता है। उनकी बातें सुन आयरनी (irony) कपार खुजलाने लगती है कि...  अब कोई नया शब्द ढूंढ लो बे तुमलोग हमसे न हो पायेगा। मैं झूठ नहीं बोल रहा आप अंग्रेजी डिक्शनरी खोल कर रख दीजिये और इनके विचार दो घंटे बजाइये. irony शब्द मिट जाएगा डिक्शनरी से।

एक सत्य कथा बताता हूँ -  मनोहर कहानियों से थोड़ी कम रोचक होगी पर उतनी ही सत्य।
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...एक विश्वविद्यालय है दिल्ली में. वहां एक विद्यार्थी को कहा गया शोध करके आओ कि किसी अमुक योजना से जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ. साधारण प्रश्न है. एक विद्यार्थी विभिन्न प्रकार के आंकड़े लेकर कुछ महीनों में आया. सुन्दर अध्ययन.

प्रोफ़ेसर साब लाल हो गए. कहा ये गलत है तुमने तो कुछ किया ही नहीं?
क्यों?
इसमें कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क कहाँ हैं? तुमने इस बात का अध्ययन तो किया ही नहीं कि सरकार किसकी थी ! न इसमें कास्ट फैक्टरहै. ना रिलिजन.
सर, उसकी क्या जरुरत है? आर्थिक स्थिति तो है.
तुम्हे यही नहीं पता ! प्रोफ़ेसर साब ने असाइनमेंट फाड़ दिया।धमकी दी की फेल हो जाओगे।

फिर विद्यार्थी ने दो घंटे में फ़टाफ़ट लिखा कि इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन इन कॉन्टेक्स्ट ऑफ़ कास्ट सिस्टम के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क के हिसाब से इसका फायदा किसी को नहीं होगा। एक बार फायदा हो भी गया तो उसके बाद क्या? स्टैंडिंग ओबेशन ! तालियां बजायी प्रोफ़ेसर ने और कहा कि इसमें फेमिनिज्म और सोशिऑलोजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टीभी लगाओ. सोशल स्ट्रैटिफिकेशनलगाओ। तुम्हे गोल्ड मैडल दिलाया जाएगा।

गाँव-गाँव घूमकर आंकडे  इकठ्ठा कर किया गया अध्ययन फाड़ कर फेंक दिया गया। पर दो घंटे का तथाकथित अध्ययन फ्रेमवर्क वाले विश्वविद्यालय में वो वैसे ही फिट हो गया जैसे बोल्टऔर नटएक दूसरे में फिट हो जाते हैं । कालांतर में वो बालक तथाकथित सामाजिक वैज्ञानिक बना। हर मुद्दे पर राय देने वाला। और उसका होली-दिवाली होते चुनाव। उन दिनों उसकी व्यस्तता ऐसी होती कि एक टांग एक स्टूडियो में तो दूसरी दूसरे स्टूडियो में। हर बार उसकी बातें गलत होती पर उसे अपने लाल गुरु की बातें गाँठ बाँध ली थी। सबसे पहले मेरे घर का अंडे जैसा था आकार की तरह रट लिया था इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  इन कॉन्टेक्स्ट ऑफ़ कास्ट सिस्टम एंड...इसके आगे पीछे कुछ हो कैसे सकता है।  एक अटके हुए रिकॉर्ड की तरह यही बात दोहराते रहता। अंडे जैसा है संसार पर ही रुका रहा कभी बहार निकला ही नहीं। दुनिया बदल गयी पर उसे कुछ नहीं दीखता था। उसके अनुसार प्रत्यक्ष को प्रमाण नहीं चाहिए होता है। यदि कुछ चाहिए होता है तो वो है - कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क ।

धीरे धीरे उसे लगने लगा था संसार ही चलता है उसके कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क से। उसके बिना उसके कुछ नहीं चल सकता - सूरज,  चाँद किसी की औकात नहीं। कौन सा गुरुत्वाकर्षण बे ? संसार चलता है  इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन  ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  एंड... बंगके बंगाली फिरंग के फिरंगावाली दिल्ली के दिलवाली सब फ्रेमवर्क से चलत हैं.*

दुनिया अपनी गति और नियमों से चलती रही।  वो अपने हिसाब से समाज की संरचना और भविष्य बताता रहा । हर बार वो गलत होता लेकिन बन गया था विशेषज्ञ तो वो कैसे गलत हो सकता था? उसकी बात गलत होती तो पहले उसे सही करने के लिए प्रोपेगंडाकरने लगा।  फिर बौखलाहट में दूसरों की  बातों में गलती  ढूंढता। यदि फ्रेमवर्क सही नहीं है तो उसे सही कराने के लिए किसी हद तक जायेंगे ! ऐसा हो कैसे सकता ही कि वो गलत हो। सबको उसमें फिट होना पड़ेगा।

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चुनावों में उसके कही पार्टी की हार हुई तो बोला -

ईवीएम हैक कर लिए?
किसी ने पुछा - हैकिंग क्या होती है? मालूम है?

बोला - हाँ, जब आप गलत हो और गलती नहीं माननी हो तो उसे हैकिंग कहते हैं। अरे मान लो ऑनलाइन गाली-वाली दे दिया किसी को और बाद में माफ़ी मांगने की नौबत आ जाए तो कहना होता है कि अकाउंट हैक हो गया। तो वैसे ही अब ईवीएम ही हैक हुआ होगा। वोट गलत थे।

अच्छा।

उसके बाद वो लग गया अपने फ्रेमवर्क को सही करने के लिए प्रोपैगैंडामें... पर वो फिर फेल हो गया तो बोला - साला सब अम्बानी अडानी का पैसा से चुनाव जीत गया सब। इसलिए मेरा फार्मूलानहीं चला. ब्लडी कैपिटलिज्म.

एक हारने वाली पार्टी वाला बोला - अबे हममें ऐसा क्या नहीं है जो अम्बानी अडानी को उसमें दीखता है? हमने तो और खुला हाथ दिया था हम तो हारे ही नहीं होते कभी !

विशेषज्ञ बोला - अबे चुप करो।  विशेषज्ञ तुम हो या मैं? तुम साले गंवार। जीत तो पाए नहीं मेरे फॉर्मूलेसे भी।  तुम्हे तो मर जाना चाहिए।  हमारी बात गलत नहीं है।  मीडिया ने जीताया है.

लेकिन उस हिसाब से तो तुम्हे जीतना चाहिए. वो वाली कोशिश तो तुमने की थी?

ये सुनते हुए उसके दिमाग में बत्ती जली - "अबे साला तो मामला ये है. जनता ही *तिया है।"

उसने घोषित कर दिया जनता को समझ ही नहीं है. ये प्रणाली ही खराब है. यशवंत सिन्हा की पेटेंटेडलाइन थी - कोई भी *तिया मुख्यमंत्री बन जाता है. उसी को उसने चोरी कर कहा - कोई भी *तिया वोट डाल देता है। तो क्या होगा। किसी को समझ ही नहीं है।

पर तुम्हारे हिसाब से तो सभी इक्वलहैं?

हैं नहीं। होंगे। हम करेंगे। सब इक्वलहो कैसे सकते हैं बिना क्रांति के? इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन  ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  एंड...

तो अभी क्या है?

अभी हम ज्यादे इक्वल हैं !

ये तो फिर चोरी की तुमने ये तो जॉर्ज ऑरवेलने तुम्हारी जमात के लिए कहा था।  पर ठीक है जो तुमने खुद ही कहा।

वो बड़बड़ाते रहा - हम गलत कैसे  हो सकते हैं. हम जानते हैं कि किसको किसे वोट देना चाहिए। यदि किसी ने नहीं दिया तो *तिया वो हुआ या मैं? समझ ही नहीं किसी को। उन सालों की तो गर्दन पकड़ के मैं... सारे संसार को कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क में फिट होना है. पगलेट फिट ही नहीं हो रहे ! इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन  ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  एंड...

दुनिया अपने हिसाब से चलती रही।


* गुरु गोविंद सिंह जी महाराज का लिखा भजन दिल्ली में गुरुद्वारा बंगला साहिब में सुना था - बंगके बंगाली फिरंग के फिरंगावाली दिल्ली के दिलवाली तेरी आज्ञा में चलत हैं.
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~Abhishek Ojha~



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